जुमलों से नहीं बहलता जनता का मन
जुमलों से नहीं बहलता जनता का मन
केंद्रीय परिवहन एवं जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी में भाजपा सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति जो विश्वास है, वह काबिले तारीफ है। वे अपनी सरकार और पार्टी की बात रखते समय पूरे आत्मविश्वास से भरे दिखाई देते हैं। वे किसी कार्यक्रम में बोल रहे हों या मीडिया को संबोधित कर रहे हों, तो उनका आत्मविश्वास देखने लायक होता है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि वे राजनीति में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से आए हैं। संघ से आने वाले लोग उस बात को भी बड़े आत्मविश्वास से कहते हैं, जिस पर खुद उनको भी विश्वास नहीं होता है। जब केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी यह कह रहे हैं कि आने वाले दो सालों में भारत के विकास दर आंकड़े में दो फीसदी की बढ़ोतरी होगी, तो लोगों को यह मान लेना चाहिए।
उन्होंने तो ऐसा न होने पर अपना नाम बदल देने की भी बात कही है। नितिन गडकरी का यह विश्वास स्वागतयोग्य है। उनकी सराहना की जानी चाहिए। इस मामले में संदेह तो सिर्फ इतना है कि यदि ऐसा नहीं हुआ, तो कहीं भाजपा नेताओं या खुद नितिन गडकरी की ओर से यह न कह दिया जाए कि यह तो सिर्फ एक राजनीतिक जुमला था।
अपने ही वायदों, अपनी ही घोषणाओं को चुनावी जुमला करार दे देने की परंपरा इन दिनों भाजपा सरकार डाल रही है। इसका सबसे ताजातरीन उदाहरण तो कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना की कैद में बड़ी बेरहमी से मारे गए कैप्टन सौरभ कालिया का ही है। जिन दिनों इस मसले को कैप्टन सौरभ कालिया के पिता एनके कालिया उठाते हुए मनमोहन सिंह की सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे थे, उन्हीं दिनों तत्कालीन विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए शहीदों की शान के खिलाफ बताया था।
पिछले साल भाजपा सरकार बनने के बाद जब कैप्टन कालिया के परिजनों ने इस मामले को दोबारा उठाया था, तो केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था कि कैप्टन कालिया और कारगिल युद्ध के बंदी बनाए गए 54 भारतीय युद्धबंदियों का मामला अपवाद है और भारत सरकार इस मामले को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराती है। उसी सरकार की तरफ से नियुक्त किए गए सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार के पूर्व रवैये से पलटते हुए कहा है कि जब तक दोनों देश राजी न हों, तब तक इस मामले को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में नहीं ले जाया जा सकता है।
कहने का मतलब यह है कि पिछले साल जून में केंद्र सरकार का जो रवैया था, उससे सरकार ने अब यू-टर्न ले लिया है। इस पर अपनी मजबूरी जताई जा रही है।
वर्तमान केंद्र सरकार ने किसी मुद्दे या वायदे पर कोई पहली बार यू-टर्न नहीं लिया है। केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के तीन महीने के अंदर ही विदेशों में जमा काला धन देश में वापस लाने और उसे हर देशवासी के खाते में 15 लाख रुपये जमा करा देने का वायदा तो बहुत पहले ही चुनावी जुमला बन गया था।
अभी हाल ही में भाजपा के केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने तो बाकायदा जनता पर ही आरोप लगा दिया कि उसने लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा नेताओं के मुंह में यह बात डाली थी कि यदि भाजपा की केंद्र में सरकार बनी, तो अच्छे दिन आएंगे। भाजपा ने कभी दावा नहीं किया कि उसकी सरकार आने पर अच्छे दिन आएंगे। अब इसे क्या कहा जाए?
भाजपा नेताओं की याददाश्त कमजोर मानी जाए या फिर उनका अपने ही वायदों से पीछा छुड़ाने की घटिया राजनीतिक सोच। पिछले लोकसभा चुनाव से बहुत पहले ही भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों ने पूरे देश में सोशल और इलेक्ट्रानिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक सिर्फ एक ही बात का प्रचार किया था, एक ही वायदा लोगों को याद दिलाया था कि 'हम मोदी जी लाने वाले हैं, अच्छे दिन आने वाले हैं।‘ उन दिनों तो हर जगह, हर कोई, सिर्फ एक ही बात की चर्चा करता था और वह था अच्छे दिन का। अफसोस है कि केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के माध्यम से भाजपा और सरकार ने अपने उस बहुचर्चित वायदे से पिंड छुड़ा लिया जिसका सपना उसने इस देश के बच्चे-बच्चे को दिखाया था।
उन दिनों तो कुछ लोग सोशल मीडिया पर बड़े गर्व से बताते थे कि उनके पांच वर्षीय बेटे या बेटी ने तोतली जुबान से कहा है कि पापा! मोदी जी को वोट देना, अच्छे दिन आने वाले हैं। केंद्र सरकार अब अपने उन तमाम वायदों और नारों से यू-टर्न लेती जा रही है, जो उसने सत्ता हथियाने के लिए किए थे। महंगाई, भ्रष्टाचार, दोहन, उत्पीड़न, शोषण, गरीबी, बेकारी, भुखमरी जैसी समस्याएं ज्यों की त्यो हैं। आतंकवाद, नक्सलवाद और माओवादी गतिविधियों पर कोई फर्क पड़ा हो, ऐसा भी नजर नहीं आता है। उद्योग-धंधों की स्थिति में फर्क पड़ा हो, ऐसा भी नहीं है। मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार और नरेंद्र मोदी की एनडीए सरकार में फर्क क्या है? अगर यह किसी से पूछा जाए, तो शायद ही कोई बता पाए। अगर उसकी मानसिकता पक्षी या विपक्षी दलों वाली नहीं है, तो! हां, सरकार के अच्छे होने का शोर जरूर बढ़ गया है। यह शोर अभी तो लोगों को कर्णप्रिय लग रहा है, लेकिन अगर सरकार ने अच्छे दिन नहीं दिखाए, तो जरूर यही शोर कानों को न सुहाने वाले शोर में तब्दील हो सकता है।
जगदीश शर्मा


