मार्कण्डेय की पुण्य तिथि 18 मार्च पर विशेष | इतिहास में आज का दिन

Special on Markandeya's death anniversary 18 March

मेरी हवाओं में रहेगी,

ख़यालों की बिजली,

यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी,

रहे रहे न रहे।.....................भगत सिंह

आजमगढ़ 2007 की शाम तारीख तो याद नहीं आ रहा है मेरे रैदोपुर कालनी स्थित छायाँकन के सामने एक कार आ कर रुकी। उसमें से एक श्वेत वर्ण-शान्त चेहरा पर उसके होठों पर हल्की मुस्कराहट लिये उतर रहे एक अनोखे अदभुत गृहस्थ सन्यासी को मैं देख रहा था। तभी सामने नजर आयीं प्रख्यात महिला चिकित्सक डॉ स्वस्ति सिंह उनके साथ माता जी और छोटी बहन नीतू। मैं उनके स्वागत के लिये उठ खड़ा हुआ।

हमेशा की तरह डॉ. स्वस्ति सिंह चेहरे पर मुस्कराहट लिये स्टूडियो की तरफ आगे बढ़ आयीं। मैंने उनका अभिवादन किया पर अपने मानस पटल पर जोर दे रहा था कि मैंने इस प्रखर विद्रोही सन्यासी को कहाँ देखा है। बहुत जोर देने पर भी मेरे मानस पटल पर यादों की लकीरें कुछ भी नहीं बना पा रही थीं। इतने में डॉ स्वस्ति सिंह ने परिचय कराया मेरे पापा और मम्मी। आगे बढ़कर मैंने उनका चरण स्पर्श किया। उनका हाथ मेरे सर पर गया। उनका आशीर्वाद मुझे अमृत महसूस करा गया।

डॉ. साहिबा ने कहा कुछ तस्वीरे खींच दें आप, मैं उनके पूरे परिवार को अपने स्टूडियो के अन्दर ले गया।

जब मैं अपना कैमरा निकल रहा तो यादों की लकीरों ने मेरा साथ दिया और मुझे याद आया कि ये अजीम शख्सियत प्रखर विद्रोही कवि, कथाकार, आलोचक "बाबू मार्कण्डेय" जी हैं।

2004 में इलाहाबाद प्रवास के दौरान अपने मित्र के यहाँ सौभाग्य से इनकी लिखी एक कहानी "महुए का पेड़" पढ़ने को मिला था। उस कहानी के पहले ही पन्ने को जैसे पढ़ा, मेरी उत्सुकता और बढ़ गयी इसके आगे क्या है और बिना रुके मैं सम्पूर्ण कहानी पढ़ गया। ऐसा मेरे साथ तीसरी बार हो रहा था जब किसी रचनाकार की कृति को एक ही सिटिंग में खत्म कर दिया मैंने।

मुझे अपने आप पर गर्व हो रहा था कि एक ऐसे युग का आगमन मेरे स्टूडियो पर हुआ है जो खुद एक सम्पूर्ण साहित्य व क्रान्तिदूत है वो भी विद्रोही साहित्य। आज मैं अपने आप को सार्थक महसूस कर रहा था। वैसे तो मेरे कैमरे को अनेक बड़े लोगों, देश के प्रधान मन्त्री से लेकर केन्द्रीय मन्त्रियों, विदेशो से आये राष्ट्राध्यक्षों की और अन्तर्राष्ट्रीय चित्रकार फ्रेंक वेस्ली और अनेक बड़े कथाकारों की तस्वीरें खींचने का अवसर मिला है। पर मुझे आज एक अजीब सी अनुभूति महसूस हो रही थी।

मैंने पूरी कोशिश की जो मेरा प्रिय कथाकार है उसके चित्रों को ऐसे उतारूँ जो अपने स्मृतियों में सदा-सदा के लिये आत्मसात कर लूँ।

आज हमारे बीच हमारे प्रिय कथाकार नहीं रहे पर उनकी चिर - स्मृतियाँ मेरे मानस पटल पर आज भी अंकित हैं।

दूसरे दिन मैं उनसे मिलने डॉ. स्वस्ति सिंह जी के निवास पर गया। वहाँ मार्कण्डेय जी से बात करता रहा और उनकी सहज मनोभावों को भी साथ- साथ अपने कैमरे में कैद करता रहा।

18 मार्च को उनकी तीसरी पुण्य - तिथि है। डॉ स्वस्ति जी ने कहा कि कुछ लिखूँ। पर भला मैं उस विराट-व्यक्तित्व पर क्या लिखूँ, समझ नही पा रहा हूँ। वो कागज के कुछ पन्नों में समाने वाला व्यक्तित्व तो नहीं हैं। उनके साथ बिताये जो भी पल हैं अगर मैं लिखने बैठूँ तो पूरी डायरी के पन्ने काले अक्षरों से पट जायेंगे, उसके बाद भी वो पूरा नहीं हो पायेगा। हाँ इस लेख में कुछ लोगों की वो स्मृतियाँ लिख रहा हूँ जो मार्कण्डेय जी को मुझसे पहले से जानते रहे हैं।

इसी क्रम में कथाकार नीलकान्त जी ने मार्कण्डेय जी के बारे में अपनी राय कुछ ऐसे व्यक्त की है "मार्कण्डेय के साहित्य - व्यक्तित्व का गठन और विकास स्वाधीनता - संघर्ष के दौर से अभिन्न रूप से जुडा हुआ है। और इससे भी पहले, बचपन से ही लोक संस्कृति, लोक कथाओं और लोक गीतों की बुनियाद, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में रची बसी है और प्रतिबिम्बित है; उनकी कहानियों और उपन्यासों में ग्रामीण अँचलो की मिली - जुली झलकियाँ हर कहीं उजागर हैं। लोक संस्कृति और खड़ी बोली की तरह उनके साहित्य की ख़ास मौलिकता है। और यही है वह पहचान जो उनके साहित्य को विशिष्टता प्रदान करती है, जो आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता की चकाचौंध में भी अपनी जगह कायम रखती जो मलिन नहीं होने पाती।

मार्कण्डेय की छोटी पुत्री सस्या ने अपने "पापा" को याद करते हुये लिखा है।

"पापा के न होने को स्वीकार कर पाना बहुत मुश्किल है" वो कहा करते थे 'बेटा पेंटिंग करना मत छोड़ो। अपने कमरे के कोने में ईजल पर एक ब्लैक कैनवास रख लो। आते - जाते एक दो रेखाएँ खीचती रहा करो।"

कभी प्यार से, कभी सख्ती के साथ, वह अक्सर मुझसे कहते रहते थे। सृजनशीलता सिर्फ लेखन, ललित कला या परफॉर्मिंग आर्टस के जरिये ही व्यक्त नहीं होती है। रोजमर्रा की जिन्दगी में, काम करने के तरीके में, आपसी रिश्तों में उसकी अभिव्यक्ति ज्यादा अर्थ रखती है।' पापा "कथा" पत्रिका निकला करते थे जो सम्पूर्ण साहित्य से भरा होता था। उसका सम्पादन उनके लिये एक मिशन था। एक जनून। अक्सर पापा यह शेर कहते थकते नहीं थे।

"घर में था क्या कि तेरा गम उसे गारत करता

एक जो रखी थी हमने हसरते - ए- तामीर सो है।"

मार्कण्डेय जी की बड़ी पुत्री डॉ स्वस्ति सिंह "पापा का वो स्पर्श .... जीवन - पथ पर पापा के साथ चलते हुये दुनिया को जानने और पहचानने तथा जीवन जीने की कला मैंने उन्हीं से सीखी। बचपन की यादें बड़ी ही मीठी और सुखद अनुभूतियों से भरी हैं। हमारी भर्ती उन्होंने सेंट मेंरीज कॉन्वेन्ट और भाई को सेंट जोसफ में कराया। मुझे याद है की मेरी छोटी बहन के एडमिशन में काफी देर हो गयी थी और सारी सीटें भर गयी थीं। लोगों को वापस किया जा रहा था। पर जैसे ही प्रिंसिपल मदर सराफिका, जो एक जर्मन महिला थीं, से बताया गया कि वे एक साहित्यकार हैं और आवश्यक मीटिंग के लिये कलकत्ता चले गये थे, तो प्रिंसिपल ने तुरन्त उनको एडमिशन फ़ार्म दिया और दाखिला ले लिया। प्रिंसिपल ने उनसे कुछ पढ़ने के लिये माँगा। पापा ने जर्मन भाषा में किये गये कहानी संग्रह को दिया जिसमें उनकी कहानी "सोहगइला" का जर्मन अनुवाद छपा था।

पापा हम लोगों को हर साल छुट्टियों में अपने गाँव बराई (जौनपुर) ले जाते थे ताकि हम अपनी जड़ों से अलग ना हो जायें। घर के साहित्य के वातावरण का पूरा प्रभाव मेरे ऊपर पड़ा। बचपन में उनकी प्रेरणा से अंग्रेजी साहित्य, रूसी, बांग्ला तथा हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने का अवसर मिला।

एक बेहद दिलचस्प वाक्या है हमारे बचपन का, जिसका जिक्र बाद में पापा करते तो हम सब हँसते - हँसते लोट - पोट हो जाते। मैं तब दस वर्ष की थी, भाई सात वर्ष का और बहन चार वर्ष की थी। वे किसी जरूरी काम के लिये कटरा जा रहे थे और तीनों ने जिद करना शुरू कर दिया कि हम भी चलेंगे इस लालच में कि घूमने और खाने - पीने को मिलेगा। उनके कई बार मना करने पर हम नहीं माने, तो उन्होंने कहा ठीक है चलो ! बड़ी तेजी से वे पैदल सड़क पर निकल पड़े। पापा आगे - आगे और हम पीछे - पीछे। उनकी रफ़्तार तेज होती गयी और हम उनके पीछे लिटरली दौड़ते गये, पर उन्होंने कोई सवारी नहीं की। मैंने यह जान लिया कि हम लोगों से बहुत बड़ी गलती हो गयी है।

पापा ने इस तरह बिना कुछ कहे और बिना कुछ डाँटे - फटकारे, उन्होंने जीवन - भर के लिये हमे यह सीख दे दी कि व्यर्थ की जिद नहीं करनी चाहिये।

सन 1936 में प्रेमचन्द जी की मृत्यु के बाद हिन्दी कहानी नगर केन्द्रित हो गयी थी। मार्कण्डेय ने अपने कथा लेखन की शुरुआत ग्रामीण परिवेश को केन्द्र में रखकर की थी और यही उनकी मुख्य कथा भूमि थी। एक अन्तराल के बाद ग्रामीण कथा स्थितियों की माटी की महक पाठकों के लिये ताजा हवा के झोंके की तरह आयी थी। मार्कण्डेय को अपने पहले कथा संग्रह 'पानफूल' से ही प्रचुर ख्याति मिली।

"कल्पना" पत्रिका में मार्कण्डेय एक लम्बे अरसे तक पत्रिका के हर अंक में साहित्य समीक्षा का एक स्तम्भ "साहित्य धारा" चक्रधर उपनाम से लिखते रहे थे। उनकी तीखी टिप्पणियों की हर माह पाठकों को उत्सुकता से प्रतीक्षा रहती थी। इस गुमनाम स्तम्भकार ने कई स्थापित साहित्यकारों की बखिया उधेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अन्तत: जब उनके नाम का रहस्य खुला तो मार्कण्डेय ने स्तम्भ लेखन स्थगित कर दिया।

यह स्तम्भ लेखन उनके आलोचक व्यक्तित्व के निर्माण का प्रारम्भ था और यही उनकी आलोचना शैली का मूलाधार थी। कालान्तर में भैरव प्रसाद गुप्त के सम्पादन में प्रकाशित "नई कहानियाँ" पत्रिका में वह कथा - आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित हुये।

वामपंथी आलोचक कथाकार नामवर सिंह, मार्कण्डेय को याद करते हुए कहते हैं ख़ास बात जो उन दिनों की थी, प्रगतिशील लेखक संघ की इलाहाबाद में सक्रियता। और जगह वह लगभग ठण्डी पड़ गयी थी लेकिन वह प्रकाशचन्द्र गुप्त के बाबत वह ज़िंदा थी और जो युवा कार्यकर्ता थे, मार्कण्डेय और कमलेश्वर सब सक्रिय रहते थे। मैं भी बनारस से जाता था, गोष्ठियों में कहानियाँ पढ़ी जाती थीं, चर्चा होती थी, भैरव प्रसाद गुप्त जी हम लोगों के नेता थे। तो, असल जो सक्रियता आयी वह भैरव प्रसाद गुप्त जी के "माया" छोड़कर "कहानी" पत्रिका में आने से। श्रीपत राय जी ने सरस्वती प्रेस से, नये सिरे से "कहानी" पत्रिका निकालने की बात की और भैरव प्रसाद जी गुप्त से उन्होंने कहा, कि आकर "कहानी" का सम्पादन कीजिये और इस तरह कहानी में नई जान आयी जिसमें युवा कहानीकार मार्कण्डेय, अमरकान्त, कमलेश्वर, शेखर जोशी थे। तो एक ओर 'प्रलेस' था दूसरी ओर 'परिमल' और दोनों में वैचारिक मुठभेड़ भी होती थी और सद्भाव भी था जिससे एक साहित्य की गहमागहमी इलाहाबाद में रहती थी।

मधुकर गंगाधर, मार्कण्डेय को अपनी स्मृतियों में सहेजते हुये कहते हैं,- मार्कण्डेय ने बहुत सारी रचनायें कीं किन्तु हर दिल अजीज और हर जुबान पर बोलने वाली उनकी दो रचनायें बहुत प्रसिद्ध हो सकीं। उनकी कहानी "हंसा जाई अकेला" अक्सर "नई कहानी" के आलोचकों द्वारा उद्दृत की जाती हैं और आज के पाठकों में भी उस कहानी में वही ताज़गी और सन्देश हैं जो लिखे जाते समय थी। उनके उपन्यासों में "सेमल के फूल" बहुत चर्चित रहा और मैंने भी अपने उपन्यास सम्बन्धी लम्बे आलेख में उस उपन्यास की बेहद चर्चा की है। अगर मार्कण्डेय ने और कुछ भी नहीं लिखा होता तो वे इन दो रचनाओं के बल पर अमर रहते।

विजय बहादुर सिंह ने अपने स्मृतियों को खँगाला, आज सोचता हूँ तो लगता है कि जिस इलाहाबाद में निराला, पन्त, महादेवी और बच्चन थे, 'परिमल - ग्रुप के लक्ष्मीकान्त वर्मा, धर्मवीर भारती, विजय देव नारायण साही, राम स्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश गुप्त जैसे धुरन्धर रचना शिल्पी थे, उसी इलाहाबाद के हिन्दी विभाग से लेकर उसी कॉफी हाउस में अपनी उपस्थिति को रेखाँकित कर सकना मार्कण्डेय और उनके साथियों के लिये कितना मुश्किल काम रहा होगा; पर ये लोग कभी निस्तेज हुये न कभी पराभव का अनुभव किया। सामन्ती समाज - व्यवस्था से लेकर लोकतान्त्रिक जीवन - पद्धति तक मार्कण्डेय जैसे लेखकों की निगाह तकलीफ देह अनुभवों और उनके त्रासदायी चेहरों का बयान करती रही। उन जैसे लेखकों को पढ़ते हुये बार - बार हम करुणा और आक्रोश से भर उठते हैं। उन बातों और घटनाओं के प्रति नये सिरे से सचेत हो उठते हैं जो हमारे सामने उद्दारक का मुखौटा लगाकर आती है।

रविन्द्र कालिया मार्कण्डेय के बारे में कहते हैं उस समय एक से एक साधनहीन लोग थे मगर मार्कण्डेय जी में उनका स्वाभिमान कूट - कूट कर भरा था। मार्कण्डेय इस बिरादरी का नेतृत्व करते थे। उन्होंने घोर संघर्षो के बीच अपना लेखन जारी रखा और प्रेमचन्द तथा रेणु के बाद भारतीय ग्रामीण जीवन में किसानों की दुर्दशा पर निरन्तर लेखनी चलायी।

ममता कालिया - यह मार्कण्डेय जी की अदा थी। वे बड़े कैजुअल अंदाज में कोई गम्भीर बात कह डालते। उन्होंने कभी वामपन्थ का दामन नही छोड़ा। जैसे उन्होंने कभी गाँव का सन्दर्भ नहीं छोड़ा। वे गाँव को अपना मेरुदण्ड मानते थे। वे इस बात का प्रतिरोध करते थे कि कोई गाँव पर लिखकर पुराने किस्म का लेखक माना जायेगा। इसीलिये उनके बारे में डॉ नामवर सिंह ने लिखा था - 'ऐसा नही कि गाँव की ज़िन्दगी पर कहानियाँ पहले नहीं लिखी जाती थीं। लेकिन जिस आत्मीयता के दर्शन मार्कण्डेय की कहानियों में होते हैं वह अन्यत्र दुर्लभ हैं'।

मार्कण्डेय जी आजन्म संघर्ष करते रहे किन्तु उनकी लड़ाई में भी एक गरिमा थी। वे बिना किसी कटुता के दूसरे को उसकी सीमा बता देते थे। जीवन से लेकर साहित्य तक उन्होंने यह गरिमा बनाकर रखी।

आज हमारे बीच मार्कण्डेय जी नहीं हैं पर उस प्रखर विद्रोही के वो अनमोल आखर हमने जीवन में संघर्ष करने की प्रेरणा देते रहेंगे। उनकी यह कविता....

युद्ध ..................

युद्ध सिर्फ लड़ाई नहीं है

क्योंकि युद्ध न्याय के लिये

अस्मिता की रक्षा के लिये

समानता और स्वाधिकार के लिये

शोषकों, जालिमों, हत्यारों

के विरुद्ध

लड़ी जाने वाली लड़ाई का नाम है।

युद्ध मर्म है जीवन का

युद्ध का नाम है

वियतनाम, निकारागुआ, अंगोला और दक्षिण अफ्रीका

युद्ध का काम है मुक्ति

कोटि - कोटि शोषित इन्सानों को मुक्ति

सूर्य के प्रकाश को मुक्ति

हवा और पानी को मुक्ति

माँओ को, बहनों को

पालने में नीन्द भरे नन्हों को मुक्ति

फूलों को, कलियों को

सबको मुक्ति।

युद्ध के गीत हैं

मोलाइस, निराला

नजरुल, नेरुदा और नाजिम हिकमत

युद्ध का वैभव है

पेड़ की टहनी पर फूटती हुयी नयी कोपल,

अखुआते बीज

हरे रतनार

युद्ध का कोई धर्म नहीं होता

जात – पाँत, देश - भाषा कुछ भी नहीं

जो लोहे को सिझाता है, करता है

अपनी ही तरह लाल और गर्म

सिर्फ जय में ही नहीं

पराजय में भी !

................ प्रखर विद्रोही मार्कण्डेय जी को शत्- शत् नमन।

सुनील दत्ता