जाति को कानून द्वारा ख़त्म नहीं किया जा सकता

जस्टिस मार्कंडेय काटजू

मुझे पता चला है कि कैलिफ़ोर्निया के गवर्नर गेविन न्यूसोम (Governor Gavin Newsom of California) ने कैलिफ़ोर्निया विधायिका द्वारा पारित जाति भेदभाव विधेयक (caste discrimination bill passed by the California legislature) को वीटो कर दिया है।

मैं इस प्रश्न पर नहीं जा रहा हूं कि क्या विधेयक को वीटो करने के लिए राज्यपाल का स्पष्टीकरण उचित था या नहीं।

मैं जो कहना चाहता हूं वह यह है कि कानून बनाकर जातिगत भेदभाव को समाप्त नहीं किया जा सकता है, और यदि ऐसे कानून बनाए भी जाते हैं तो वे उचित कार्यान्वयन के बिना केवल कागजों पर ही रहेंगे, और केवल इस प्रथा को और अधिक गोपनीय और छद्म बना देंगे।

साथ ही, यह तथाकथित 'निचली जाति' के व्यक्तियों द्वारा भेदभाव की झूठी शिकायतों के द्वार भी खोलेगा।

आगे बढ़ने से पहले हमें भारत में जाति व्यवस्था के बारे में कुछ समझना होगा।

मैंने अपने एक लेख में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति और विकास के बारे में बताया है-

इस लेख में मैंने बताया है कि कैसे जाति का आधार मूल रूप से संभवतः नस्लीय था, लेकिन बाद में यह समाज में श्रम के सामंती व्यावसायिक विभाजन में विकसित हो गया। यह भारत में सदियों से चला आ रहा है और अभी भी इसकी जड़ें गहरी हैं। भारतीय चुनावों में बड़ी संख्या में हमारे लोग उम्मीदवार की योग्यता देखे बिना, जाति के आधार पर वोट करते हैं।

जो भारतीय संयुक्त राज्य अमेरिका या अन्य विदेशी देशों में प्रवास करते हैं, वे अक्सर अपनी जाति का बोझ अपने साथ ले जाते हैं। अमेरिका में जातीय संगठन आम हैं। अत: अमेरिका तथा अन्यत्र विदेशों में जातिवाद तभी नष्ट हो सकता है जब वह अपनी मातृभूमि भारत में नष्ट हो।

जाति एक सामंती संस्था है, और भारत अभी भी अर्ध-सामंती है। इसलिए जाति तभी नष्ट हो पाएगी जब भारत एक अत्यधिक औद्योगिक और आधुनिक देश में बदल जाएगा। पर वह संभव कैसे है ?

प्रख्यात पाकिस्तानी पत्रकार मोईद पीरजादा द्वारा लिए गए मेरे इस वीडियो साक्षात्कार में मैंने बताया है कि विकसित देश नहीं चाहते हैं कि भारत जैसे अविकसित देश विकसित और औद्योगिक बनें।

लेकिन हमारी रुचि यह होनी चाहिए कि हम अत्यधिक औद्योगीकृत होना बनें, तभी हम गरीबी, बेरोजगारी, बाल कुपोषण, हमारे लोगों के लिए उचित स्वास्थ्य देखभाल और अच्छी शिक्षा की कमी और अन्य सामाजिक-आर्थिक बुराइयों, को खत्म कर सकते हैं, जो आज भी हमें परेशान करती हैं। इसलिए विकसित देशों के हित सीधे तौर पर हमारे हित से टकराते हैं।

लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली, जिसे हमने अपने संविधान में अपनाया है, काफी हद तक जाति और सांप्रदायिक वोट बैंकों के आधार पर चलती है (जैसा कि भारत में हर कोई जानता है)। यदि भारत को प्रगति करनी है तो जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसी सामंती ताकतों को नष्ट करना होगा, लेकिन संसदीय लोकतंत्र उन्हें और मजबूत करता है।

तो हम इस गतिरोध से कैसे उबरें?

मेरा मानना है कि यह केवल देशभक्त, आधुनिक सोच वाले नेताओं के नेतृत्व में एक शक्तिशाली ऐतिहासिक एकजुट लोगों के संघर्ष द्वारा ही किया जा सकता है, जो कठिन, लंबा होगा और जिसमें जबरदस्त बलिदान देना होगा। यह कैसे होगा, इसका संचालन कैसे होगा, सफलता प्राप्त करने में कितना समय लगेगा, इसका नेतृत्व करने वाले देशभक्त आधुनिक विचारधारा वाले व्यक्ति कौन होंगे, आदि कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकता। ऐतिहासिक रूपों के बारे में कोई भी कठोर नहीं हो सकता। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए हमारे प्रबुद्ध वर्ग को अपनी रचनात्मकता का उपयोग करना होगा।

इसलिए जातिगत भेदभाव के खिलाफ अमेरिका में बनाए गए कानून सिर्फ दिखावा होंगे जब तक कि भारत में एक शक्तिशाली जनसंघर्ष द्वारा जाति को नष्ट नहीं किया जाता।

(जस्टिस काटजू भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं। ये उनके निजी विचार हैं। मूलतः HASTAKSHEPNEWS.COM पर प्रकाशित लेख का भावानुवाद)