जम्मू-कश्मीर - अवसरवादी गठजोड़ का जहर
यह तो होना ही था! जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार बनने के पहले ही दिन से जो कुछ शुरू हो गया है, उसके लिए इससे सटीक दूसरा जुम्ला नहीं हो सकता है। पहली नजर में देखें तो पीडीपी के साथ गठजोड़ सरकार बनाना, केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा के लिए सिरदर्द बन रहा है। अलगाववादी नेता मसर्रत आलम की रिहाई के बाद के घटनाक्रम ने इस अहसास को और पुख्ता किया है। याद रहे कि कश्मीर की वादी में 2010 में सुरक्षा बलों पर पथराव की घटनाओं का तांता लगा रहा था, जिनमें अनेक मामलों में सैन्य-अद्र्घसैन्य बलों द्वारा मुख्यत: युवाओं की पत्थरबाज टोलियों पर गोली चलाए जाने की नौबत आयी थी। पथराव, गोलीबारी में मौत, फिर मौत पर विरोध जताने के लिए पथराव के महीनों चले दुष्चक्र में बलों की गोलियों से करीब 120 युवाओं की मौतें हुई थीं। विशेष रूप से आतंंकवादी कार्रवाइयों में उल्लेखनीय गिरावट की व्यापक पृष्ठïभूमि में, यह दुष्चक्र घाटी में हालात को अस्थिर बनाए रखने वाला महत्वपूर्ण तत्व माना जा रहा था। अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को पत्थरबाजी की इस मुहिम का मास्टर माइंड माना जा रहा था।
तत्कालीन नेशनल कान्फ्रेंस-कांग्रेस गठजोड़ सरकार ने मसर्रत आलम को तभी जेल में बंद किया था और जैसाकि इस राज्य के कानून के असामान्य शासन का नियम ही है, बिना कोई मामला चलाए उसे 2015 की मार्च तक जेल में बंद रखा गया था। बेशक, जम्मू-कश्मीर में भी कानून इस तरह दो साल से ज्यादा की नजरबंदी की इजाजत नहीं देता है। लेकिन प्रशासन के लिए औपचारिक रिहाई होते ही, दूसरे आरोप में फिर हिरासत में लेने के जरिए, उसे चार साल से ज्यादा जेल में रोके रखना कोई मुश्किल नहीं था। इसीलिए, तकनीकी दृङ्क्षष्टï से देखा जाए तो मसर्रत आलम की रिहाई, नजरबंदी की अवधि पूरी होने के चलते हुई है। हां! अगर इस बार, अवधि खत्म होते ही पिछली बार की तरह दोबारा गिरफ्तारी नहीं हुई, तो इसके पीछे किसी न किसी स्तर पर प्रशासन का फैसला जरूर था। जम्मू-कश्मीर के सिलसिले में इस विडंबना की ओर ध्यान खींचना निरर्थक है कि कानून के तहत नजरबंदी की अधिकतम अवधि पूरी होने के बाद भी, रिहाई होना न होना प्रशासन के फैसले पर ही निर्भर है।
अचरज नहीं कि भाजपा और आम तौर पर उसके संघ परिवार के ‘चीख-पुकारू राष्ट्रवाद’ की पृष्ठभूमि में, जो मुस्लिम बहुल कश्मीर के सिलसिले में और भी उद्घत हो जाता है, मसर्रत आलम की रिहाई मोदी सरकार के लिए शर्मिंदगी का कारण बन गयी है। आखिरकार, यह रिहाई जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती के नेतृत्व में पीडीपी-भाजपा गठजोड़ सरकार के सत्ता संभालने के बाद हुई है। उसके ऊपर से मुफ्ती सरकार ने बाकायदा ‘राजनीतिक बंदियों’ को रिहा करने का वादा किया था, घाटी के संदर्भ में जिसका अर्थ अलगाववादियों की रिहाई ही होता है। इस अर्थ में मसर्रत की रिहाई बाकायदा एक सिलसिले की शुरूआत का इशारा करती थी। अपने ‘चीख-पुकारू राष्टï्रवाद’ की कैदी भाजपा सरकार के लिए, इसे निगलना मुश्किल हो गया। संसद में गृहमंत्री ही नहीं खुद प्रधानमंत्री तक ने मुफ्ती सरकार के इस कदम से, मोदी सरकार को पूरी तरह से अलग करने की कोशिश की। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में गठबंधन सरकार में शामिल भाजपा को भी इस दलील के सहारे अलग करने की कोशिश की गयी कि यह फैसला राज्य कैबिनेट का नहीं था।
चौतरफा सवालों और संघ परिवारी संगठनों के दबाव में, जम्मू-कश्मीर में गठजोड़ सरकार के बनने के पहले ही पखवाड़े में भाजपा के प्रवक्ता इसके इशारे करते नजर आए कि गठजोड़ से पीडीपी की ‘रिहाई’ भी की जा सकती है! यह दूसरी बात है कि मसर्रत की रिइाई के मुद्दे पर संघ-भाजपा के तीखे होते तेवरों पर इस सचाई के सामने आने से घड़ों पानी पड़ गया कि इस रिहाई की स्क्रिप्ट तो मुफ्ती के मुख्यमंत्री बनने के हफ्तों पहले और वास्तव में राज्यपाल के शासन में ही लिखी जा चुकी थी। इस फैसले के समय अगर जम्मू-कश्मीर में सत्ता किसी के हाथ में थी, तो परोक्ष रूप से मोदी सरकार के ही हाथ में थी। अंतत: इस फैसले के लिए केंद्र सरकार ही जिम्मेदार थी। यह दूसरी बात है कि जम्मू-कश्मीर के विधानसभाई चुनाव में पीडीपी के अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आने और गठजोड़ सरकार बनाने पर भाजपा के साथ चल रही उसकी विस्तृत वार्ताओं को देखते हुए, राज्य प्रशासन को इसका संदेश चला गया था कि किस का राज आ रहा है। अचरज नहीं कि प्रशासन ने खुद ब खुद आने वाली सरकार की मर्जी समझकर, उसके हिसाब से चलना शुरू कर दिया हो। मसर्रत आलम की रिहाई की प्रक्रिया मुफ्ती सरकार के आने से पहले शुरू हो चुकी होने की सचाई सामने आने से बेशक भाजपा तेवर ढीले हो गए हैं। यह दूसरी बात है कि इसके बाद भी राज्य सरकार के दो-दो स्पष्टीकरणों से असंतुष्ट केंद्रीय गृहमंत्री ने मुफ्ती सरकार के लिए एडवाइजरी जारी की है कि मसर्रत के खिलाफ सभी 27 मामलों को जोर-शोर से आगे बढ़ाया जाए और जमानत को चुनौती भी दी जाए।
जाहिर है कि मसर्रत की रिहाई के मुद्दे पर पीडीपी और भाजपा में टकराव की नौबत आना कोई संयोग ही नहीं है। सच तो यह है कि पीडीपी-भाजपा गठजोड़ सरकार बनने के साथ ही, दोनों पार्टियों के बीच कहा-सुनी का सिलसिला शुरू हो चुका था। जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्वक चुनाव होने देने के लिए आतंकवादियों तथा पाकिस्तान को मुफ्ती के धन्यवाद देने के साथ ही, भाजपा के नाराजगी जताने की शुरूआत हो चुकी थी। पीडीपी के विधायकों की संसद पर आतंकवादी हमले के लिए फांसी चढ़ाए गए अफजल गुरु के अवशेष लौटाए जाने की मांग ने, भाजपा की दिक्कत और बढ़ा दी। और मसर्रत की रिहाई ने तो गठबंधन टूटने के इशारों तक की नौबत ला दी। दो महीने से ज्यादा चली वार्ताओं और बाकायदा सरकार के लिए एक एजेंडा के रूप में एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम का दस्तावेज स्वीकार किए जाने के बावजूद, पहले ही पखवाड़े में टकराव के इस मुकाम पर पहुंच जाने पर शायद ही किसी को अचरज होगा। इसकी वजह बिल्कुल सीधी सी है। जैसाकि खुद मुफ्ती ने कहा भी, यह दो ऐसी पार्टियों के बीच गठजोड़ है, जिनमें एक उत्तरी ध्रुव है, तो दूसरी दक्षिणी ध्रुव। सत्ता हासिल करने के लिए वैचारिक रूप से धुर-विरोधी पार्टियों के बीच का यह अवसरवादी गठजोड़, सरकार बनाने ही नहीं उसे कायम रखने में भी कामयाब तो हो सकता है, लेकिन उसे इस टकराव के साथ ही जीना और अंतत: मरना होगा।
बेशक, इस गठजोड़ की जड़ में पैठे अवसरवाद को इस दलील से उचित ठहराए जाने की कोशिशे की जाती रही हैं कि यह राज्य के दोनों प्रमुख क्षेत्रों तथा दोनों प्रमुख समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों का गठबंधन है। पीडीपी कश्मीर की वादी का प्रतिनिधित्व करती है, तो भाजपा जम्मू का। पीडीपी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है, तो भाजपा हिंदुओं का। दोनों का योग ही राज्य की जनता का संतुलित प्रतिनिधित्व कर सकता है, जबकि भाजपा को बाहर रखकर बनने वाली कोई भी सरकार गैर-प्रतिनिधि होती। लेकिन, यह दलील या तो बहुत भोली है या फिर शरारतपूर्ण। इस दलील में पीडीपी और भाजपा में जैसी ‘पूरकता’ खोजी जा रही है, उनका समीकरण वास्तव में इससे ठीक उल्टा है। यह सिर्फ कश्मीर या मुसलमानों और जम्मू या हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के साथ आने का मामला नहीं है। यह ऐसी पार्टियों के साथ आने का मामला है जो कश्मीर या मुसलमानों और जम्मू या हिंदुओं के विरोध की राजनीति के जरिए, दूसरे ध्रुव पर अपने आधार को मजबूत करने तथा बढ़ाने की कोशिश करती हैं। यह क्षेत्रीय या सांप्रदायिक खंडों की एकता का नहीं, क्षेत्रीय या सांप्रदायिक कट्टïरताओं के एक साथ आने का मामला है। हां! उनके साथ आने में रत्तीभर अचरज की बात नहीं है। विरोधी कट्टïरताएं अक्सर ऐसे ही एक-दूसरे को पालती-पोसती हैं। जम्मू और कश्मीर के बीच की खाई और चौड़ी होने की शक्ल में, इस संवेदनशील राज्य को और उसकी जनता को इस गठजोड़ की कीमत चुकानी पड़ेगी। ‘विकास की चिंता’ दिखावों से, इस त्रासदी को ढांपा नहीं जा सकता है।
राजेंद्र शर्मा
राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।