झाड़ू की आत्मकथा
झाड़ू की आत्मकथा

हर्ष रंजन
मै एक झाड़ू हूँ। मेरा इस्तेमाल गंदगी साफ करने के लिये किया जाता है। मैं पूरे घर, सड़क, पार्क, हॉस्पिटल, ऑफिस समेत उन तमाम दूसरे जगहों की सफाई करता हूँ, जहाँ गंदगी होती है। जहाँ मेरा इस्तेमाल सुबह और शाम दोनों समय किया जाता है, वहाँ गंदगी कम होती है, लेकिन जहाँ मेरा इस्तेमाल पूरे दिन में एक ही बार किया जाता है, वहाँ गंदगी कुछ ज़्यादा होती है। सत्य यही है कि मैं इस्तेमाल की चीज़ हूँ। मेरा इस्तेमाल किया जाना ज़रूरी है, वरना मैं घर के किसी कोने में निरीह और अस्तित्वविहीन की तरह पड़ा रहता हूँ।
रोज़ सुबह एक हाथ मेरी ओर बढ़ता है, फिर वो अपने पँजे में मुझे जकड़ता है। उसके पँजे में सिर्फ पाँच उंगलिया हैं, मेरे पास दो दर्जन सींकचे हैं, लेकिन पँजा मुझे जकड़कर चारों तरफ नचाता है। मैं उससे नफरत करता हूँ। काम मैं करता हूँ, टूल में हूँ, लेकिन अच्छी सफाई के लिये तारीफ हमेशा उस पँजे की जाती है जो मुझे नचाता है। मेरे बिना पँजा सफाई नहीं कर सकता, वो तो सिर्फ गंदगी फैला सकता है। वो हाथ जब भी कुछ करता है, गंदगी फैल जाती है। मसलन, जब खाना बनाता और खाता है, काम करते हुए कागजों को फाड़ देता है इत्यादि-इत्यादि। फिर उसे मेरी याद आती है और मुझे जकड़कर सफाई से सम्बंधित अपना मतलब साधता है।
आजकल मैं जिस घर में हूँ वहाँ की आब-ओ-हवा काफी अच्छी है। पूरे घर में मैडम की ही चलती है। साहब यानि सर तो बस अपने काम में ही बिजी रहते हैं। एक बेटा और बेटी भी है। बेटी की शादी हो चुकी है और कभी-कभी अपने पति के साथ मिलने जुलने चली आती है। उसे मुझसे कोई खास मतलब नहीं। बेटे की पत्नी कहीं बाहर काम करती है और घर में कम ही आती है। मैं एक न इस्तेमाल होने वाली बॉलकॉनी में पड़ा टुकुर-टुकुर सब देखता रहता हूँ। सबेरा होने के पहले मैं सिहर जाता हूँ। काम वाली आयेगी और अपने पँजे में मुझे पकड़ेगी चारों तरफ नचाएगी। लेकिन खुशी इस बात से होती है कि इन कामवालियों को मैडम नचाती हैं। कोई भी दो महीने से ज़्यादा टिक नहीं पाती। हर दूसरे महीने एक नई काम वाली। एक काम वाली के जाने और नई कामवाली के आने में कई बार दो-चार दिन के वक्त का फासला हो जाता है। इन दो-चार दिनों में मुझे मैडम ही अपने पँजे में जकड़ती हैं। ये दो-चार दिन मुझ पर बहुत भारी गुज़रते हैं।
मैडम बहुत ही सख्त सफाई पसन्द हैं। वो हर कोने में मुझे घुमाती हैं। खड़े हो कर चलाने की बजाय तसल्ली से 180 डिग्री के कोण पर मेरा इस्तेमाल करती हैं। मैं सबसे ज़्यादा मैडम के हाथों ही घिसता हूँ। घिसते-घिसते मेरा आकार छोटा हो गया है, लेकिन उत्साह में कोई कमी नहीं है। फिर मैडम बाज़ार से एक नया झाड़ू खरीद लाती हैं। बाज़ार में कई तरह के झाड़ू बिकते हैं, लेकिन मेरी बात कुछ अलग है। मैं जल्दी घिसने वाला नहीं हूँ और न ही मुझे कोई थका सकता है।
दरअसल मेरी मैडम आजकल खुद ही थकी हुयी लगती हैं। गिरेबान पर उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ी है। कई बार सफाई के लिये वो अब अपने लाडले को आदेश देती हैं। लाड़ले के लिये पहले मैं अछूत था, लेकिन पिछली दफा मजबूरी में उसे अपने पँजे में मुझे थामना पड़ा। बस उसने एक गलती कर दी। अनुभव न होने की वजह से मुझे मेरी जड़ के बजाय फुनगी से पकड़ लिया। फिर सफाई हो भी तो कैसे.. मैं उसे समझाना चाह रहा था कि छोरे, मेरी छोर तो बदल लो...लेकिन उसने मेरी एक न मानी। जब सफाई हुयी नहीं तो मैडम ने उसे बहुत डाँट पिलाई। उसने गलती स्वीकार की और कहने लगा कि झाड़ू लगाने की ट्रेनिंग (Sweep training) लेगा।
अब उसे ये ट्रेनिंग कौन देगा...और इस ट्रेनिंग के दौरान मुझे क्या-क्या सहना होगा, यही सोच कर मेरा जी घबरा रहा है। मेरे कई दोस्त हैं जैसे - काक्रोच, छिपकिली, टूटे हुये बाल, धूल आदि। मगर अब सब अपने-अपने काम में जी लगा रहे हैं। कोई बेगारी नहीं कर रहा है। मुझे खुशी है कि मैंने सबको अपने-अपने कामों में लगा दिया है। मगर मेरा होगा.. यही सोच कर जी घबरा रहा है।
क्या आप मेरी कुछ मदद कर पायेंगे......


