ऋषि कुमार सिंह

जो जितना ज्यादा सांप्रदायिक है, उतना ज्यादा जातिवादी है
कल एक शख्स ने जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया को चूहा कहने का पक्ष लिया। जब मैंने पूछा कि क्या आपने कन्हैया का भाषण सुना है। उसने कहा हां सुना है।
मैंने पूछा क्या आपके हित की कोई बात उसमें शामिल नहीं थी।
उसने कहा कि हां बात तो ठीक कही है, लेकिन वह तो नेताओं जैसे भाषण देता है, मुल्लों के साथ बोलता है, उनके नारे लगाता है।

मैंने पूछा क्या मुस्लिम इस देश के नागरिक नहीं हैं।
इसके जवाब में उसने मुस्लिमों को कट्टर बताने से लेकर देश की सभी समस्याओं की वजह बताने की कोशिश की। अपना पुराना सवाल दोहराया कि क्या आप ये सारी बातें बात किसी मुस्लिम शख्स के सामने कह सकते हैं। उसने भी दूसरों की तरह ही दांत निपोर दिया और कहा कि इतना तो लिहाज करते हैं, अब सामने कौन कहेगा। उसने सवर्ण और गैर-सवर्ण घर में पैदा होने के ईश्वर निर्मित विधान बताया। पुराने समय को याद करते हुए कहा कि पहले कोई हरिजन बराबर नहीं बैठ सकता था, अब देखो।

इस शख्स से बात करके यह अवधारणा पुख्ता हुई कि जो व्यक्ति जितना ज्यादा सांप्रदायिक है, उतना ही ज्यादा जातिवादी है।

इस बात का भी अंदाजा लगा कि सांप्रदायिकता के मामले में लोगों के भीतर भीड़ की मानसिकता काम कर रही है, क्योंकि ऐसी जितनी भी बातचीत हुई हैं, उसमें जैसे ही मैंने यह सवाल रखा है कि क्या आप इस बात को किसी मुस्लिम शख्स के सामने कह सकते हैं, सामने वाले ने हथियार डाल दिए हैं। यानी व्यक्ति जब भीड़ के रूप सोचता है और जब व्यक्ति के रूप में सोचता है, बात कहने में फर्क आता है। इसका सीधा सा मतलब है कि जैसे जैसे व्यक्ति में भीड़ के रूप में सोचने की प्रक्रिया मजबूत होगी, वह अपने सांप्रदायिक दुराग्रहों को जताने में अड़चन बनने वाले तमाम लिहाज छोड़ता चला जाएगा। दादरी गांव में यही हुआ। वर्षों से एक साथ रह रहे लोगों में मौजूद भीड़ की मानसिकता अचानक सक्रिया हो उठी और वह कर गुजरी, जिसने सभ्य समाज को अफसोस से भर दिया।
जाहिर है कि जो शक्तियां सांप्रदायिक नफरत के सहारे अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाहती हैं, वे लोगों को भीड़ की मानसिकता के प्रसार में लगी हैं। इसे हम आरएसएस के कामकाज में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। केंद्र बीजेपी सरकार आने के बाद इसमें काफी तेजी आई है। उन संस्थाओं, प्रक्रियाओं और सिद्धांतों पर हमले हो रहे हैं, जो लोगों को भीड़ बनने से बचाते हैं। इसमें रोहित वेमुला की बातें शामिल हैं, जेएनयू शामिल है। सांम्प्रदायिक राजनीति करने वाले जिस वर्ग और जाति को अपना लड़ाका बना रहे हैं, वह निश्चित तौर पर इस देश का दलित वर्ग है, जो पहले धर्म से बहिष्कृत था, अब उसे धर्म का रक्षक घोषित किया जा रहा है। बहराइच से लेकर इलाहाबाद तक पासी जाति को आरएसएस अपने फेर में लाने में सफल रही है। सांप्रदायिक तनावों का नेतृत्व उसी को सौंपा जाता है, शांतिकाल में नेतृत्व करने की जिम्मेदारी द्विजों ने अपने पास रखी है। यही ब्राह्मणवादी व्यवस्था का सिद्धांत भी है कि गैर-द्विजों को अपना जीवन द्विजों के लिए समर्पित कर देना चाहिए। सांप्रदायिक राजनीति का यही स्वार्थ है, जिसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाकर अंततः हासिल किया जाना है। यही हिंदू राष्ट्र की तस्वीर है, जिसे लाने के लिए आरएसएस व उसके अनुषंगी लगे हुए हैं।