’कैलाश सत्यार्थी

राहुल गांधी की पदयात्रा पर तरह-तरह की टीका-टिप्पणियां हो रही हैं। इसे किसानों के नाम पर सियासत कहा जा रहा है। सत्तारूढ़ दल का महासचिव यदि सियासत न करे तो और करे भी क्या ? किसानों को उनका हक दिलाने का कोई गैर सियासी तरीका भी तो नहीं है ? जो भी हो उनकी पदयात्रा से किसानों का मुद्दा एक बार फिर गर्म हो गया है। इसी बीच यमुना एक्सप्रेस-वे से सटे गांवों में किसानों की जमीन लौटाने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने जमीन अधिग्रहण के सरकारी गोरखधंधे पर भी सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। ग्रामीणों की जद्दोजहद ग्रेटर नोएडा के भट्ठा-पारसौल गांव तक ही सीमित नहीं है बल्कि महाराष्ट्र में प्रस्तावित जैतापुर परमाणु ऊर्जा केन्द्र निर्माण, उड़ीसा में पास्को, झारखण्ड आदि दर्जनों जगहों पर जारी है। अधिग्रहित जमीनों के दाम ज्यादा मांगना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है किन्तु देश का किसान जिन गंभीर समस्याओं से जूझते हुए अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, उनकी तह में जाना भी जरूरी है। इनमें कुछ की जड़ें बड़ी पुरानी हैं तथा अन्य कुछ नई आर्थिक नीतियों से उपजी हैं। इनके समाधान के ठोस उपाय किए बगैर किसानों का भला संभव नहीं है। बुद्धिजीवियों और कृषि शास्त्रियों के अलावा यह जरूरी है कि सभी राजनैतिक पार्टियांे को भी इन मुद्दों को अपने एजेण्डे में शामिल करना चाहिए।

आजादी से पहले चम्पारण के किसानों का मुद्दा खुद महात्मा गांधी ने उठाया था जो उनके सत्याग्रह की पहली प्रयोगशाला साबित हुआ। बिहार में ही तीस के दशक में स्वामी सहजानन्द ने देश के किसान आन्दोलन को जन्म दिया था। आजादी के बाद देश की राजनैतिक और आर्थिक प्राथमिकताएं बदलीं। नेहरू जी के ढांचागत विकास और पश्चिमी औद्योगिकीकरण के माॅडल के चलते खेती, जमीन और गांव-देहात से संबंधित मुद्दे लगातार हासिए पर चले गए। अस्सी का दशक आते-आते यह साबित हो चुका था कि खेती, मुनाफे का नहीं बल्कि घाटे का सौदा बन चुकी है। पारंपरिक खेती का विकास हमारी सरकारों की प्राथमिकता कभी नहीं रही। वैज्ञानिकता के नाम पर पश्चिम से आयातित कृषिशास्त्र हमारी सरकारी नीतियों पर हावी होता चला गया। आम लोग यह समझ भी नहीं पाए कि उस कथित विज्ञान के पीछे अनेकों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के भारी मुनाफे का ज्ञान छिपा हुआ था।

अंग्रेजों के जमाने में इंग्लैण्ड की महारानी को भारतीय जमीनों के अधिग्रहण का असीमित अधिकार प्रदान करने वाले भूमि-अधिग्रहण कानून, 1894 के सबसे बड़े शिकार आजाद हिन्दुस्तान के किसान हुए। इसके चलते सरकारें मनमाने तरीकों से किसानों की जमीनें हथियाती रहीं। दूसरा, गांवों में पर्याप्त मात्रा में बिजली और पानी न मिलने तथा इनकी लगातार मंहगी हुई दरों ने भी किसानों को बुरी तरह से प्रभावित किया। खेती के लिए कर्जा देने हेतु बनाए गए महकमें और बैंक न केवल लुटेरे साबित हुए, बल्कि अपने ओहदे का नाजायज फायदा उठाते हुए उस सरकारी लाल फीताशाही ने किसानों पर अत्याचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश आदि से कर्ज वसूली के नाम पर अमानवीय जुल्मों, महिलाओं व मासूम बच्चियों से बलात्कारों, खुले आम लूटपाट और आगजनी तक की शिकायतें, ’ऋण-मुक्ति आन्दोलन‘ के द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंची। 1983 में देश की सबसे बड़ी अदालत ने इसे बेहद गम्भीर मामला मानते हुए एक जनहित याचिका के रुप में स्वीकार करके कर्ज मुक्ति का महत्वपूर्ण फैसला दिया।

अस्सी के दशक के मध्य में ही किसानों की पीड़ा और आक्रोश महाराष्ट्र और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दो अलग-अलग आन्दोलनों के रुप में तेजी से फट पड़ा। ये दोनों ही आन्दोलन कृषि उत्पादनों के बढ़े हुए बाजार मूल्य सुनिश्चित करने के साथ-साथ बिजली, पानी तथा अन्य लागत मूल्यों में कटौती सरीखे मुद्दों को लेकर थे। किसान आन्दोलन की उस आंधी में सत्तारूढ़ों और विपक्षी पार्टियों ने उनके मुद्दों को अपने चुनावी घोषणापत्रों में जगह दी। प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह को किसानों पर लादे गए हजारों करोड़ रुपए के कर्जें माफ करने पड़े। किन्तु 90 के दशक में जहां एक ओर किसान आन्दोलन लगातर क्षीण होते रहे, वहीं हमारा देश आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की ओर छलांगे मारता चला गया। परिणाम सामने है।

पिछले दस सालों की बात करें तो देश में लगभग ढाई लाख से अधिक किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुए हैं। विश्व बैंक के एक पूर्व उपाध्यक्ष के अनुसार अगले चार सालों यानि 2015 तक भारत के बीस करोड़ किसान अपनी खेती-बाड़ी के काम को छोड़ देंगे और गांव से विस्थापित होकर शरणार्थी बन जाएंगे। यह संख्या इंग्लैण्ड, फ्रांस और जर्मनी की लगभग कुल आबादी के बराबर है। देश के कृषि मंत्री शरद पवार खुद मानते हैं कि 85 प्रतिशत किसान ढाई एकड़ से भी कम जोत वाले हैं जिससे मुनाफा कमाना तो दूर, उनका गुजारा भी संभव नहीं है। देश में खाद्यान्न उत्पादन का क्षेत्रफल लगातार घटते-घटते 14 लाख हेक्टेअर से भी कम रह गया है। पिछले वर्ष औद्योगिक विकास की दर जहां 16.8 प्रतिशत आंकी गई थी वहीं कृषि विकास दर मात्र 5 प्रतिशत का आंकड़ा भी नहीं छू पाई, जबकि देश की तीन चैथाई आबादी की आजीविका खेती पर ही निर्भर है।

आज देश का किसान जिन गम्भीर चुनौतियों से जूझ रहा है, उनमें से तीन सबसे अधिक जानलेवा हैं। इनका संबंध न केवल किसान विरोधी नीतियों व कानूनों से है बल्कि अतर्राष्ट्रीय बाजार व्यवस्था और आर्थिक समझौतों से भी है। शायद इसीलिए सत्ता और विपक्ष में केन्द्र तथा राज्यों में बैठी पार्टियां इन बुनियादी मदु्दों से किनारा कर रही हैं या किसान वोट बैंक के खातिर उन्हें थोड़ा बहुत लाॅलीपाप देकर बरगलाना चाहती हैं।

पहला ज्वलंत मुद्दा जमीनों के अधिग्रहण का है। रत्नागिरी जिले में प्रस्तावित जैतापुर परमाणु बिजली संयंत्र के अलावा महाराष्ट्र में ही रायगढ़ में किसानों के जबर्दस्त बवाल के बाद रिलायंस को विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) बनाने हेतु दी जा रही 10 हजार हेक्टेअर या 100 वर्ग किलोमीटर जमीन का अधिग्रहण सरकार को रोकना पड़ा। पश्चिम बंगाल के सिंगूर में टाटा तथा नंदीग्राम में इंडोनेशियन कम्पनी सलीम समूह को रसायन फैक्ट्रियां लगाने के लिए दी जा रही जमीनों का अधिग्रहण पुलिस और किसानों के बीच हुए हिंसक संघर्षों के बाद ही रुक सका। झारखण्ड में इस्पात कारखाना लगाने के लिए मित्तल सूमह को देने के लिए 120 वर्ग किलोमीटर जमीन का अधिग्रहण भारी विवाद में फंसा है। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र के आदिवासियों की बर्बादी की कीमत पर इस प्रस्तावित फैक्ट्री को जरूरत से चार गुना ज्यादा जमीन कौडि़यों के मोल पर उपलब्ध कराई जा रही है। यही कहानी उड़ीसा में नीलगिरी पहाडि़यों पर प्रस्तावित बाक्साइट खनन के लिए वेदान्त समूह को परोसी जाने वाली जमीन का है जिसे पर्यावरण से जुड़े गम्भीर सवालों के कारण फिलहाल रोक दिया गया है। कई अन्य राज्यों में भी ऐसी ही जद्दोजहद जारी है। अधिग्रहण में किसानों के हितों तथा उचित मुआवजे के लिए सख्त कानून जरूरी है। परन्तु जब तक खेती, उद्योग, पर्यावरण व ढांचागत विकास मंे संतुलन बनाते हुए एक दूरगामी राजनैतिक परिदृष्टि पैदा नहीं होती, तब तक कोई स्थाई हल नहीं निकल सकता। साथ ही सरकारों की “सबसे बड़े प्रापर्टी डीलर” वाली भूमिका भी बदलनी होगी।

दूसरी बड़ी चुनौती बीज, उर्वरक, रसायन, कीटनाशक और भूमि-अनुबंध के मामलों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दखलंदाजी की है। पहले तो किसानों को बहुत ज्यादा उत्पादन के सब्ज बाग दिखाए गए और बाद में उनकी पारम्परिक खेती को नष्ट करके उन्हें नकली उत्पादन के चक्रव्यूह में फंसा दिया गया। जेनेटिक या शंकर (मिश्रित) बीजों पर ही नजर डाली जाय। मोन्सातो और कारगिल जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने कपास, मक्का, चावल, गन्ना, टमाटर, बैंगन आदि के शंकर बीजों के 90 से 95 फीसदी बाजार पर अपना अधिकार जमा रखा है। मजेदार बात यह है कि यही कम्पनियां बड़ी चालाकी से उर्वरकों, कीटनाशकों और अन्य सभी प्रकार के कृषि रसायनों के उत्पादन पर भी पूरी तरह से काबिज हैं। वे इतनी प्रभावशाली हैं कि भारत सहित दुनिया के कई देशों ने इनकी सहूलियतों और मुनाफे को ध्यान में रखकर अपनी राष्ट्रीय नीतियां और काूनन बनाए या उसमें संशोधन किए।

भारत में 2004 में बना बीज कानून इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इसके बाद विदेशी कम्पनियों के लिए रास्ता पूरी तरह से साफ कर दिया गया। इस कानून के अन्तर्गत किसानों के लिए आवश्यक है कि वे किसी पंजीकृत बीज का ही प्रयोग कर सकेंगे। ऐसा न करने पर 6 माह की सजा या 60 हजार रुपए जुर्माना या फिर दोनों ही हो सकता है। अर्थात खुद के द्वारा तैयार किए गए बीज किसान उपयोग में नहीं ला सकते। जाहिर है कि पंजीकृत बीजों के लिए किसानों को किसी न किसी विदेशी कम्पनी के बीज भारी कीमत पर खरीदने होंगे। कई लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि अमेरिकी कम्पनी मोन्सातो भारत में कपास की खेती के लिए आवश्यक बीजों के 95 प्रतिशत बाजार की मालिक है। लूट का आलम देखिए कि इस कम्पनी ने सात रुपए प्रति किलोग्राम वाले बीज का दाम बढ़ाकर 3600 रुपया प्रति किलोग्राम कर दिया था, जिसके परिणाम स्वरुप वह भारतीय किसानों से 1000 करोड़ रुपया सालाना की राॅयल्टी वसूल कर रही थी। किसानों के आक्रोश से मजबूर होकर आखिरकार आंध्रप्रदेश की सरकार ने संबंधित अन्तर्राष्ट्रीय आयोग में शिकायत करके बीजों के दाम को कम कराया।

इसी कड़ी में एक और गम्भीर चुनौती हमारे किसानों की जमीनों को विदेशी कम्पनियों द्वारा ठेके पर ले लेने या गिरवी रख लेने का है। ये कम्पनियां देश की उपजाऊ जमीनों को चुन-चुनकर उन पर अपने मनमाफिक फसलों की खेती करा रही हैं। किसान अपनी स्वायत्तता खोकर अपनी ही जमीनों पर विदेशी कम्पनियों के नौकर बन कर रह गए हैं। ये कम्पनियां मिश्रित बीजों और रसायनों की भरमार से शुरू के कुछ सालों में भारी मुनाफा कमाकर उन जमीनों को पूरी तरह से निचोड़कर छोड़ देती हैं। वे उतने ही वर्षों के लिए जमीनों का अनुबंध करती हैं जितने में उनसे जमकर मुनाफा कमाया जा सके। इन चक्रव्यूहों से बाहर निकलना मुश्किन जरूर है, असंभव नहीं। पारम्परिक अथवा जैविक खेती को बढ़ावा देने हेतु कठोर राजनैतिक फैसले लेने होंगे।

तीसरी चुनौती कृषि उत्पादनों के संदर्भ में एक समन्वित मूल्यनीति की जरूरत से जुड़ी है। इसके लिए गरीब उपभोक्ताओं के खर्च की सीमाओं, कृषि उत्पादन की लागत तथा बाजार मूल्यों के बीच संतुलन बनाना होगा। खेती पर लागत घटाने के नए उपाय करने होंगे, जैसे सस्ती दरों पर बिजली, सिंचाई के साधन, डीजल आदि आसानी से उपलब्ध कराना। खेती के विकास हेतु सरकारी बजट में बढ़ोत्तरी भी जरूरी है। साथ ही जमाखोरी और मुनाफाखोरी पर शिंकजा कसते हुए खाद्य सामग्री की वितरण व्यवस्था को मुस्तैद बनाना होगा। लेकिन सत्ता केन्द्रित राजनीति करने वाले दलों से ये अपेक्षाएं शायद ही पूरी हो सकें। असलियत में तो किसानों को अपने हाथ से ही अपनी तकदीर लिखने के लिए तैयार होना पड़ेगा। राजनेताओं का पिछलग्गू बनने के बजाय उन्हें क्षणिक नफा-नुकसान की मानसिकता से ऊपर उठकर कृषि क्षेत्र में व्याप्त इन गम्भीर चुनौतियों का सामना करने के लिए जबर्दस्त जन आन्दोलन खड़ा करना होगा।