वह भी क्या दिन होते थे । तब विकास का मतलब होता था कि गांव में चिट्ठी पहुंच जाती थी । चिट्ठी तो चिट्ठी तार भी पहुंच जाता था । तार ही नहीं
मनीआर्डर भी पहुंचता था । कितना महान वाक्य होता था किसी खत मे कि चिट्ठी को तार समझना । पत्र की एक भाषा होती थी । कुछ इस प्रकार की । जैसे आज प्रणव बाबू ने कहा कि प्रधानमंत्री को लोकलेखा समिति में हाजिर होने की बात नहीं करनी चाहिए थी । हमसे राय मशविरा करते तो हम कहते कि आप संसद के प्रति जिम्मेदार हो । संसद के किसी कुछ खट्टा मीठा हो जाए टाइप समिति के लिए । इससे यह भी साबित हो जाता है कि प्रधानमंत्री अपने सहयोगियो से सलाह मशविरा नहीं करते । मान लीजिए कि चिट्ठी वाला जमाना होता और प्रणव बाबू को अपने से वरिष्ठ मान कर प्रधानमंत्री पत्र लिखते – तो कैसे लिखते !
‘परम श्रेष्ठ प्रणव बाबू , सादर प्रणाम !

परमपिता परमेश्वर की असीम कृपा से अपनी सरकार ,

सरकार में सम्मलित सहयोगी दलों और मंत्रिमंडल के मंत्रियों समेत प्रसन्नता पूर्वक रहते हुए ईश्वर से प्रतिदिन आपकी कुशलता की प्रार्थना करता रहता हूं । आगे शुभ समाचार यह है कि समस्त जन मेरे भोलेपन पर मुझसे अप्रसन्न हैं । यह तो आपको ज्ञात ही होगा कि मेरी सत्ता संचालन की सफलता और कुशलता का रहस्य श्रीमान ही हैं । श्री मान की भी मुझ पर असीम कृपा रही है । अतएव श्रीमान से सविनय निवेदन है कि अपनी कृपा को बनाए रखें । हमें यदि ज्ञात होता कि श्रीमन मेरे भोलेपन से अप्रसन्न हो जाएंगे तो अपने स्थान पर श्रीमान को ही लोकलेखा समिति के समक्ष भेजता ।
अपनी अज्ञानता पर श्रीमन से क्षमा मांगते हुए आशा रखता हूं कि श्रीमन इस संकट से उबारने में हमारी सहायता करने की कृपा करंगे ।

सादर ,

आपका

मनमोहन
‘पुराने जमाने में दिल्ली से कोलकाता चिट्ठी दूसरे दिन ही पहुंच जाती । 21 वीं सदी में कभी नहीं पहुंचती । पहुंच भी जाती तो प्रणव बाबू तब तक
कोलकाता से दिल्ली आ चुके होते । पुराने जमाने में प्रेस को यह चिट्ठी प्रणव बाबू का लटक लाल प्रेस को गुपचुप बताता । हम जैसा बेमतलब बात को
मतलब वाला बनाने वाला कंप्यूटरची लिखता कि प्रणव बाबू के इस बयान का असली मतलब है कि असली प्रधानमंत्री सोनिया गांधी चरणपादुका प्रधानमंत्री से अप्रसन्न हैं । दूसरा राडिया टाइप मतलबी यह भी साबित कर देता कि प्रणव बाबू ने बोल कर अपनी वरिष्ठता जता दी है । वैसे भी आप अब प्रणव बाबू का क्या उखाड़ लोगे । प्रधानमंत्री छोड़ कर सब कुछ बन चुके हैं । तब मतलबी का कालम कुछ बाते बेमतलब नहीं ‘डाकिया डाक लाया ‘ भी हो सकता था ।
यूं कहें तो देश का सबसे बड़ा डाकिया डाक भी लाया है । यह डाकिया हैं कपिल सिब्बल । कमाल के आदमी हैं । बढ़िया वकील हैं । बिहार से भी राज्य
सभा के सदस्य रह चुके हैं । वैसे भी राजनीति वकीलों की ही धरोहर है । गांधी से नेहरु तक सब वकालत पढ़ चुके थे । वकील बड़ा समझदार होता है ।
नहीं भी होता है तो मानव संसाधन मंत्री बनने के बाद हो जाता है । जैसे बिहार के मानव संसाधन मंत्री प्रशांत कुमार शाही । तो आजकल सिब्बल साहब बड़ा डाकिया भी हैं । डाकघर को मोबाइल बनाने चले हैं कि आप मोबाइल का हेराफेरी भूल सकें । कलेंडर के नए साल में बड़ा डाकिया ने यही एक अच्छा काम किया है कि 1999 की टेलीकॉम नीति बदलेंगे । लेकिन वकील साहब 1860 का या उसी के कुछ साल बाद का टेलीग्राफ एक्ट कब बदलेगा । बहरहाल , बड़ा डाकिया एक डाक तो लाया है ।