जो "पिछड़ा" रोज दलित को जूता मार रहा है, उसके साथ कैसी एकता ?
जो "पिछड़ा" रोज दलित को जूता मार रहा है, उसके साथ कैसी एकता ?
जो पिछड़ा रोज दलित को जूता मार रहा है, उसके साथ कैसी एकता ?
भंवर मेघवंशी राजस्थान के प्रगतिशील दलित आंदोलन के एक प्रमुख स्तम्भ हैं और आज के हालात पर उनकी लेखनी बेबाक जारी है। उन्होंने देश भर के जनांदोलनों के साथ लगातार हिस्सेदारी की है और गाँव-गाँव साम्प्रदायिकता, जातिवाद, महिला हिंसा, वैश्वीकरण, विस्थापन आदि के प्रश्नों पर जनजागरण किया है.
राजस्थान में भीलवाड़ा जिले के एक छोटे से गाँव सिरडीयास में 25 फरवरी 1975 को दलित बुनकर परिवार में जन्मे भंवर मेघवंशी को महज 13 साल की उम्र में ही कट्टरपंथी आर एस एस जैसे संगठन ने अपने साथ जोड़ लिया, जिसके साथ उन्होंने तकरीबन पांच साल तक सक्रिय रूप से काम किया। वे अपने गाँव की शाखा के मुख्य शिक्षक रहे, बाद में कार्यवाह बने और अंततः जिला कार्यालय प्रमुख के पद तक भी पंहुचे। उन्होंने बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए हुई पहली कारसेवा में भी शिरकत की, मगर अयोध्या पंहुचने से पहले ही गिरफ्तार हुए तथा 10 दिन आगरा की जेल में रहे। बाद में एक घटना से उनका आर एस एस की दलित विरोधी सोच और नफरत एवं कट्टरता की विचारधारा से मोहभंग हो गया और उन्होंने संघ से अपना नाता तोड़ लिया और खुलकर आर एस एस का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया।
आर एस एस छोड़ने के बाद मेघवंशी ने एक फुल टाइम कार्यकर्ता के रूप कौमी एकता, भाईचारे और शांति एवं सदभाव के लिए काम शुरू किया जो आज तक जारी है। उन्होंने 2002 में गुजरात में हुए अल्पसंख्यकों के नरसंहार के विरुद्ध जमकर आवाज उठाई, गुजरात पीड़ितों के लिए बने पीपुल्स ट्रिब्यूनल के सदस्यों के साथ दस्तावेजीकरण किया और लेख लिखे। साम्प्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ जमकर संघर्ष करते हुए उन्होंने 2000 से वर्ष 2012 तक डायमण्ड इंडिया नामक मासिक पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन किया।
भंवर मेघवंशी ने एक स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सदैव अपनी कलम शांति, आपसी सदभाव, भाईचारे और सोहार्द्र के लिए काम किया। उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में व्याप्त स्टीरियो टाईप मिथ्स को तोड़ने और सच्चाई को सामने लाने का काम किया है। भंवर जी से आज के ज्वलंत प्रश्नों पर विद्या भूषण रावत ने विस्तारपूर्वक बातचीत की जो यहाँ प्रस्तुत है।
विद्या भूषण रावत : - भंवर जी, आज के दौर में दलित आंदोलन की सबसे बड़ी चुनौती क्या है ?
भंवर मेघवंशी : आज दलित आन्दोलन को कई प्रकार की चुनोतियों को झेलना पड़ रहा है, यह बाहरी चुनौतियां भी हैं और भीतरी भी। जिस प्रकार से साम्प्रदायिक शक्तियाँ दलित आन्दोलन को हजम कर रही है वह चिंताजनक स्थिति है, आज बड़े पैमाने पर दलित नेतृत्व संघ भाजपा द्वारा बिछाये गए जाल में फंस गया है, सत्ता का झूठा लालच देकर उनकी जुबानें बंद कर दी गई है। दलितों के चुने हुए प्रतिनिधि दलितों की बात नहीं करते, नौकरशाही और सत्ता में बैठे लोग दलित आवाजों के दमन में लगे हुये हैं। अभी संघ का एक एजेंडा चल रहा है कि या तो अपने साथ ले लो, अगर नहीं आये, उन्हें फंसा दो। इस तरह हम देख रहे हैं कि दलितों का दमन और तीव्र होता जा रहा है।
दलित आन्दोलन अपनी स्वाभाविक उग्रता को खो रहा है, वह कई बार भ्रमित नजर आता है, उसे समझ नहीं आता है कि वो किनके साथ खड़ा हो, उसे अपने दोस्तों और दुश्मनों की शिनाख्त करने में आज काफी मुश्किल हो रही है।
समुदाय के बीच में पनप आये दलाल लोगों ने आन्दोलन की मूल भावना को ही विकृत कर दिया है। अधिकांश दलित लीडर उम्र के थका देने वाले पड़ाव पर पंहुच गए हैं।
चुनौतियां बेहद नई हैं और समाधान पुरातन हैं।
नई पीढ़ी का दलित आन्दोलन कुछ अलग चाहता है, पर उसे दिशा नहीं मिल पा रही है। भीतरी चुनौतियां भी उभर रही है, दलितों के मध्य के जातिय अंतर को अब जातिवाद का रूप दिया जा रहा है। कई दलित जातियां स्वयं को इस हद तक मजबूत करने में लगी हैं कि उन्होंने जाति उच्छेद के काम से लगभग मुंह ही मोड़ लिया है।
दलित समुदाय के भीतर जातियों को मजबूती देने का काम जाति तोड़ने के बड़े उद्देश्य की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा बनकर उभर रहा है। यह हमारे आन्दोलन को कमजोर बना रहा है। संघ की विघटनकारी राजनीति के लिए यह स्थिति मुफीद है, इसलिए वो दलितों के मध्य के छोटे मोटे फर्क को दुश्मनी के स्थायी भाव में बदलने की कोशिश में लगा रहता है।
विद्या भूषण रावत ; रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद लगा कि अम्बेडकरी और वामपंथी ताकते साथ आएँगी लेकिन JNU के चुनावो ने दोनों के बीच में खाई को और बड़ा बना दिया है। आप क्या सोचते हैं इस सन्दर्भ में।
भंवर मेघवंशी : हां यह बात सही है कि रोहित वेमुला के सांस्थानिक मर्डर के बाद अम्बेडकरी और वामपंथी ताकतें एक साथ आईं। जय भीम और लाल सलाम का नारा एक साथ गुंजायमान हुआ। उम्मीद जगी कि यह जुगलबंदी आगे बढ़ेगी। यह समय की मांग भी रही।
यह संतोष का विषय रहा कि भारत के वामपंथियों ने जाति के सवाल को स्वीकारना शुरू किया और वे अम्बेडकरवादी आन्दोलन के साथ खड़े दिखाई देने लगे।
मगर हाल ही में जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव में लेफ्ट यूनिटी और बाप्सा के आमने सामने आने से लोगों को लगा कि रोहित के मामले में बना एका ख़त्म हो गया है, जिस पर कई लोगों ने चिंता व्यक्त की है, लेकिन मैं थोड़ा अलग तरह से इस पूरे घटनाक्रम को देखता हूँ।
हमें समझना होगा कि भारत के वामपंथी कभी भी अम्बेडकरवादी समूहों के स्वाभाविक दोस्त नहीं रहे हैं, सदैव ही ये दो धाराएँ रही हैं। रोहित के मुद्दे पर ये सड़कों पर संघर्ष में एक साथ थे, इसका मतलब यह तो नहीं कि उनके मध्य कोई वैचारिक एकता बन गई। मेरे ख्याल से वह एक मुद्दे पर तात्कालिक एकता थी, जिसे एक न एक दिन ख़त्म होना ही था। फिर ऐसे मुद्दे आयेंगे तो ऐसी क्षणिक एकता फिर से बनेगी और बिगड़ेगी भी।
रही बात जेएनयू चुनाव की तो इसे विचारधाराओं के संघर्ष के रूप में देखना अभी जल्दबाजी होगी। इससे वामपंथियों को अपने भीतर देखने का मौका मिलेगा। बाप्सा और लेफ्ट यूनिटी को न्यूनतम सांझे मिलन बिंदु ढूंढने चाहिए। चुनावी संघर्ष दोस्त और दुश्मन की विभाजक रेखा नहीं बननी चाहिए।
विद्या भूषण रावत : वामपंथियो ने तो बहुत गलतियां की हैं। न केवल जाति की स्वीकार्यता के विषय में बल्कि वर्ग चरित्र में भी उनका नेतृत्व कभी भी गरीबों के हाथ में नहीं था। लेकिन जब हम राजनैतिक आंदोलन करते हैं तो हर एक आंदोलन की एक स्वस्थ आलोचना होनी चाहिए क्योंकि अगर हम सभी में कमियां नहीं होती तो ब्राह्मणवाद कभी इतना मज़बूत नहीं होता। इसलिए ये भी जरूरी है कि अम्बेडकरवादी या दलित आंदोलनों के जो विभिन्न ध्रुव हैं उनकी भी कमियों और अवसरवाद पर बोला जाये। आज का समय केवल कम्युनिस्टो की कमी निकालने से नहीं होगा बल्कि स्वस्थ रूप से सभी सम्बंधित आंदोलनों के कमियों को समझकर एक नए आंदोलन की रुपरेखा बनाने का होना चाहिए।
भंवर मेघवंशी : आपकी बात से मेरी सहमति है कि आज का वक़्त सिर्फ वामपंथियों की कमियां निकालने का नहीं है, पर सवाल जरुर उठाये जाने चाहिएं। इसका जवाब कौन देगा कि वामपंथियों ने जाति के सवाल को कालीन के नीचे क्यों दबाये रखा आज तक, उनके यहाँ नेतृत्व में दलित आदिवासी लोग क्यों नहीं आगे आ पाए। आप वर्ग की बात तो करेंगे लेकिन वर्ण की बात को नहीं स्वीकारेंगे यह नहीं चल सकता है।
आप गरीबी का ढोल तो पीटेंगे मगर जाति की तरफ से आँख मूंद लेंगे, यह नहीं चल सकता है।
भारतीय वामपंथ को ईमानदारी से इस देश के परिप्रेक्ष्य में उसी तरह से ब्राह्मणवाद से भी लड़ना होगा, जिस तरह वे पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से लड़ने की बात करते हैं।
मुझे भी लगता है कि दलित बहुजन आन्दोलन को भी अपने भीतर झांकना होगा, अगर वह अपनी स्वस्थ आलोचना स्वयं कर सके तो उसके हक़ में यह बहुत अच्छा होगा। अम्बेडकरी आन्दोलन को भी अपने जातिवादी चरित्र से छुटकारा पाना होगा तथा उसे ब्राह्मणवाद से भी बचना होगा।
विद्या भूषण रावत : दलित बहुजन आंदोलन की बहुत चर्चा होती है लेकिन उसका मेल बिंदु केवल गैर ब्राह्मणवाद है। दोनों ध्रुवों को साथ आने के लिए क्या कोई सकारात्मक कार्यक्रम की जरूरत नहीं है। जैसे कम्युनिस्तो ने जाति को नहीं माना, वैसे ही अगर हम ये सोच लें कि बहुजन ध्रुवीकरण के अंदर सारे तत्त्व एक से हैं तो बहुत बड़ी भूल होगी।
बाबा साहेब ने जातियों के वर्गीकरण के बारे में साफ़ कहा था कि ये 'ग्रेडेड इनएक्वलिटी' है, हर एक जाति एक एक ऊपर चढ़ी है और अपने को दूसरे से बड़ी मानती है। अपने आपसी संबंधों के बारे में जब हमारी समानता का कोई सिद्धांत नहीं बनेगा तो एकता कैसी ?
भंवर मेघवंशी : दलित बहुजन एकता के सारे तत्व एक से नहीं है, सिर्फ मंचीय ध्रुवीकरण परिलक्षित होता है, जो गाहे बगाहे ब्राह्मणवाद को कोसते रहते हैं। मगर इस मिलन बिंदु से आज कुछ भी उम्मीद नहीं लगाई जा सकती है, बहुजन विचार में शामिल जो पिछड़ा तबका है, वह आज मनुवाद का सबसे बड़ा संवाहक बना नजर आता है। पाखंड, पूजा पाठ तथा धर्म कर्म में आकंठ डूबा हुआ।
वह जो आज ब्राह्मणवाद का हरावल दस्ता है, उससे ब्राह्मण से लड़ने की उम्मीद करना बचकानी बात होगी।
दलित अत्याचार के प्रकरणों को उठाकर देखिये कई इलाकों में 90 प्रतिशत मामलों के मुख्य अभियुक्त ओबीसी से आते है। जो पिछड़ा रोज दलित को जूता मार रहा है, उसके साथ कैसी एकता ?
धरातल के हालात तो बेहद भयंकर है और हमारे आसमानी नेता है जो कभी दलित पिछड़ा एकता और कभी मूलनिवासी एकता का राग अलापते रहते है। बहुजन ध्रुवीकरण एक कोरी कल्पना है।
अब तो बहुजन के नाम से जाने जाने वाले संगठन ही ब्राह्मण नेता चलाते हैं। पिछड़े जब तक मनुवाद के अग्रिम मोर्चे पर खड़े दिखेंगे और दलितों पर अत्याचार करेंगे तब तब वे हमारे उतने ही बड़े दुश्मन हैं, जितने कि कथित उच्च वर्णीय लोग।
विद्या भूषण रावत : रोहित वेमुला के मामले को मीडिया ने बहुत उछाला। बहुतों को लगा शायद अब मीडिया दलित प्रश्नों पर बहुत संवेदनशील हो गया है, लेकिन डेल्टा मामले तो लगभग दबा दिया गया। अभी गांवों में बहुत क्रूर घटनाक्रम होता है और मीडिया भूल जाता है। भगाना के लोग पिछले चार वर्ष से आंदोलन कर रहे हैं लेकिन अभी भी न्याय के इंतज़ार में हैं और अब उनके पास न दलित संगठन आते न वामपंथी ? मीडिया तो खैर गया ही नहीं ? क्यों हो रहा है ऐसा ?
भंवर मेघवंशी : रोहित के मामले को मुख्यधारा मीडिया ने कोई ख़ास तव्वजो दी हो, ऐसा मैं नहीं मानता। हां जब सोशल मीडिया ने इस मुद्दे को बहुत बड़ा बना दिया, तब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने अपने जातिवादी चरित्र के मुताबिक निगेटिव रिपोर्टिंग शुरू की। रोहित की जाति पर भ्रम पैदा किया, उसे गोमांस भक्षी देश विरोधी तत्व के रूप में निरूपित किया। हर संभव कोशिस यह की कि कैसे भी करके रोहित वेमुला को बदनाम कर दिया जाये, लेकिन अच्छा यह हुआ कि वैकल्पिक मीडिया ने इस मनुवादी मीडिया को धूल चटा दी और वे रोहित के मामले को दबा नहीं पाये।
रही बात डेल्टा मेघवाल मामले की, तो यहाँ भी मीडिया की भूमिका नकारात्मक ही रही। पहले डेल्टा का चरित्र हनन का प्रयास हुआ और बाद में मामले को ठन्डे बस्ते में फेंक दिया।
रोहित के मामले में आरोपी सरकारी लोग थे, मगर डेल्टा के मामले में विज्ञापन देने वाले समुदाय के लोग थे। जिनका अख़बारों और टीवी चेनल्स पर मालिकाना हक है, उन्हीं की जमात के लोग जब आरोपी बने तो मीडिया उनके आगे पूंछ हिलाने लग गया।
दलितों पर होने वाले अत्याचार सेक्सी स्टोरी नहीं होते। दलित महिलाओं का बलात्कार जातिवादी मीडिया की संवेदनाओं को नहीं जगाता।
भगाना हो चाहे डांगावास, डेल्टा हो या उना दलित अत्याचार, सिर्फ सोशल मीडिया ही इन मुद्दों को आगे बढ़ा रहा है। वैसे भी मीडिया ज्ञापन देने वालों से ज्यादा विज्ञापन देने वालों की परवाह करता है।
विद्या भूषण रावत : आप तो राजस्थान के बहुत से आंदोलनों से जुड़े रहे हैं, जैसे मज़दूर किसान शक्ति संगठन, भोजन का अधिकार अभियान, पी यू सी एल इत्यादि। क्या तथाकथित मुख्यधारा के आंदोलनों में दलितों के जगह बची है या उनका केवल एक लेबल की तरह इस्तेमाल हो रहा है।
भंवर मेघवंशी : मुख्यधारा की किसी भी चीज़ में दलितों के लिए कभी जगह नहीं थी और न ही आज है। सभी जगह दलित सिर्फ दिखाने की वस्तु भर होते हैं।
सामाजिक आंदोलनों का चरित्र भी इससे भिन्न नजर नहीं आता। कहीं पर भी स्वतंत्र दलित नेतृत्व स्वीकारा नहीं जाता। पिछलग्गू दलित सबको प्रिय हैं। बोलने वाले सवाल उठानेवाले दलित कहीं भी पसंद नहीं किये जाते।
मेरा मानना है कि सिविल सोसाइटी को भी लोकतान्त्रिक और समावेशी बनना होगा तथा दलितों को सिर्फ लेबल की तरह इस्तेमाल करने से बचना होगा।
विद्या भूषण रावत - राजस्थान में अम्बेडकरवादी या दलित आंदोलनों की क्या स्थिति है।
भंवर मेघवंशी : राजस्थान पारम्परिक रूप से एक सामन्ती स्टेट रहा है। यहाँ विद्रोह की कोई भी सामाजिक राजनीतिक या सांस्कृतिक धारा नहीं रही है। यहाँ तक कि भक्तिकाल में भी यहाँ कबीर या रैदास जैसे लोग नहीं पैदा हुए। यहाँ तो दास्य भाव शाश्वत रहा है। तो मानसिक दासता सदियों से बरकरार रही है। दलित मुक्ति की लड़ाई में भी राजस्थान का योगदान नगण्य रहा है।
पूना पैक्ट के वक़्त राजस्थान के कतिपय दलित नेता बाबा साहब के विरोध में पर्चे बाँट रहे थे। यहाँ कबीर, फुले, अम्बेडकर के दलित के बजाय गाँधी के हरिजन और पार्टियों के बंधुआ दलित लीडर ही ज्यादा रहे हैं।
आज़ादी के बाद हेडगेवार –गोलवलकर के भक्त दलित और गाँधी नेहरु को पूजने वाले दलितों के हाथ में दलित आन्दोलन की बागडोर रही। फिर समाजवादी किस्म के राजनीतिक दलित आन्दोलन पैदा हुये, जिन्होंने सामाजिक न्याय के नारे तो लगाये, पर उसके नेतृत्व में वही जातियां प्रमुखता से आगेवान रही जो शोषक जमातें थी।
1992 में कुम्हेर भरतपुर में दलितों के सामूहिक नरसंहार के बाद राजनीति से परे एक दलित आन्दोलन उभरने लगा, जो बाद में एनजीओकरण का शिकार हो गया।
प्रोजेक्ट बेस्ड दलित आन्दोलन ने भी दलित आन्दोलन की स्थितियां ख़राब की हैं।
आज राजस्थान का दलित आन्दोलन बिखराव का शिकार है। व्यक्तिवादी अहम् की लडाइयों के चलते कई छोटे-छोटे खेमे बन गये हैं। कुछ लोग तो दलित के नाम पर सिर्फ अपनी जाति या परिवार का समूह बना बैठे हैं, जबकि आज राजस्थान दलित अत्याचार, छुआछुत और भेदभाव का सबसे बड़ा गढ़ बन गया है।
पर संतोष की बात यह है कि डांगावास दलित संहार के पश्चात दलित युवा पीढ़ी ने स्वतः स्फूर्त आन्दोलन खड़ा किया तथा संघर्ष कर विजय पाई है।
राजस्थान के दलित युवा आन्दोलन ने अपने खामोश राजनीतिक नेतृत्व को पूना पैक्ट की खरपतवार करार दिया है तथा जातिवादी समूहों को भी नकारने का काम किया है।
सामाजिक संगठनों के नाम से दशकों से दुकानदारी चला रहे लोगों को भी बहुत सारे सवालों का सामना करना पड़ा है।
धीरे धीरे ही सही परन्तु डांगावास से लेकर डेल्टा तक के मामलों में एक आत्मनिर्भर दलित अम्बेडकरवादी आन्दोलन का उभर एक सुखद घटना मानी जा सकती है।
विद्या भूषण रावत : क्या दलित संगठनों को बिलकुल अलग होकर काम चलना चाहिए आवश्यकता अनुसार निर्णय लेने चाहिए क्योंकि —जब वामपंथी शक्तियां साथ न दें तो क्या विकल्प है, या दलित बहुजन अल्पसंख्यकों को अब एक नयी पहल करनी होगी ताकि उनकी बुनियाद मज़बूत हो और वे राजनैतिक तौर पर अपनी ताक


