जयशंकर प्रसाद वैदिक कर्मकांड के मानवीय पक्षों का समर्थन करते हैं, उसके पाखंड का नहीं
जयशंकर प्रसाद वैदिक कर्मकांड के मानवीय पक्षों का समर्थन करते हैं, उसके पाखंड का नहीं
"कामायनी" के प्रकाशन को 75 वर्ष (75 years of publication of "Kamayani") होने को हैं
महानतम रूसी कहानीकार एंटन चेखव के मुहावरे (Idioms of Anton Chekhov - the greatest Russian storyteller), में कहें तो कामायनी समूचे छायावादी आन्दोलन का- प्रधान हस्ताक्षर -हैं। जिसके प्रकाशन को अब 75 वर्ष होने को जा रहे है।
निःसंदेह कामायनी का रचनाकाल दूसरे विश्व -युद्ध से पहले का है, किन्तु किसी भी युद्धकाल में असहाय मानवता की जो भयावह स्थिति होती है, उसका पूर्ण बोध प्रसाद जी की चेतना में अंतर्भूत था।
ऋग्वेद की सुपरिचित कथा मनु -श्रद्धा के बहाने से प्रसाद जी ने सभ्यता के विनाश ( जल -प्रलय ) की भूमि पर नई सृष्टि के उदय का जो काव्य -रूपक रचा है, वह विश्व- साहित्य की अमूल्य निधि है। कामायनी के उद्देश्य को उसी के रचनाकार के शब्दों में देखिये —-
"वह कामायनी जगत की
मंगल - कामना अकेली।"
तो आइये, कामायनी के प्रकाशन के इस अमृत -महोत्सव में हम आप को सादर आमंत्रित करते है। इस लिए कि हिंदी आलोचना में अब तक के मूल्यांकनों के प्रकाश में हम सभी उन अनछुए रचना- तत्वों और मूल्यांकन -मानदंडों को सामने ला सकें, जो अब तक साहित्यिक परिदृश्य से बाहर है।
कामायनी की संरचना में प्रसाद जी ने उद्भावना का वहीं सहारा लिया है, जहां वह सहज रूप में आवश्यक है।
भारतीय मिथकों, दार्शनिक-पद्धतियों और इतिहास के संरचना-तत्वों का कवि ने अदभुत संयोजन किया है। प्रसाद जी वैदिक कर्मकांड के मानवीय पक्षों का समर्थन करते हैं, उसके पाखंड का नहीं। यहां वह बौद्ध- दर्शन के करुणावाद से व्यापक रूप में प्रभावित हैं। इस प्रभाव की अनुगूंज उनकी अनेक कविताओं और नाटकों में भी है।
कामायनी की संरचना में पशुबलि की क्रूरता (Brutality of animal sacrifice in the structure of Kamayani) को लाना कवि की व्यापक उदारता का परिचायक है। प्राचीन भारत के दो महानतम समाज सुधारकों तीर्थंकर महावीर और तथागत बुद्ध के गौरवपूर्ण अवदानों से प्रसाद जी अनन्य रूप में प्रभावित रहे। सत्ता के मद में चूर शासकों और निठल्ले पुरोहितों का गठबधन भी कवि के ध्यान में था। साम्राज्यवाद की विश्वव्यापी दबंगई का तत्कालीन स्वरूप भी प्रसाद की चेतना में था। मनु के चरित्र में तानाशाही की इस निरंकुश प्रवृत्ति को,शासक की प्रवृत्ति के रूप में देखा जाना चाहिए।
सुनील दत्ता - डॉ राम दरश सिंह
पत्रकार कवि- आलोचक
(नोट - यह टिप्पणी मूलतः 20 जून 2011 को प्रकाशित हुई थी)


