जमीन को भी चाहिए खून अपनी हिफाजत के वास्ते
जमीन को भी चाहिए खून अपनी हिफाजत के वास्ते
कैसे कोई उम्मीद करें कि सूअर बाड़े के फैसले से हम जमीन बचा लेंगे अपनी?
और तब पिताजी के नानाजी बोले, तुम जैसे किसानों, तुम जैसे मेहनतकशों के मुकाबले ये बनैले सूअर भी बेहतर।
इस सूअरबाड़े में लेकिन असली सूअर भी कोई नहीं है।
ऐसा सूअर जो हमारे लिए खेत जोत दें।
कैसे कोई उम्मीद करें कि सूअर बाड़े के फैसले से हम जमीन बचा लेंगे अपनी?
हमारी हजारों पुश्तें जमीन के हक हकूक के लिए वैदिकी हिंसा के तहत अश्वमेध और राजसूय में मारे गये। सूचाग्र जमीन न देने के दुर्योधन के इंकार से पूरा एक महाभारत मुकम्मल है।
जमीन के लिए फर्जीवाड़ा वास्ते निजी कंपनियों के हवाले हमारा वजूद और हमें खुशफहमी है अब भी कि जमीन की कोई लड़ाई जमीन पर लड़े बिना हम अपनी अपनी जमीन बचा लेंगे मुक्तबाजारी स्मार्ट बुलेट सुनामी से, हमारी बुरबकई का कोई इंतहा दरअसल है ही नहीं कि डिजिटल इंडिया में हमारा कोई ख्वाब है ही नहीं। सोच भी रेडीमेड है और विचार भी रेडीमेड। हम कबंध क्लोन हैं।
सर जो है ही नहीं, उसे कटाने की बात करना जाहिर है, फिजूल है। हामरा महजबीं आसमान में तन्हा तन्हा और हमारी औकात किसी उड़ान की इजाजत देता नहीं है और न हम पिंजड़े से बाहर तौल सके हैं अपने डैनों की ताकत कि ख्वाब हमारे परिंदे हरगिज नहीं है। जमीन पर दावानल है।
सारे जंगल में लगी है आग। वह भी तेलकुंओं की आग। जंगल की औकात क्या समुंदर भी जलने लगा है। इस जमाने में न मुहब्बत कहीं होती है और न कोई महजबीं आसमान तोड़कर बरसात बहार या हिमपात में जमीन पर आती हैं कि हम बाबुलंद गा सकें कि बहारों फूल बरसाओ कि हमारा महबूब आया है।
माफ करना किस्सा के बिना बात अपनी पूरी होती नहीं है। किस्सागो तो देहात देस का हरशख्स है, जिसे मुकम्मल जहां की बात दूर दो रोटी भी मयस्सर नहीं और पेट में जब तितलियां तो खेत खलिहान जल रहे होते हैं। नसों में बदतमीज वह खून भी नहीं यारों कि अपनी प्यासी जमीन को सींच सकें।
जमीन को भी चाहिए खून अपनी हिफाजत के वास्ते
हम तो चले बिकने बाजार लेकिन कोई खरीददार नहीं
बूढ़ा तोता क्योंकि राम राम कहना सीखता नहीं
नगाड़े खामोश हैं, नौटंकी लेकिन चालू है
जहां नौटंकी नहीं, नगाडो़ं की गूंज वहीं क्योंकि
जमीन को भी चाहिए खून अपनी हिफाजत के वास्ते
मुक्त बाजार में कोई सूरत नहीं है कि कोई जल जंगल जमीनका अपना हिस्सा बचा लें। उंगलियों की छाप निजी कंपनियों के हवाले करके बेदखली का चाक चौबंद इंतजाम हमने कर लिया है और सर कटाने के सिवाय कोई चारा बचा नहीं है।
फिर भी हकीकत यह भी है कि कातिलों के बाजुओं में उतना भी दम नहीं कि जनता बागी हो जाये और सर कटाते हुजूम के आगे गिलोटिन ही गिलोटिन का कारवां हो। जलजला जब आयेगा आखिरकार, तब गिलोटिन के सर बदल जायेंगे। हालांकि वह दिन देखने हम जिंदा नहीं बचेंगे यकीनन।
आज सविता बाबू के मुखातिब हो गया, मोबाइल पर बिना इंटरनेट आ धमके अमेरिकी राष्ट्रपति का ट्वीट लेकर कि हम कितने पहुंचे हुए हैं कि बाराक भइया भी याद करै हैं। उनके अश्वेत राष्ट्रपति पहली दफा बनने से पहले अपने ब्लागों के जरिये तमाम विजेट लगाकर उनके हक में दुनियाभर के लोगों के साथ हमने भी मुहिम चलायी थी, सविता को मालूम है। हमें उम्मीद थी कि वे हमें अब भाव देंगी कि व्हाइट हाउस से सीधे संदेशा है।
संदेश यह इमिग्रेशन कानून पास न कराने की मजबूरी को लेकर थी और बाराक भइया की दलील है कि वे कानून पास नहीं कर पा रहे हैं जबकि इस कानून से अमेरिकी अर्थ व्यवस्था के दिन बहुरेंगे और अच्छे दिन आयेंगे।
हम बोले कि बाराक भइया हमें अमेरिका को बुलाना चाहते हैं और मजबूर है कि विरोधियों के चलते बुला नहीं सकते।
सविता बाबू ने फटाक से कह दिया कि हम तो 128 करोड़ हैं, जरा हिसाब लगाओ किबाराक भइया का संदेशा कितनों के पास आवै हैं और व्हाइट हाउस से बुलावा कितनों को आया है।
इस देश में अब जाहिर है कि औरतों को झांसा देना मुश्किल है।
हार न मानते हुए हम बोले कि तुम तो भाव दे नहीं रही हो।
वे बोली कि देशी बाजार में अपना भाव बताइये।
दफ्तर पहुंचा तो गम गलत करने के इरादे से साथियों को आपबीती सुनाकर अर्ज किया, यार, हम तो बिकने को हैं तैयार कोई भाव नहीं देता है, कोई नहीं खरीददार। वे अलग ही लोग हैं जो बाजार में सरेआम बेशकीमत भाव बिक जाते हैं।
फिर अर्ज किया कि बंगाल छोड़ना है और दीदी ने भी अभी तक कोई संदेशा भेजा नहीं है। न अखिलेश भइया और डिंपल भाभी के यहां पहुंच है और न हमें हरीश रावत पूछते हैं।
इस पर संवेदनशील कवि ने कह दिया कि क्यों हम-हम बक रहे हो, बिकने को तैयार तो तुम हो, हम नहीं यकीनन।
चलिये, सुकून मिला जो सरेआम कोई कहता हो कि हम नहीं बिकेंगे यकीनन। वरना जमाना तो बिकने का है।
हमारे गुरु जी ताराचंद्र त्रिपाठी हमारे जीआईसी के दिनों में कहा करते थे कि हर कोई बिकता है, जो नहीं बिका वह भी बिकाऊ है। कुछ मौके की बात होती है तो कुछ बेहतर भाव की गरज होती है।
तबसे लेकर देख रहा हूं कि हर अनबंधी नदी जैसे बंध गयी है, वैसे ही हर शख्स जो अनबिका है, कैसे झट से बिक रहा है और खास तकलीफ यह है कि हम जो बिकने को तैयार है, हमें कोई खरीद नहीं रहा है उतने मंहगे भी नहीं ठहरे हम। बस, कुछ बुनियादी जरुरतें हैं, कुछ मजबूरियां है, कुछ अनसुलझे मसले हैं। मसलन जैसे सर पर छत नहीं है। फिलहाल रोजगार है, फिर रोजगार नहीं है।
जाहिर सी बात है कि हर किसी को कोई खरीदता नहीं है।
चेहरा दमकता होना चाहिए।
हो सकें तो उभयलिंगी होना चाहिए।
शीमेल तो बहुत बेहतर।
फिर सेनसेक्स की तरह सेक्सी भी होना चाहिए।
फिर भी ताज्जुब ही है कि धड़ाधड़ बिक रहे हैं लोग।
देश बेचो ब्रिगेड के पास इफरात डालर है।
उनके मजहब में भी डालर की गूंज है।
जो सामने बिकने से परहेज करै हैं वे भीतरखाने बिके हुए है।
मिलियन बिलियन डालर का राज यही है।
मिलियम बिलियन ट्रिलियन डालर काराजकाज यही है।
अर्थव्यवस्था वहीं सबसे बड़ी, जिसमें महाजनी पूंजी अबाध है। कालाधन का बहाव अबाध है। भ्रष्टाचार अबाध है। फासिज्म अबाध है तो कत्लेाम भी अबाध और बेदखली का इंतजाम भी चाकचौबंद।
फिर भी बलिहारी कि सूअरबाड़े की नौटंकी की धूम है इनदिनों।
दनादवन दनादन ट्वीट हैं रंगबिरंगे और अब फेसबुक भी सिम पर। सिम सिम खुलजा माहौल है लेकिन हर कोई अलीबाबा नहीं है।
हम मोबाइल पर अच्छे दिनों का संदेश है। डिजिटल रोबोटिक हुआ बिका हुआ देश है और हम बिके अनबिके भी बिके हुए हैं आखिर।
अब तो बाराक भइया भी पास हैं। एनी बाडी कैन डांस, आगेका कहे कि साला कि दुसाला कि महज भइया।
माफ करना किस्सा के बिना बात अपनी पूरी होती नहीं है। किस्सागो तो देहात देस का हर शख्स है, जिसे मुकम्मल जहां की बात दूर दो रोटी भी मयस्सर नहीं और पेट में जब तितलियां तो खेत खलिहान जल रहे होते हैं। नसों में बदतमीज वह खून भी नहीं यारों कि अपनी प्यासी जमीन को सींच सकें।
जमीन को भी चाहिए खून अपनी हिफाजत के वास्ते
हम तो चले बिकने बाजार लेकिन कोई खरीददार नहीं
बूढ़ा तोता क्योंकि राम राम कहना सीखता नहीं
नगाड़े खामोश हैं, नौटंकी लेकिन चालू है
जहां नौटंकी नहीं, नगाडो़ं की गूंज वहीं क्योंकि
जमीन को भी चाहिए खून अपनी हिफाजत के वास्ते
मुक्त बाजार में कोई सूरत नहीं है कि कोई जल जंगल जमीनका अपना हिस्सा बचा लें। उंगलियों की छाप निजी कंपनियों के हवाले करके बेदखली का चाक चौबंद इंतजाम हमने कर लिया है और सर कटाने के सिवाय कोई चारा बचा नहीं है।
फिरभी हकीकत यह भी है कि कातिलों के बाजुओं में उतना भी दम नहीं कि जनता बागी हो जाये और सर कटाते हुजूम के आगे गिलोटिन ही गिलोटिन का कारवां हो। जलजला जब आयेगा आखिरकार, तब गिलोटिन के सर बदल जायेंगे। हालांकि वह दिन देखने हम जिंदा नहीं बचेंगे यकीनन।
पलाश विश्वास


