ज्ञान, शिक्षा तथा वर्चस्व- सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन गये
ज्ञान, शिक्षा तथा वर्चस्व- सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन गये

ज्ञान, शिक्षा तथा वर्चस्व
“हर ऐतिहासिक युग में शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, यानि समाज की भौतिक शक्तियों पर जिस वर्ग का शासन होता है वही बौद्धिक शक्तियों पर भी शासन करता है. भौतिक उत्पादन के शाधन जिसके नियंत्रण में होते हैं, बौद्धिक उत्पादन के साधनों पर भी उसी का नियंत्रण रहता है, जिसके चलते सामान्यतः बौद्धिक उत्पादन के साधन से वंचितों के विचार इन्हीं विचारों के आधीन रहते हैं.” (कार्ल मार्क्स, जर्मन विचारधारा)
कार्ल मार्क्स का यह कथन आज नवउदारवादी संदर्भ में कम-से-कम उतना ही प्रासंगिक है जितना 1845 में इसके लिखे जाने के वक्त. शासक वर्ग का विचार ही युग का विचार या युग चेतना होता है. युगचेतना यानि खास देश-काल की विचारधारा मिथ्या चेतना होती है क्योंकि यह एक खास संरचना को सास्वत, सार्वभौमिक तथा अंतिम सत्य के रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करती है. आज अस्तित्व की चुनौती से जूझ रहा ब्राह्मणवाद हजार साल से अधिक समय तक भारतीय उपमहाद्वीप के ज्यादातर भूखंडों में युग चेतना बना रहा जिसे गुरुकुलों की शिक्षा द्वारा परिभाषित ज्ञान पालता पोषता रहा. शिक्षा संस्थान बौद्धिक उत्पादन के सबसे महत्वपूर्ण कारखाने हैं.
1995 में विश्वबैंक ने शिक्षा को एक व्यापारिक सेवा के रूप में गैट्स (जनरल ऐग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड सर्विसेज़) में शामिल कर लिया है. वैसे मनमोहन सरकार भी इस दस्तावेज पर दस्तखत करने को सिद्धाततः सहमत थी लेकिन किया मोदी सरकार ने. दोनों विश्व बैंक की मातहदी में एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी हैं.
शासक वर्ग समाज के मुख्य अंतरविरोध की धार को कुंद करने के लिए राज्य के वैचारिक उपकरणों से अपने आंतरिक अंतरविरोधों को समाज के मुख्य अंतरविरोध के रूप में प्रचारित करता है.
उच्च शिक्षा संस्थानों पर तमाम तरीकों से जारी हमला गैट्स को लागू कर शिक्षा को पूरी तरह कॉरपोरेटी भूमंडलीय पूंजी के हवाले करने की भूमिका है. गैट्स के विभिन्न प्रावधानों की चर्चा की गुंजाइश (स्कोप) यहां नहीं है लेकिन खेल के सम मैदान (लेबेल प्लेइंग फील्ड) की संक्षिप्त चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी.
यानि अगर सरकार दिल्ली विश्वविद्यालय को अनुदान देती है तो लब्ली विश्वविद्यालय को भी दे नहीं तो दिल्ली विश्वविद्यालय का भी अनुदान बंद करे. जब तक सार्वजनिक वित्त पोषित संस्थान रहेंगे तो निजी खिलाड़ियों के ‘खुले’ खेल में दिक्कत होगी. इनकी दुकानें तब तक उतनी सुचारु रूप से नहीं चल पाएंगी जब तक सार्वजनिक वित्तपोषित संस्थाएं खत्म नहीं हो जातीं. सरकार और आरयसयसी ब्राह्मणवाद इसी प्रयास में लगे हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय तथा अन्य विश्वविद्यालयों के शिक्षक मानव संसाधन मंत्रालय और रीढ़विहीन विश्ववियालय अनुदान आयोग के तुगकी फरमानों के खिलाफ महीनों से आंदोलित हैं. भविष्य बताएगा कि शिक्षक-छात्रों का प्रतिरोध सरकार की शिक्षा-विरोधी मुहिम को रोक पाएगा कि नहीं.
अपरिभाषित ज्ञान को अपरिभाषित चरमोत्कर्ष पर ले जाने के उद्देश्य से अपरिभाषित राष्ट्रवाद का ढिंढोरा पीटने वाली मौजूदा भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित शिक्षा की राष्ट्रीय नीति (एनईपी) की भूमिका प्राचीन कालीन गुरुकुल प्रणाली के हवाले से शुरू होती है.
गौरतलब है कि शिक्षा की बौद्ध संघों की जनतांत्रिक वाद-विवाद की परिपाटी के विपरीत अधिनायकवादी गुरुकुलों में सवाल-जवाब के माहौल की मनाही थी. विद्यार्थियों को ज्ञान के अन्वेषण की अनुमति नहीं होती थी. उन पर पूर्वजों द्वारा अर्जित धार्मिक-वैदिक-पौराणिक ज्ञान थोपा जाता था. पीढ़ी-दर-पीढ़ी रटंत विद्या का विस्तार होता जाता था.
यह भी गौरतलब है कि सीमित दायरे में परिभाषित ज्ञान देने वाली इस शिक्षा की सुलभता भी उच्च वर्गीय अल्पमत तक ही सीमित थी. गुरुकुलों में बहुसंख्यक कामगर वर्गों का प्रवेश निषेध था. द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य को शिक्षा देने से इंकार तथा स्वाध्याय से शिक्षा में दक्ष हो जाने पर, छल-कपट से दक्षिणा में उसका अंगूठा कटवा लेने की महाभारत की पौराणिक कहानी सुविदित है. आधुनिक एकलव्यों ने अंगूठा मोड़कर सरसंधान सीख लिया है.
मनुस्मृति में शूद्रों और महिलाओं द्वारा गलती से भी वेदमंत्र सुन लेने पर उनके कान में पिघलता सीसा डाल देने का प्रावधान भी सुविदित है.
यह भी सुविदित है कि प्राचीन बौद्ध संघों तथा विद्यालय-विश्वविद्यालयों में महिलाओं समेत किसी का भी प्रवेश वर्जित नहीं था. गुरुकुल प्रणाली की शिक्षा से वर्ग(वर्ण) हित के सीमित दायरे में ज्ञान को परिभाषित कर उस पर एकाधिकार के जरिए ही वर्णाश्रमवाद (ब्राह्मणवाद) का वर्चस्व बना रहा.
किसी भी ज्ञान की कुंजी सवाल-दर-जवाब-दरसवाल- ... है. जिस समाज की शिक्षा व्यवस्था में वाद-विवाद-संवाद की मनाही हो वह बौद्धिक जड़ता का शिकार हो जाता है. आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यूरोप की ही तरह हमारे समाज में भी धर्मशास्त्र के बोझ से हजार से अधिक साल तक बौद्धिक जड़ता छाई रही.
वर्णाश्रम को संस्थागत रूप देने वाले मनु से सल्तनत कालीन ज़िआउद्दीन बर्नी के बीच किसी उल्लेखनीय राजनैतिक चिंतक नहीं पैदा हुआ. शुक्रनीति जैसे ग्रंथ कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा महाभारत के शांति पर्व से कॉपी-पेस्ट लगते हैं. कालिदास से कबीर के बीच किसी उल्लेखनीय साहित्यकार का भी नाम नहीं सुनाई देता.
शिक्षा की राष्ट्रीय नीति नवउदारवादी गुरुकुल प्रणाली की स्थापना का दस्तावेज है. इसका मकसद विश्व बैंक की इच्छानुकूल शिक्षा के पूर्ण व्यावसायीकरण के जरिए ज्ञान को कारीगरी के रूप में परिभाषित करके उसकी सुलभता धनी वर्गों तक सीमित करना है. गरीब भी शिक्षा प्राप्त कर सकता है कर्ज की किश्त अदायगी में जीवन बिताने की कीमत पर. सार्वजनिक क्षेत्र के उच्च शिक्षा संस्थानों पर जारी हमला प्रकारांतर से शिक्षा के व्यवासायीकरण के ही प्रयास हैं.
इस लेख का मकसद एनपीई की विसंगतियों की समीक्षा नहीं है, वह एक अलग विमर्श का विषय है. इस लेख का मकसद ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ज्ञान तथा शिक्षा के अंतःसंबंधों की जांच का प्रयास किया गया है.
चुनावी ध्रुवीकरण के गुजरात प्रयोग के महानायक नरेंद्र मोदी के केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज होते ही आरएसएस ने अपने संसदीय और “असंसदीय” घटकों के माध्यम से उच्च शिक्षा तथा उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमला बोल दिया. भारत को माता मानने वाले को ही शिक्षित मानने वाली, मानव संसाधन मंत्री, स्मृति इरानी ने शिक्षा में आमूल परिवर्तन के संकेत दिए हैं.
हिंदुत्व के प्रथम परिभाषक वीडी सावरकर मातृभूमि की नहीं पितृभूमि की बात करते हैं.
भारत को पिता मानने वाले सावरकर को ये शिक्षित मानती हैं कि नहीं, वही जानें. सरकार की मौजूदा नीतियां शिक्षा के भगवाकरण की द्योतक हैं जैसा कि राजस्थान के शिक्षामंत्री ने साफ- साफ कहा है कि उनकी सरकार शिक्षा के भगवाकरण के लिए कटिबद्ध है.
आगरा में विश्व हिंदू परिषद के मंच से मुसलमानों के सफाया की गुहार लगाने के लिए चर्चा में आए केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री ने साफ साफ कह दिया, “हिंदुस्तान में नहीं तो क्या पाकिस्तान में भगवाकरण होगा?”
यहां मकसद भगवाकरण की अंतर्वस्तु की व्याख्या नहीं है, वह एक अलग चर्चा का विषय है. सरकार की नई शिक्षा नीति तथा इस सरकार का शिक्षा संस्थानों में स्थापित जनतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला भी इस का मकसद नहीं है, वह भी एक अलग चर्चा का विषय है. इस लेख का विचार इस जिज्ञासा से उभरा कि क्यों सभी ऐतिहासिक युगों में शासक वर्ग और उनके ‘जैविक’ बुद्धिजीवी (चारण) ज्ञान को शिक्षा के माध्यम से एक खास ढांचे में परिभाषित करते हैं और शिक्षा पर एकाधिकार कायम करते हैं? क्या शिक्षा और ज्ञान मे कोई समानुपाती रिश्ता है? इन्ही सवालों के जवाब की तलाश में इसमें शिक्षा तथा शासक वर्ग के वैचारिक वर्चस्व के अंतर्सबंधों पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में एक चर्चा का प्रयास किया गया है.
लगता है ज्ञान तथा शैक्षणिक डिग्री में समानुपातिक संबंधों की मान्यता के चलते भारत के प्रधानमंत्री तथा मानव संसाधन मंत्री की डिग्रियां विवाद के घेरे में हैं. आम आदमी पार्टी के कुछ नेता दिल्ली विश्वविद्यालय से मोदीजी और स्मृति इरानी जी के पंजीकरण तथा परीक्षा संबंधित दस्तावेज मांगा है. अखबारों की खबरों से पता चला कि दिल्ली विश्विद्यालय को समृति इरानी के दस्तावेज मिल ही नहीं रहे.
अरुण जेटली ने को जो डिग्री और मार्क्सशीट मीडिया को दिखाया उनके नामों और रोल नंबरों में विसंगतियां हैं. गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति ने मीडिया में मोदी जी की “संपूर्ण राजनीतिशास्त्र (एंटायर पोलिटिकल साइंस)” में एमए की डिग्री पेश की. यह अलग बात है दुनिया के किसी भी विश्वविद्यालय में इस नाम का विषय नहीं दर्ज है. इस विवाद पर मोदी जी का मन मौन है. यहां मकसद इनकी शैक्षणिक योग्यता पर चर्चा नहीं है, न ही इस बात पर कि झूठा हलफनामा भारतीय दंड संहिता की किस धारा में आता है. अगर उन्होंने सचमुच हलफनामें में सच बोला है तो अपनी डिग्रियां व मार्क्सशीट सार्वजनिक क्यों नहीं करते?
यह भी इस लेख की चर्चा का विषय नहीं है. मोदी जी के राजनैतिक कौशल को कोई चुनौती नहीं दे सकता क्योंकि गोधरा के प्रायोजन से शुरूकर दिल्ली के तख्त की राजनैतिक यात्रा का वृतांत उसकी काट के रूप में मौजूद है. इस विवाद के जिक्र का यहां मकसद महज इस बात की ओर इंगित करना है कि इन्हें अपने ज्ञान की वैधता के लिए शैक्षणिक योग्यता का तथाकथित फर्जी बयान क्यों जरूरी लगा? क्या शिक्षा और “ज्ञान” के अंतःसंबध इतने गहन हैं? क्यों यह सरकार एक-एक कर उच्च-शिक्षा परिसरों को साम-दाम-भेद-दंड से खास रंग में रंगना चाहती है? क्यों सरकार तथा आरएसएस के सभी भोपू नारों से देशभक्ति और देशद्रोह परिभाषित करना चाहते है? इतिहास के इस अंधे मोड़ पर जब कॉरपोरेटी फासीवाद आक्रामक रूप से मुखर हो, इन सवालों पर विमर्श जरूरी हो गया है.
फेसबुक पर एक अमरीकी ने एक पोस्टर शेयर किया था, “ट्रंप को रोकना समाधान नहीं है; समाधान उस शिक्षा प्रणाली को खारिज करना है, जो इतने ट्रंप समर्थक पैदा करती है.”
देश में मोदी-भक्तों में उच्च-शिक्षितों की संख्या देखते हुए यही बात हमारी शिक्षा पद्धति पर भी लागू होती है. 2014 के चुनाव में दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों का बहुमत, विकासपुरुष के गुणगान कर रहा था. संस्थागत परिभाषा में प्रोफेसर सर्वोच्च ज्ञानी माना जाता है. जिससे भी पूछता था कि भाई, अपने आराध्य का एक गुण बता दीजिए जिसके चलते वे उन्हें देश का उद्धारक, दिव्य पुरुष लगते हैं? उनका वही जवाब होता था जो वास्तविक तथा फेसबुक जैसी आभासी दुनिया में बजरंगी लंपटों का. “16 मई को बताएंगे.”
मुझे तरस आता था सर्वोच्च शिक्षित इन प्रोफेसरों पर कि सामाजिक विश्लेषण में एक प्रोफेसर तथा बजरंगी लंपट में कोई फर्क नहीं है क्या?” इस तरह का पूर्वाग्रह-दुराग्रह तथा कुतर्क ज्ञान हो सकता है क्या? यदि नहीं तो क्या शिक्षा और ज्ञान में कोई समानुपातिक संबंध है?
ज्ञान तथा शिक्षा के अंतःसंबंधों के इतिहास पर दृष्टिपात के पहले आइए जरा कुछ सर्वोच्च शिक्षित समूहों पर एक उड़ती नज़र डालते हैं. अंधविश्वासों, धार्मिक पूर्वाग्रह-दुराग्रहों तथा सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मुहिम चलाने वाले डाभोलकर की हत्या का मुख्य आरोपी तवाड़े विशेषज्ञ डाक्टर है, जहालत से नफरत का मशीहा विहिप का नेता तोगड़िया भी डाक्टर है.
कुछ साल पहले देहरादून के आईआईटी से उच्च शिक्षा प्राप्त एक व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी की हत्या के बाद लाश को बोटी-बोटी करके रिफ्रीजरेटर में रख कर “वैज्ञानिक तरीके” किस्तों में ठिकाने लगाने की खबर छपी थी. इसी तरह की खबर दिल्ली में मुनिरका में रहने वाले एक अन्य आईआईटियन के बारे में छपी थी.
सर्वविदित है कि गुजरात के दर्जनों आईपीएस/आईएयस अपनी संवैधानिक भूमिका निभाने की बजाय अमानवीय जनसंहार की देख-रेख और मोदी सरकार के इशारों पर, मंत्रियों के निजी चाकरों की तरह मासूमों को फर्जी मुठभेड़ों में मार रहे थे.
य़े उदाहरण इस लिए दिया जा रहा है कि इन संस्थानों तथा सेवाओं में, माना जाता है कि देश की प्रतिभा की मलाई जाती है. जिस समाज की उच्चशिक्षित मलाई इतनी अमानवीय हो तो तलछट कैसा होगा, आसानी से समझा जा सकता है.
यदि ज्ञान का मतलब मानवीय परिप्रेक्ष्य में समाज की वैज्ञानिक समझ और उसकी भलाई से है तो उच्च शिक्षित अमानवीयता के अथाह सागर के चंद प्यालों की ये मिशालें शिक्षा और ज्ञान के बीच समानुपातिक संबंध के सिद्धांत को खारिज करते हैं.
ज्ञान का इतिहास शिक्षा के इतिहास से पुराना है. आदिम कुनबों तथा कबीलों में ज्ञानी माने जाने वाले ही कबीले का मुखिया, पुजारी या सेनापति होते थे. मानव जाति ने भाषा; आग; धातुविज्ञान; पशुपालन; विनिमय/विपणन तथा आत्मघाती युद्ध का ज्ञान किसी भी शिक्षा व्यवस्था के पहले ही हासिल कर लिया था. प्रकृति से अनवरत संवाद से अर्जित अनुभवों तथा प्रकृति के साथ प्रयोगों और उनपर चिंतन-मनन से मनुष्य अनवरत रूप से प्रकृति के तमाम उपहारों और और प्रक्रियाओं के बारे में ज्ञानाजर्न करता रहा है तथा इसके माध्यम से श्रम के साधनों का विकास. इसीलिए कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता बल्कि ज्ञान एत अनवरत प्रक्रिया है.
हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को समेकित कर उसे आगे बढ़ाती है. तकनीकी प्रगति के साथ उत्पादन शक्तियों का विकास आदिम सामुदायिक उत्पादन प्रणाली के बस की नहीं रही. भरण-पोषण से अतिरिक्त उत्पादन की अर्थव्यस्था ने निजी संपत्ति को जन्म दिया. कबीलाई ज़िंदगी के विखराव के दौर में, सामूहिक संपत्ति के बंटवारे में ज्ञानियों की चतुराई से सामाजिक असमान वर्ग-विभाजन में के बाद वर्चस्वशाली वर्गों ने वर्चस्व की वैधता के लिए ज्ञान को अपने वर्गहित में परिभाषित किया. ज्ञान की इस सीमित परिभाषा को ही अंतिम ज्ञान के रूप में समाज पर थोपने के मकसद से ज्ञान को शिक्षाजन्य बना देशकाल के अनुकूल शिक्षा प्रणालियों की शुरुआत की.
मार्क्स के उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि पूंजीवाद महज उपभोक्ता माल का ही नहीं, विचारों भी उत्पादन करता है. शासक वर्ग के विचारक, शासक विचारों को राज्य के वैचारिक उपकरणों से अंतिम सत्य बता युग के विचार के रूप में प्रतिष्ठित कर युग चेतना का निर्माण करते है. ये विचार प्रकारांतर से यथास्थिति को यथासंभव सर्वोचित तथा सर्वाधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था के रूप में स्थापित करते हैं.
इस तरह की मिथ्या चेतना का निर्माण जरूरी नहीं कि छल-कपट के भाव से किया जाता हो. प्रायः ये बुद्धिजीवी खुद को धोखा देते हैं, क्योंकि वे खुद मिथ्या को सच मानने लगते हैं.
तेजस विमान की सफलता के लिए सत्यनारायण की कथा कहने वालाव पुजारी जरूरी नहीं है कि जानबूझकर छल कर रहा है बल्कि ज्यादा संभावना है कि वह खुद को धोखे में रखता है.
ईश मिश्र


