जाति मजबूत होने से हिंदुत्व ही मजबूत होता है
जाति मजबूत होने से हिंदुत्व ही मजबूत होता है
यह विशुद्ध अंबेडकरी मत है, कम्युनिस्ट/ मार्क्सवादी/ माओवादी नहीं।
जिस जाति सत्ता के खिलाफ इतना आक्रोश उबल रहा है, वह कांशीराम जी के जाति मजबूत बनाओ संदेश का परिणाम है
लीजिये, जाति तो कांशीराम जी के रास्ते चलते चलते मजबूत करते ही रहे बहुजन, तो फिर पुराने तमाम कांडों से लेकर भगाणा सआदतगंज तक बहुजन शासक जातियां दलितों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं? सवर्ण राज खत्म करने पर भी क्यों नहीं मिल रहा है न्याय ? दिल्ली में कब तक जंतर-मंतर जंतर-मंतर करते / करती रहेंगे / रहेंगी?
पलाश विश्वास
हमारे डायवर्सिटी मित्र एच एल दुसाध ने हस्तक्षेप में प्रकाशित लेखों के संदर्भ में सवाल किया है-
पलाश दा कॉरपोरेट राज की खिलाफत तथा जाति उन्मूलन के प्रति आपकी व्यग्रता की हम कद्र करते हैं। आप इस पर समय-समय पर लिखते रहते हैं। पर आपके लेखों से कॉर्पोरेट राज को रोकने तथा जाति के खात्मे का सूत्र नहीं पाया। प्लीज लिखें। जहाँ तक मैं समझता हूँ जाति के खात्मे का आप के पास मार्क्सवादियों से भिन्न कोई उपाय नहीं होगा, जो उन्होंने चंडीगढ़ में प्रस्तुत किया था। मैंने जाति उन्मूलन की मार्क्सवाद के मुकाबले अम्बेडकरवादी परियोजना प्रस्तुत करते हुए एक किताब लिखी थी जो आपको डेडीकेट भी किया था। पर उस पर आप और तेलतुंबड़े साहब की कोई प्रतिक्रिया ही नहीं आई। खैर कॉर्पोरेट राज रोकने और जाति ध्वंस का उपाय बताएं।
दुसाध जी ने बेहद संघर्ष किया है। दिल्ली में उनका मकान नहीं है। वे भाजपा सांसद संजय पासवान के साथ रहते आये हैं और ईमानदारी से सामाजिक न्याय और समता के लिए अवसरों और संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारा को भाजपाई समरसता अभियान का वर्षों से अंग बनाते रहे हैं।
जाहिर है कि दुसाध जी, अंबेडकरी पार्टियों और संगठनों के झंडेवरदारों और मसीहा संप्रदाय के अंध भक्तों में नहीं हैं।
डायवर्सिटी पर उनकी अनेक पुस्तकें हैं, जिनमें एक हस्तक्षेप पर ही जाति विमर्श के सिलसिले में अभिनव सिन्हा के आलेखों से शुरू विवाद के सिलसिले में मार्क्सवादियों के खिलाफ दुसाध जी ने लिखा है और चूंकि अभिनव के सीधे तौर पर अंबेडकरी जाति उन्मूलन को नकार देने का मैं लगातार विरोध कर रहा था, यह पुस्तक दुसाध जी ने मुझे समर्पित किया है। मेरे असंख्य पढ़े लिखे मित्र देश और देश के बाहर भी हैं। हम बेहद मामूली हैं पर मेरे असंख्य मित्र न केवल प्रतिष्ठित हैं, उनमें से अनेक विश्वविख्यात हैं। पर किसी ने कभी मुझे इस तरह याद नहीं किया है।
यह सवाल पूछकर सार्वजनिक तौर पर दुसाध जी ने मुझे उनका आभार जताने का मौका दे दिया है। इसके साथ ही उन्होंने मुझे और अभिनव सिन्हा को एक पंक्ति पर खड़ा कर दिया है। अभिनव हमें अपनी पाँत में मानते नहीं हैं और इसलिए भी दुसाध जी का आभार।
जवाब देने में देरी इसलिए हुई कि हम पर किसी व्यक्ति या संगठन की कृपा है नहीं। सब कुछ भुगतान करने पर ही मिलता है। मेरा पीसी बैठ गया था। महीने के आखिर में इनसुलिन, गैस, बिजली बिल, दवाइय़ां, अखबारों का बिल, आदि रोककर पीसी ठीक कराकर ही लिख पा रहा हूं। अभी नौकरी पर हूँ, अगले महीने तक संकट टालकर ऐसा अब भी कर पा रहा हूँ। आगे रामराज की महिमा अपरंपार। मुझे कहीं से लिखकर पैसे भी नहीं मिलते, हाँ गालियां खूब मिलती हैं और अनचाही दुश्मनियां भी। इसका भी आभार। बंगाल में तो ममता समर्थकों और वाम समर्थकों ने भी मेरा बायकाट शुरू कर दिया है। बांग्ला में अप्रत्याशित नियमित लेखन के लिए।
बाकी लोग जो पार्टी, संगठन या किसी राजनेता या मसीहा से जुड़े हैं, दुसाध जी की तरह उदार नहीं है। बजरंगी सिर्फ केसरिया ही नहीं होते। बजरंगी लाल, नील, हरे गोआ कि हर रंग बिरंगे हो सकते हैं और आचरण में वे उतने ही निरंकुश, असहिष्णु और फतवाबाज होते हैं जैसे कि केसरिया, हिंदू राष्ट्र का एजेंडा चाहे जितना वीभत्स हो, उसके प्रचारकों का आचरण एकदम नमसदृश्य अटल आडवाणी है। वे बाकी लोगों की तरह सीधे-सीधे वार नहीं करते। हस्तक्षेपी लेखों पर तीखी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।
इन चुनावों से काफी पहले मान्यवर कांशीराम जी के निकट सहयोगी और उनके बाद स्वयं बामसेफ अध्यक्ष बीडी बोरकर ने कांशीराम को फेल बता दिया था। जाति मजबूत करके सत्ता दखल करने से सामाजिक न्याय और समता का लक्ष्य हासिल नहीं हो जाता। लोकसभा चुनावों के नतीजों में जाति क्षत्रपों और उनकी बहुजन पार्टियों के मुकाबले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जवाबी ओबीसी केंद्रित सोशल इंजीनियरिंग व समावेशी समरसता और हिंदू एकात्मता ने जो इकतीस फीसद मतदाताओं के समर्थन से जनादेश हासिल किया है, उससे साफ जाहिर है कि जाति पहचान के आधार पर जाति हितों के परस्परविरोधी टकरावमध्ये बहुजन समाज का कोई वजूद संभव नहीं है।
इसलिए हम मान रहे हैं कि कांशीराम फेल हैं और अस्मिता आधारित बहुजनवाद से समता और सामाजिक लक्ष्य हासिल नहीं हो सकता। अब चूंकि हम राष्ट्र के चरित्र, समाज वास्तव, वैज्ञानिक दृष्टि, ऐतिहासिक वस्तुवादी व्याख्या और अर्थशास्त्र की बात कर रहे हैं। तो अब दुसाध जी जैसे लोग भी हमारी राह लाले लाल समझने लगे हैं, जबकि हम तब भी अंबेडकरी विचारों के तहत बात कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं। तब भी हम अभिनव को लगातार लिख रहे थे कि अंबेडकरी जाति उन्मूलन परिकल्पना ही मुक्तिकामी संघर्ष और मुक्तबाजारी जनसंहारी अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध का प्रस्थानबिंदु है।
दुसाध जी को मार्क्सवादी विचारधारा से परहेज हो सकता है लेकिन दुनिया भर में मुक्ति संघर्ष की इस विचारधारा के अवदान को भारतीय नेताओं की विश्वासघाती भूमिका की वजह से हम खारिज नहीं कर सकते। बाबा साहेब को भी साम्यवादी विचारधारा से परहेज न था। परहेज था भारतीय साम्यवादी आंदोलन के वर्णवर्चस्वी नेतृत्व से। भारत के मौजूदा श्रम कानून उन्हीं की वजह से हैं तो भारतीय मजदूर आंदोलन में भी उनका योगदान रहा है। वे अगर पढ़े लिखे नहीं होते तो अर्थ व्यवस्था पर बात नहीं करते। वे अगर साम्यवादी विचारधारा के शत्रु ही होते तो कभी नहीं कहते कि भारतीय मेहनतकश वचित वर्ग के दो दुश्मन हैं, दोनों बराबर दुश्मन पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद।
बाबा साहेब के बाद ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई जाति उन्मूलन के एजेंडे को हजारों मील पीछे छोड़कर अपनी अपनी जाति मजबूत बनाओ अभियान के तहत सवर्णों के बदले खुद अपनी जाति सत्ता स्थापित करने की गरज से नामवास्ते ब्राह्मणवाद विरोध के जरिए या फिर ब्राह्मण नियंत्रित सर्वजन हिताय कांशीरामपथे सीमाबद्ध हो गयी। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जिस जाति सत्ता के खिलाफ इतना आक्रोश उबल रहा है, वह कांशीराम जी के जाति मजबूत बनाओ संदेश का परिणाम है।
अंबेडकरी आंदोलन में अंबेडकर होते तो जाति उन्मूलन की सर्वोच्च प्राथमिकता के सवाल पर दुसाध जी जैसे डायवर्सिटी मसीहा हम जैसे मामूली लोगों से जाति उन्मूलन का तरीका नहीं पूछ रह होते। हमने अंबेडकर उतने सिलसिलेवार तरीके से पढ़ा ही नहीं है। जो लोग पढ़े हैं वे समझ सकते हैं कि जाति उन्मूलन की अंबेकर की परिकल्पना क्या रही है और पूंजीवाद को ब्राहमणवाद के बराबर बताने वाले अंबेडकर के रास्ते पूंजीवाद कायाकल्पित मुक्तबाजारी कॉरपोरेट राज का प्रतिरोध संभव है या नहीं।
हम तो सिर्फ यही कह सकते हैं कि
जाति मजबूत होने से हिंदुत्व मजबूत होता है जो सामाजिक न्याय और समता का निषेध है।
यह विशुद्ध अंबेडकरी मत है, कम्युनिस्ट/ मार्क्सवादी/ माओवादी नहीं।
लीजिये, जाति तो कांशीराम जी के रास्ते चलते-चलते मजबूत करते ही रहे बहुजन, तो फिर पुराने तमाम कांडों से लेकर भगाणा सआदतगंज तक बहुजन शासक जातियां दलितों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं? सवर्ण राज खत्म करने पर भी क्यों नहीं मिल रहा है? न्याय दिल्ली में कब तक जंतर-मंतर, जंतर-मंतर करते / करती रहेंगे / रहेंगी?
आनंद तेलतुंबड़े इस सिलसिले में लंबी बातें हुई हैं। उनका कहना है कि वर्षों से हम जाति उन्मूलन की अंबेडकरी परिकल्पना पर लिख रहे हैं और ये लोग जाति मजबूत बनाने की बहुजन आरक्षण राजनीति करते रहे हैं, सत्ता में साझेदारी करते रहे हैं। अब इनका क्या कहा जाये।
इस प्रसंग में तुलसीराम जी का कुछ लिखा पेश करने की इजाजत दें। आनंद तेलतुंबड़े और बद्रीनारायण ने बहुजन सत्ता साझेदारी की सोशल इंजीनियरिंग पर दो बेहतरीन लेख लिखे हैं और चार फीसद वोट पाने के बावजूद बसपा के सफाये का राज खोला है। आनंद का लेख अंग्रेजी में हैं तो बद्रीनारायम का बांग्ला में। हिंदी में मिले तो डाल दूँगा।
तुलसी रामजी का लिखा पढ़ने के बाद वरिष्ठ लेखिका अनीता भारती जी की टाइम लाइन से साभार उनके कुछ मंतव्य पेश हैं जो इस जाति तंत्र का सिलसिलेवार खुलासा करता है। उन्हें अवश्य पढ़े। अनीता जी,आपके विचारों को बिना इजाजत अपना पक्ष रखने के लिए इस्तेमाल कर रहा हूँ। माफ करेंगी।
गौर करें कि अनीता जी ने लिखा हैः
कोई भी विमर्श या वाद अपने आप में पूर्ण नही होता। उसकी हदबंदी उसे सीमित दायरे में कैद कर देती है इसलिए उसमें हमेशा विस्तार, सुधार परिवर्तन और चिंतन मनन की गुंजाईश होनी और रहनी चाहिए। आज स्त्रीवाद के बरक्स दलित स्त्रीवाद खड़ा है। कल दलित स्त्रीवाद के बरक्स कोई और स्त्रीवाद खड़ा होगा और उसके समक्ष चुनौती बनकर खड़ा होगा। तब ऐसी हालत में दलित स्त्रीवाद को उस अन्य स्त्रीवाद से संवाद के रास्ते हमेशा खुले रखने होंगे।
हमारी तरफ से जवाब इतना शानदार देने के लिए अनीता जी का आभारी हूँ।


