जोखिम उठाए बिना परिवर्तन संभव नहीं, मंत्र का ईश्वर प्राप्ति से कोई संबंध नहीं

जो मंत्र नहीं जानते वे क्या करें ॽ

जगदीश्वर चतुर्वेदी

मैंने अपने जीवनानुभव के आधार पर मथुरा में ऐसे हजारों शहरी लोगों को देखा है जो कभी मंदिर नहीं जाते, किसी गुरू से मंत्र नहीं लिया। गांव में रहने वाले तकरीबन अधिकांश लोगों की अवस्था यही है, वे कभी मंदिर नहीं जाते,कोई मंत्र नहीं जानते।

जहाँ-जहाँ मंत्र पहुँचा वहाँ-वहाँ संकट भी पहुँचा

बड़ी दिलचस्प बात यह है कि गांवों में मंत्र पहुँचने के बाद ही संकट भी पहुँचा है, यही दशा शहरी मंत्रसिद्ध भक्तों की है। मंत्र को लोगों ने सिद्धि का मार्ग बनाकर जब से प्रचारित किया है, हमारे जीवन में तरह-तरह की व्याधियों, धूर्तताओं और बदतमीजियों की वैधता बढ़ी, हिंसाचार की वैधता बढ़ी। ग्राम्य हिंसाचार बढ़ा।

मंत्र का क्या काम है

पहले लोग मंत्र जपते थे जीवन को बाँधने के लिए लेकिन नव्य-संत मंत्र बांट रहे हैं, जीवन की मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए। जबकि मंत्र का काम जीवन की मनोकामनाओं को पूरा करना नहीं है। मंत्र का जगत मनोकामनाओं के जगत से कहीं पर भी जुड़ता नहीं है।

मैंने सन् 1979 में मथुरा छोड़ा था, उसके बाद में 10साल जेएनयू दिल्ली में रहा, उसके बाद सन् 1989 से 2017 तक कोलकाता रहा। इस बीच बंगाल के गांवों में अनेक बार चुनावों के मौके पर सभाओं में बोलने गया। लेकिन मथुरा इस दौरान (1979-2017) आना-जाना बना रहा। इस अवधि में यूपी-दिल्ली-कोलकाता में बुनियादी तौर पर बदलाव देखने का मौका मिला। सन् 1979 के पहले के अनुभवों को केन्द्र में रखकर जब भी सोचता हूँ तो मुझे आज का मथुरा एकदम भिन्न नजर आता है।

मंत्र का ईश्वर प्राप्ति से कोई संबंध नहीं

पहले हम इस सवाल पर विचार करें कि जो मंत्र नहीं जानते वे क्या करें ॽ पहली चीज है मंत्र का संबंध जीवन शैली को संगठित करने से है, उसका ईश्वर प्राप्ति से कोई संबंध नहीं है।

मंत्र पाने का अर्थ है संगठित निष्ठावान जीवनशैली को व्यवहार में उतारना।

मंत्र जप से भगवान नहीं मिलते, भगवान से प्रेम संबंध प्रगाढ़ नहीं बनता।

मंत्र हमारे दैनंदिन जीवन की घटनाओं से जुड़े हैं, मन को केन्द्रित करता है मंत्र। चित्त को एकाग्रता प्रदान करता है। मंत्र से बढ़ती दूरी ने एकाग्रता को नष्ट किया है।

समाज में जो लोग मंत्र नहीं जानते लेकिन मन को केन्द्रित करके अपने जीवन लक्ष्य में एकाग्रभाव से लगे रहते हैं, उसके लिए त्याग-तपस्या करते हैं वे भी ब्रह्म को जानने के अधिकारी हैं।

तपस्या के द्वारा ब्रह्म को जानो, तपस्या का मतलब क्या है

उपनिषद में कहा भी है ´तपसा ब्रह्म विजिज्ञास्व´, अर्थात् तपस्या के द्वारा ब्रह्म को जानो। चित्त को एकाग्र करके जो काम किया जाता है उसे तपस्या कहते हैं। तपस्या का मतलब जंगल में जाकर धूनी रमाकर भजन करना नहीं है। तपस्या का अर्थ संयासी होना भी नहीं है। समाज में रहते हुए बिना मंदिर गए, बिना मंत्र जप किए, बिना किसी के चेला बने, यदि कोई व्यक्ति एकाग्र भाव से अपना काम करता है तो उसे भगवान से मिलने की जरूरत कभी महसूस ही नहीं होगी, या फिर भगवान से पाने की इच्छा नहीं होगी, ऐसा व्यक्ति समाज से पाना नहीं बल्कि उसे देना चाहेगा।

एकाग्र दत्त-चित्त होकर आप अपना काम करते रहें आप एकदम तपस्वी कहलाएंगे। मन, जीवन, निजी, सामाजिक तमाम किस्म व्याकुलता से इससे मुक्ति भी मिलती है।

मैं अपने अनुभवों के आधार पर कह सकता हूँ कि मैंने मंत्र जप बंद कर दिया और पढ़ने-पढ़ाने का काम एकाग्र भाव से करने लगा तो मन में बहुत संतोष मिला, जीवन के कष्ट कम नहीं हुए, कष्ट हमेशा पीछा करते रहे लेकिन मैंने कभी चित्त की एकाग्रता को भंग होने नहीं दिया। यहां तक कि बचपन में मेरे सभी भाई-बहन मर गए, मन को अपार कष्ट हुआ, माँ गुजर गयीं, परिवार भयानक संकटों में फंस गया, दरिद्रता ने पूरे परिवार को घेर लिया, ईश्वर-मंत्र-पूजा-पाठ सब पर से मन हट गया, लेकिन एकाग्रता को मैंने कभी नहीं छोड़ा।

कलकत्ता जब गया तो एक अर्से बाद वहां भी परिजनों से संबंध टूटा, परिवार टूटा, मन को बहुत कष्ट मिला, इस दौरान परिजनों की असंख्य दुष्टताएं झेलीं, कमीनापन, स्वार्थ, भयानक धनहानि तक सहन की, लेकिन मैंने कभी अपने मन की एकाग्रता को नहीं छोड़ा। कलकत्ते में कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में पढ़ाते हुए कभी कक्षा में देर से नहीं गया। अपने लिखने-पढ़ने के लक्ष्य को नहीं छोड़ा। मैंने 27साल तक नियमित कक्षाएं लीं, कभी छुट्टी लेकर नियमित कक्षाएं बाधित नहीं कीं, अकल्पनीय सामाजिक अत्याचार सहे, इनमें अनेक मित्रों, सहकर्मियों, कॉमरेडों और परिजनों की घृणित भूमिका को करीब से देखा, महसूस किया लेकिन कभी मन की एकाग्रता को नहीं छोड़ा, क्योंकि मैंने मंत्र से जीवन को बाँधने की कला सीखी,चित्त की एकाग्रता सीखी, व्याधियों, परिजनों-कॉमरेडों के कमीनेपन को कभी अपने काम,पठन-पाठन और लेखन को प्रभावित नहीं करने दिया। अपनी तकलीफों के लिए भगवान से कभी शिकायत नहीं की।

दृढ़ आत्मविश्वास भी होना चाहिए तकलीफों से निकलने के लिए

मैं जानता हूँ तकलीफें हैं और रहेंगी, लेकिन तकलीफों से निकलने के लिए दृढ़ आत्मविश्वास भी होना चाहिए। दृढ़ आत्मविश्वास और चित्त की एकाग्रता ने मुझे सबसे बड़ी मदद की। मदद के लिए मेरे पास कभी मित्र –नातेदार-रिश्तेदार-सगे-संबंधी नहीं रहे, वे आमतौर पर मूकदर्शक रहे या समस्याओं के सर्जक की भूमिका निभाते रहे। लेकिन मैंने कभी निराशा-हताशा का अनुभव नहीं किया। कभी नींद की दवा नहीं ली। चैन की नींद सोया, रोज समय पर सुबह चार बजे उठता हूँ और पढ़ता हूँ, मैं ईश्वर की कृपा से पूर्ण स्वस्थ हूँ, कभी डाक्टर की मदद की जरूरत नहीं पड़ी। कोई दवा नहीं खाता। आमतौर पर मंदिर नहीं जाता लेकिन यदि किसी नए शहर या इलाके में किसी सुंदर या पुराने मंदिर को देखने का मौका मिलता है तो मंदिर-गिरिजाघर आदि जाने में कोई परेशानी नहीं होती। मेरे लिए मंदिर-भगवान सामाजिक अतीत का अंग हैं, अतीत को आप छोड़ नहीं सकते, अतीत को हमेशा याद रखें, भूलें नहीं, लेकिन अतीत में जीने से बचें। जीने के लिए वर्तमान चाहिए। मन की एकाग्रता आपको वर्तमान में सही ढ़ंग से जीने की क्षमता प्रदान करती है।

अपने काम को मन को एकाग्र रखकर करने का अर्थ ही है तपस्या। इस क्रम में आप समाज के हर वर्ग, समुदाय, पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार-मित्र-कॉमरेड आदि सबसे सीख सकते हैं। मैं अपने लिए उनमें से सकारात्मक चीजें चुनकर रख लेता हूँ, उनकी नकारात्मक चीजें छोड़ देता हूँ, इस क्रम में मुझे दुष्ट परिजनों, मित्रों, कॉमरेडों से बहुत कुछ सीखने को मिला। जाहिर है इसके लिए मुझे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, यह बात मैं निजी अनुभव से कह सकता हूँ कीमत चुकाए बिना आप कोई चीज नहीं सीख सकते। मन की एकाग्रता को हासिल करने के लिए भी कीमत देनी पड़ती है। इसके लिए अपने व्यवहार को सीमित करना पड़ा, अपनी इच्छाओं को सीमित करना पड़ा, यही वह चीज थी जिसने मुझे सामाजिक प्राणी बनाया। समाज साधना के लिए मंत्र न हो तो तपस्या करके जीने की कला तो हो, संयोग से मेरे पास मंत्र भी था और तपस्या करके जीने की कला भी। यदि आप मंत्र और तपस्या के मार्ग पर चलेंगे तो आपको बहुत कुछ सुनना पड़ेगा।

मंत्र के बिना जीने के लिए क्या चीज जरूरी है

मंत्र के बिना जीने के लिए एक अन्य चीज जरूरी है वह है संयम, पवित्रता और स्वच्छता। इन तीन चीजों के बिना सामाजिक प्राणी नहीं बन सकते। सामाजिक तौर पर अपने को रूपान्तरित नहीं कर सकते।

मैं जिस परिवार में जन्मा और मथुरा के जिस संस्कृत महाविद्यालय में पढ़कर बड़ा हुआ, उस माहौल में व्यक्तित्वांतरण बहुत मुश्किल है। संस्कृत की शिक्षा जड़ व्यक्तित्व बनाती है, नए विचारों को जीवन में दाखिल होने ही नहीं देती। संस्कृत शिक्षा में रहकर-जीकर कभी किसी का व्यक्तित्वांतरण नहीं हुआ। जिन लोगों ने मुझे बचपन से देखा है, वे मेरे इस परिवर्तित रूप को देखकर आज भी अचम्भित होते हैं। एकाग्रता के साथ परिवर्तन की आकांक्षा का होना जरूरी है, परिवर्तन या व्यक्तित्व रूपान्तरण के लिए जोखिम उठाने की जरूरत है, जोखिम उठाए बिना परिवर्तन संभव नहीं है।

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