टुकड़ों का सच झूठ ही होता है - आपातकाल की हकीकत
टुकड़ों का सच झूठ ही होता है - आपातकाल की हकीकत
आज केंद्र सरकार की कार्य पद्धति को जो लोग आपातकाल सा बता रहे हैं, वह गलत शब्द चयन है। यह आपातकाल नहीं बल्कि फासीवादी अधिनायकवाद की ओर क्रमबद्ध बढ़ना है। आपातकाल की व्यवस्था संविधान प्रदत्त है पर इस समय जो हो रहा है वह नयी राजनीतिक परिघटना है।
आपातकाल।
बात उतनी आसान भी नहीं, जितनी टीवी चैनल वाले और कुछ लोग बता रहे हैं?
टुकड़ों का सच झूठ ही होता है।
आपातकाल की हकीकत।
सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि श्रीमती इंदिरा गांधी का आपातकाल लगाने का निर्णय देश में अपनी तानाशाही स्थापित करने का नहीं था। यह उनके द्वारा तत्कालीन जेपी मूवमेंट से उपजी असाधारण परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए भारतीय संविधान में प्रदत्त एक व्यवस्था के तहत घोषित और अस्थायी रूप से लगाया गया था। उनके द्वारा यह आपातकाल जल्दी ही हटा लिया गया, जबकि इसे हटाने के लिए उन पर कोई राजनीतिक दबाव नहीं था। यदि वास्तव में इंदिरा गांधी ने तानाशाह बनने के लिए इसे लगाया होता, तो अपने आप हटाती क्यों? दुनिया में कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी तानाशाह ने स्वतः आसानी से ऐसा किया हो। इसलिए जो लोग आपातकाल को इंदिरा गांधी को तानाशाह बनने की इच्छा के परिणाम के तौर पर देखते हैं, वो इसकी गलत एकांगी व अनैतिहासिक व्याख्या करते हैं।
हमें इस परिघटना को समझने के लिए जय प्रकाश नारायण (जेपी) के बारे में भी कुछ कहने की जरूरत है। जेपी का अंग्रेजों के खिलाफ कांग्रेस के नेतृत्व में चलाए गए आज़ादी की लड़ाई में बहुत बड़ा योगदान रहा। खासकर समाजवादी धड़े के वह उस समय बहुत बड़े स्तंम्भ थे। 1942 के आंदोलन में वह अपने जुझारू कार्यों से बहुत लोकप्रिय हुए। उस समय के सभी बड़े व महान नेताओं की तरह जेपी भी गांधी जी के अनुयायी थे। गांधी-नेहरू के साथ उनके निजी रिश्ते थे। आजादी के बाद जेपी विनोबा के साथ भू दान आंदोलन से जुड़े और बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। देश समाज पर जेपी के नाम और व्यक्तित्व का बड़ा गहरा असर था, जो सच ही उन्होंने त्याग और बलिदान से बनाया था।
लेकिन.......
जेपी की राजनितिक नेता के रूप में समझ हमेशा एक vague imagination के इर्द गिर्द ही घूमती रही। राजनीतिक परिस्थितियों का एक राजनेता की दृष्टि से आकलन और तदनुसार ठोस व दूरगामी उचित राजनीतिक निर्णय ले सकना उनके सोच व व्यक्तित्त्व की असली शक्ति न थे। वह काफी भावुक इंसान थे और उनके राजनीतिक निर्णय बहुधा ठोस हकीकत के बजाय भावुकता मात्र व भावनात्मक कारणों से ही ले लिए जाते थे। जेपी मूवमेंट का पूरा संचालन और जनता को उत्तेजना में पहुंचाने के लिए दिए गए भाषण और आव्हान इस बात के प्रमाण हैं।
कांग्रेस देश में आज़ादी की लड़ाई का एकमात्र राष्ट्रीय मंच थी, जिसका देश भर में संगठन था और वो लोकतांत्रिक परिधि के भीतर कार्य करती थी। उस समय उपनिवेशवाद विरोध एक मूलभूत राजनीतिक चेतना थी और तमाम विचारधाराएँ एक साथ कांग्रेस के मंच से काम करती थीं। समाजवादी विचारधारा भी उनमें से एक थी और सामाजिक आर्थिक बदलावों को आगे बढ़ाने वाला सबसे महत्वपूर्ण घटक में से थी। आजादी तक तो ये धारा गांधी जी के नेतृत्व तले कांग्रेस के साथ एक जुट रही, लेकिन आज़ादी के बाद यह एक जुटता कायम न रही। (यह अलग विषय है और इस पर फिर कभी)।
आजादी के बाद समाजवादियों का बड़ा समूह कांग्रेस से अलग हो गया या यूँ कह लें कि कांग्रेस उन्हें अपने साथ न रख सकी। इन समाजवादियो में राम मनोहर लोहिया सबसे प्रभावशाली बनकर उभरे। उनके नेतृत्व में कांग्रेस का धुर विरोध मुख्य कार्यभार हो गया और कांग्रेस को ही सारी बुराइयो की जड़ मानकर किसी भी प्रकार कांग्रेस को नेस्तनाबूद कर दिया जाए, यह राजनीति का मूल प्रेरक तत्व बन गया। फिर भी हम यह न भूलें कि यह सभी नेता उच्च चरित्र वाले थे और निश्चित ही समाज बदलाव की ऊँची भावना से संचालित थे और जनता के बीच उनका बहुत असर भी था।
आजादी के बाद कांग्रेस में बहुत सी बुराइयाँ घुस चुकी थीं और उसका संगठन व पार्टी धीरे- धीरे अक्षम सत्ता पसंद और अवसरवादी तत्वों से घिरने लगा था। कांग्रेस की साख देश वासियों पर घटने लगी थी। लेकिन तब भी कांग्रेस अपने विरोधियो पर चुनाव में और वैसे भी भारी ही पड़ती थी। यह बात कांग्रेस के विरोधी धीरे-धीरे समझने भी लगे कि कांग्रेस को हटाने के लिए हमें गठजोड़ों की राजनीति में उतरना ही पड़ेगा। 1967 में यह प्रयोग किया गया और काफी सफल भी रहा।
इसी क्रम में यह बताना जरूरी है की इस देश में साम्प्रदायिक दल और विचारधारा भी लंबे समय से सक्रिय थे, लेकिन ये कभी भी न तो जनता जनार्दन में और न ही अन्य विचारधारा के लोगों- दलों में कोई सम्मानपूर्ण जगह बना सके थे। इनकी सोच में साम्प्रदायिक घृणा थी और इसीलिये इनसे समाजवादी गांधीवादी व दूसरे सार्थक चेतना संपन्न लोग व दल दूर रहते थे। गांधीजी की हत्या एक ऐसा पाप था, जिससे ये आज भी उबर न सके हैं। लेकिन एक बात इनमें भी थी कि ये धुर कांग्रेस विरोधी थे और कांग्रेस अंत के लिए कुछ भी कर सकते थे। इनकी यह सोच इन्हें कुछ अर्थों में दूसरे दलों के संपर्क में लाई। लोहिया जी आदि दूसरे नेता इनकी साम्प्रदायिक सोच से कोसो दूर थे, परंतु सारी बातें समझते हुए भी इनको गठजोड़ से जुड़ने का अवसर दिया। (यह ऐतिहासिक भूल रही, हालांकि कांग्रेस भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं)
तो 1974 आते आते यह सभी दल कांग्रेस के विरुद्ध एक जुट होने लगे थे। यद्यपि साम्प्रदायिक दल और संगठन अभी भी प्रायः अछूत ही थे परंतु अब दूरियाँ कम भी होने लगी थीं।
उस समय देश तमाम गंभीर आर्थिक सामजिक समस्या से जूझ रहा था। महंगाई-बेरोजगारी भ्रष्टाचार के कुछ प्रसंग और अन्य कारणों से मानसिक अशांति और उद्वेलन का दौर था। गुजरात और दूसरे जगहों से छात्रों-युवाओं के आंदोलन शुरू होने लगे और जल्दी ही कमान जेपी ने सभाल ली। वो जेपी, जो राजनीति को एक गन्दी चीज़ समझते रहे थे, पूरी तरह से राजनीतिक नेता के रूप में सामने आ गए। चूँकि जेपी बहुत बड़ी शख्सियत थे, इसलिए जल्द ही आंदोलन को एक सम्मानीय चेहरा मिल गया।
लेकिन जेपी के पास अपना कोई संगठन न था और जेपी इस आंदोलन के जरिये देश की सच में तस्वीर बदलना चाहते थे, इसलिये उन्होंने बहुत सी बातों में अपनी खुद की सोच से समझौते किये और तमाम तरह के लोगों दलों को न केवल आंदोलन का हिस्सा बनने की अनुमति दी बल्कि उनका समर्थन सहयोग भी लिया। उन्होंने आरएसएस को आंदोलन में शामिल होने और हर तरह से खुली छूट दी। आरएसएस जनसंघ तो इसी फिराक में था। धीरे-धीरे आधारभूत स्तरों पर यह आंदोलन बुरी तरह से आरएसएस गिरोह के शिकंजे में आ गया। घोर गैर जिम्मेदारी पूर्ण बातें और अराजकता का माहौल पूरे देश में फैलने लगा। सच तो यह है कि अपने अंतिम दौर में हर असंगत जन आंदोलन की भाँति जेपी आंदोलन भी बिना सुस्पष्ट दृष्टि के अभाव में मात्र नकारवादी सोच और अवांछित तत्वों की राजनीति में प्रवेश की कुंजी सा होकर रह गया था।
अब सवाल यह की इंदिरा गांधी ने जेपी आंदोलन को कुचलने के लिए जो आपातकाल लगाया वो क्या सही कदम था?
कतई नहीं। बिपन चंद्र (इस लेख में उनकी अन्तर्दृष्टियों का उपयोग किया गया है) ने अपनी किताब in the name of democracy jp Movement and emergency में स्पष्ट लिखा है कि इंदिरा गांधी के पास लोक सभा भंग कर चुनाव में उतरने का विकल्प मौजूद था। साथ ही उन्होंने जेपी की भी यह गलती मानी कि उन्हें भी अपनी ताकत की जोर आजमाइश के लिए तुरंत लोकसभा भंग कर चुनाव की मांग रखनी चाहिए थी।
अंत में, निश्चित ही वह समय भारतीय राजनीति का एक बुरा दुःस्वप्न था, जिसमें हमारे समय के नेताओं ने दूरदृष्टि से न तो सोचा और न कार्य किया। जिन सांप्रदायिक तत्वों को जेपी आंदोलन और आपातकाल के कारण भारतीय राजनीति में प्रतिष्ठा मिली, वही आज देश के कर्णधार बने बैठे हैं।
आलोक वाजपेयी


