ज़रूरी है ‘पैदल चलने का अधिकार’ मिले
ज़रूरी है ‘पैदल चलने का अधिकार’ मिले
जीयानन्द शर्मा
यह हमारे देश में चल रहे अधिकार आन्दोलनों की ही देन है कि देश में नागरिकों को कई तरह के अधिकार मिल पाए हैं। लेकिन ये अधिकार लोगों को सरकार ने तश्तरी में रखकर नहीं दिए, इनको मुकाम तक पहुंचाने की पृष्ठभूमि में देश के कई प्रगतिशील और जन आन्दोलनों की भूमिका रही है जिनके दबाव में सरकार को यह अधिकार नागरिकों को देने पड़े। शिक्षा के अधिकार से लेकर, सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा का अधिकार, काम का अधिकार इसी श्रृंखला का हिस्सा हैं। यहां तक कि 2011 में रामलीला मैदान में आधी रात के वक्त बाबा रामदेव के सोए हुए भक्तों पर पुलिस लाठीचार्ज के बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ‘सोने के अधिकार’ को नागरिकों के मौलिक अधिकारों में जीवन के अधिकार का हिस्सा माना है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि ‘सोना इंसान के लिए आवश्यक है अगर उसे अपने स्वास्थ्य के नाजुक संतुलन को बनाए रखना है जोकि उसके अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। इसलिए सोना इंसान की मौलिक और बुनियादी ज़रूरत है जिसके बिना जीवन का अस्तित्व संकट में होगा।’
अधिकारों की इस कड़ी में एक और अधिकार को जोड़ने की निहायत ज़रूरत महसूस हो रही है, वह है पैदल चलने का अधिकार। इस समय किसी भी शहर या कस्बे की स्थिति देखें तो सड़क पर इंसानों से ज्यादा गाड़ियां नज़र आती हैं। सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब और गैर-कानूनी ढंग से पार्क की हुई गाडि़यों की कतारें, अनियंत्रित गति से दौड़ते वाहन, हॉर्न की चिल्ल पौं, सांस रोकते धुएं के गुब्बार। गाड़ी वाले सड़क पर इंच भर जगह पैदल चलने वालों के लिए नहीं छोड़ना चाहते। यहां तक कि प्रतिबंधित मार्गों तक में गाडि़यां ले जाने के लिए परमिट खरीद लिए जाते हैं। पैदल चलने वालों का सड़क पर चलना मुहाल हो गया है। इस संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित बुजुर्ग, महिला, बच्चे और बीमार हैं। ऐसा नहीं है कि पुरुष इस समस्या से अछूते हैं, जिन्हें पैदल चलने की चाहत है वे पुरुष भी इसकी मार झेलते हैं। सुबह-शाम सैर को निकलना, शुद्ध हवा में सांस लेना, पैदल चलकर बाज़ार से सब्ज़ी लाना, बच्चों को घुमाना, उन्हें स्कूल तक छोड़ना या लाना बीते ज़माने की बातें हो गई हैं। कौन सी गाड़ी कब काल बनकर आप पर चढ़ जाए, कहना मुश्किल है। पैदल चलने वाले कभी सुकून से चल पाएं, यह संभव नहीं है। हमेशा सहम कर चलना एक आदत सी बन चुकी है। पैदल पथ न के बराबर हैं। अगर कहीं हैं भी तो उन पर भी दुकानें सजी रहती हैं, चलने के लिए जगह ही नहीं बचती। जहां कहीं भी सड़क चौड़ी है वहां गाड़ी खड़ी करना वाहन मालिक अपना अधिकार मान लेते हैं।
विडम्बना है कि एक तरफ चिकित्सक बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं हृदय रोग, मोटापे, उच्च रक्तचाप, श्वास रोग आदि से बचने के लिए पैदल चलने और नियमित व्यायाम करने की सलाह देते हैं और दूसरी ओर सामान्य तौर पर पैदल चलने तक की संभावनाएं समाप्त होती जा रही हैं।
इसके लिए दोषी सिर्फ वे लोग नहीं है जो गाडि़यों के मालिक हैं। दरअसल इसमें हमारी व्यवस्था की गंभीर खामियां हैं। कृषि ऋण से आसान गाड़ी खरीदने के लिए ऋण लेना आसान हो गया है। ब्याज दर भी छूट रहती है। गाड़ी खरीदने वाले के पास अपनी पार्किंग की सुविधा है या नहीं या फिर शहर में गाडि़यों की संख्या के मुताबिक पार्किंग क्षमता है या नहीं है ये सब जाने बगैर ही गाड़ियां खरीदने की अनुमति दे दी जाती है। न तो खरीदने के लिए कोई नियम हैं और न ही पार्किंग के लिए। हमारे यहां तो गाड़ियां ठीक उस साइन बोर्ड के नीचे बिना संकोच खड़ी कर दी जाती हैं जहां लिखा हो ‘यहां गाड़ी खड़ी करना मना है’ या ‘नो पर्किंग ज़ोन’ लिखा हो। हां! कभी-कभार हमारी ट्रैफिक पुलिस चालान करने का लक्ष्य पूरा करने के लिए गाड़ियों के चालान ज़रूर काटती हैं। उस वक्त गलती न भी हो तो खोज ली जाती है मगर आगे पीछे बड़ी गलतियों को भी नज़अंदाज़ कर दिया जाता है। आमतौर पर दिवाली, 31 दिसम्बर, 31 मार्च के नज़दीक के दिन ऐसे काम के लिए निर्धारित रहते हैं। ड्राइविंग लाइसेंस देते वक्त भी ध्यान नहीं दिया जाता कि लाइसेंस हासिल करने वाला व्यक्ति गाड़ी चलाने में निपुण हो चुका है या नहीं। पैदल चलने के लिए पैदल पथ की सुविधा कितनी है, इसका कोई ध्यान नहीं रखा जाता। योजना तक में पैदल पथ का जि़क्र नहीं होता। पैदल चलने वालों को अवसर देना हमारे योजनाकारों और प्रशासकों के जे़हन में होता हो कहना मुश्किल है क्योंकि ऐसा ज़मीन पर लागू होते तो नहीं दिखाई पड़ता।
अगर इस स्थिति पर काबू पाना है, इस समस्या को कम करने की नीयत है और आम जन को राहत देने की है तो कुछ कड़े और कड़वे कदम तो उठाने ही होंगे। कुछ निवेश भी करना होगा। कुछ लोगों की नज़र में बुरा भी बनना होगा। एक समय बाद गाडि़यों की खरीद को भी काबू में लाना होगा। पार्किंग का विकल्प दिए बगैर गाड़ी खरीदने की इजाज़त नहीं होनी चाहिए। सार्वजनिक परिवहन को इतना सुविधाजनक और नियमित बनाना पड़ेगा कि निजी वाहन में सफर करने के बजाय आदमी सार्वजनिक परिवहन में सफर करना सुविधाजनक समझे और पसन्द करे। पैदल पथ बनाने पर ज़ोर होना चाहिए। कुछ रास्ते ऐसे भी होने चाहिए जहां लोग बिना भय के घूम-फिर सके, बच्चों को खुला छोड़ सकें, बुजुर्ग भी आराम से टहल सके। खासतौर पर पहाड़ों में किसी बड़े मैदान, पार्क या खुली जगह की अपेक्षा नहीं की जा सकती यहां तो कुछ रारूते ही हो सकते हैं जिन्हें टहलने और पैदल चलने के लिए आरक्षित किया जाए। इसके लिए राजनैतिक मज़बूत इच्छा शक्ति की भी ज़रूरत है क्योंकि आप कठोर कदम उठा कर ऐसे तबके को नाराज़ कर रहे हैं जो संख्या में तो भले ही कम हों मगर रुतबे, पहुंच, राय बनाने वाला वर्ग है जिसे राजनैतिक लोग खोना नहीं चाहते।
मगर ऐसा करना बहुतायत जनता के हित में होगा और यह सेहत, पर्यावरण, ऊर्जा की बचत और एक स्वतंत्र और खुले माहौल में जीने का अनुभव लेने के लिए भी निहायत ही ज़रूरी है कि पैदल चलने के अधिकार को भी मौलिक अधिकारों में जगह मिले। इसके लिए सामाजिक और प्रगतिशील आन्दोलनों, पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं को आगे आना चाहिए।


