जिस जमीन अधिग्रहण कानून को यूपीए सरकार अपनी एक बड़ी उपलब्धि बता रही थी, मोदी सरकार उसे बदलने जा रही है। राज्यों के साथ बैठक से इसकी शुरूआत हो गई है।

पलाश विश्वास
युद्ध घोषणा पहले ही हो चुकी है आम जनता के खिलाफ। जनसंहारी नीतियां आर्थिक सुधारों के मुलम्मे में भारतीय जनगण पर अविराम बमवर्षा कर रही है पिछले तेईस साल से। लेकिन अब तक किसी प्रतिरोध की शुरुआत हुई नहीं है और जनांदोलन सिर से खत्म है।

जल जंगल जमीन बचाने के लिए जनता को खुद सड़क पर उतारना होगा। लेकिन नवउदारवादी जमाने में राजनीति अब धर्मोन्मादी है तो अस्मिताओं में खंड-खंड बांट दी गयी है जनता जाति व्यवस्था और नस्ली बिखराव के मध्य। जल, जंगल और ज़मीन ऐसे प्राकृतिक संसाधन हैं, जो इस देश के करोड़ों लोगों के जीवन का मूलभूत आधार हैं। सदियों से नदी के किनारे और जंगल में बसे लोगों का इन संसाधनों पर नैसर्गिक अधिकार रहा है। नवउदारवादी स्थाई बंदोबस्त के तहत बनियातंत्र के कारपोरेट फासीवादी राज ने यह नैसर्गिक अधिकार छीन लिया है। हिंदुत्व की ही भाषा में बात करें तो ईश्वर की सृष्टि के सर्वनाश का चाकचौबंद इतजाम में लगी है शैतानी बाजारू ताकतें।

इसी संदर्भ में भवानी प्रसाद मिश्र की ये पंक्तियां बेहद प्रासंगिक हैं।

इस दुनिया को सँवारना - भवानीप्रसाद मिश्र

इस दुनिया को सँवारना अपनी चिता रचने जैसा है

और बचना इस दुनिया से अपनी चिता से बचने जैसा है

संभव नहीं है बचना चिता से इसलिए इसे रचो

और जब मरो तो इस संतोष से

कि सँवार चुके हैं हम अपनी चिता !

सारे लोग मुक्त बाजार में मलाई बटोरने में लगे हैं लेकिन निरंकुश सत्ता ,निरंकुश बनिया तंत्र के खिलाफ फिर स्वतंत्रता संग्राम की अनिवार्यता साज वास्तव है ज्वलंत।

क्या अपनी चिता रचने को तैयार हैं हम? जल जंगल जमीन आजीविका के लिए।

जनसंगठनों ने भूमि अधिग्रहण कानून कारपोरेट हित में बदल दिये जाने के खिलाफ चेतावनी जारी की है। संसदीय समन्वय राजनीति और नीतियों की निरंतरता के पिछले तेईस साल के रिकार्ड से साफ जाहिर है कि ऐसी चेतावनी से कुछ बदलने वाला नहीं है।

नमो सुनामी ने जिस जनादेश की रचना कर दी है, उस पर दांव लगे हैं बाजार के बहुत ज्यादा। निवेशकों की आस्था और अबाध पूंजी प्रवाह, कालाधन के मध्य दिशाएं गायब हैं।

कठिन फैसले खूब हो रहे हैं राष्ट्रहित के नाम।

राष्ट्रहित के नाम जनता के खिलाफ युद्ध जारी है।

आप अपनी चिता सजाने को तैयार हो या नहीं, चिता लेकिन आपकी सज चुकी है।

नया भूमि अधिग्रहण कानून पास होने से पहले पेश विधेयक का कारपोरेट तरफे विरोध इसी दलील पर किया जा रहा था कि निर्माण उद्योग चरमरा जाएगा। परियोजनाएं समय पर शुरू नहीं हो पाएंगी। पीपीपी परियोजनाएं प्रभावित होंगी। खनन उद्योग बाधित होगा। उद्योगों की ढाँचागत लागत 3 से 5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। भवन निर्माण परियोजनाओं में लागत वृद्धि 25 प्रतिशत तक होगी। विरोध यह कहकर भी किया जा रहा है कि भूमि अधिग्रहण की सुझाई प्रक्रिया सामाजिक आकलन आदि के लिए गठित की जाने वाली कई समितियों से होकर गुजरेगी। जिनके ज्यादातर सदस्य अधिकारी और सामाजिक-पर्यावरणीय कार्यकर्ता होंगे। अतः पूरी प्रक्रिया ही अधिकारियों और सिविल सोसाइटी की बंधक होकर रह जाएगी।

अब नयी सरकार की प्राथमिकताएं देखें तो कारपोरेट आपत्तियों को खारिज करने के लिए अंधाधुध जमीन अधिग्रहण मार्फत जमीन से बेदखली का सिलसिला जारी रखने के लिए 1984 के कानून को करीब सवा सौ साल तक बहाल रखा गया, लेकिन नया कानून तुरत-फुरत बदलने की तैयारी है। नया कानून बनाते समय लोकसभा और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज और अरुण जेटली होते थे, उन दोनों की सहमति से बिल पास हुआ था। विपक्ष के साथ सहमति बनाने के लिए सरकार ने कई प्रावधान बदले थे। कांग्रेस का कहना है कि बिल पास हुए छह महीने हुए हैं और इतने में ऐसा क्या हो गया, जिसकी वजह से इसे बदलने की जरूरत आ गई?

सरकारी दावा है कि किसानों के हितों की अनदेखी नहीं की जाएगी और सरकार पुनर्वास और मुआवजे के प्रावधानों में कोई समझौता नहीं करेगी।

इंडस्ट्री हो या सरकार दोनों की चिंता प्रोजेक्ट की बढ़ती लागत को लेकर है। लेकिन अब जब सरकार ने साफ कर दिया है कि मुआवजे को लेकर कोई समझौता नहीं होगा तो हाउसिंग हो या फिर हाइवे प्रोजेक्ट सभी के लिए जमीन की कीमत दो से चार गुना तक बढ़ना अब तय है।

निर्माण उद्योग पूरी तरह रियल्टी कारोबार में तब्दील है और इन्फास्ट्रक्चर भी कहा जाने लगा है प्रमोटर बिल्डर राज को। तो दूसरी ओर, लंबित परियोजनाओं को तो नई सरकार ने पर्यावरण की अनदेखी करके हरी झंडी दे ही है। सामाजिक योजना मनरेगा को भी इंफ्रास्ट्रक्चर से जोड़कर प्रोमोटर बिल्डर हित को बाकायदा राष्ट्रहित में तब्दील कर दिया गया है। रियल्टी अब सरकारी तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर है।

पलाश विश्वास।लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।