0 प्रकाश कारात
संसद का शीतकालीन सत्र दो दिन की विशेष बैठक के साथ शुरू हो रहा है। यह आयोजन डा0 आंबेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर और 26 नवंबर 1949 को संविधान का मसौदा स्वीकार किए जाने की सालगिरह पर किया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि सामाजिक समता के झंडाबरदार और भारतीय संविधान के मुख्य निर्माताओं में से एक, डा0 आंबेडकर की विरासत को बार-बार याद किया जाना चाहिए। लेकिन, असली सवाल यह है कि हम इस विरासत को कैसे याद करते हैं?
सी पी आइ (एम) की 21 वीं कांग्रेस ने डा0 आंबेडकर की 125 वीं जयंती के पालन पर अपने प्रस्ताव में संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की थी, जिसमें भारत में अनुसूचित जातियों के दर्जे से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की जाए। ऐसे सत्र में देश में दलितों के मौजूदा हालात का गहराई से अध्ययन किया जा सकता था और उनकी कुछ समस्याओं को दूर करने के लिए ठोस कदम भी अपनाए जा सकते थे। सामाजिक समता तथा न्याय का एलान करने वाले हमारे संविधान की घोषणा के 65 साल बाद भी, जैसाकि सभी जानते हैं, हमारे समाज के दलितों को तरह-तरह के रूपों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। छुआछूत अब भी बड़े पैमाने पर चलन में है। कितने ही स्कूलों में दलितों के बच्चों को अलग रखा जाता है। जोधपुर के एक सरकारी स्कूल में एक बारह वर्षीय बच्चे को स्कूल मास्टर सिर्फ इसलिए बुरी तरह से पीट देता है कि उसने सवर्ण छात्रों के लिए रखी गयी थालियों को छू दिया था। उधर कर्नाटक में कोलार जिले में एक स्कूल में दलित रसोइए के तैयार किए दोपहर के भोजन का सवर्ण बच्चे बहिष्कार कर देते हैं। ये इसकी दो झलकियां भर हैं कि किस तरह व्यापक पैमाने पर छुआछूत तथा भेदभाव का पालन किया जा रहा है। दलित जब भी अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाते हैं, उन्हें अत्याचारों का निशाना बनाया जाता है। फरीदाबाद जिले में हाल ही में दो बच्चों को जिंदा जलाए जाने की घटना, ऐसे अत्याचारों की ताजातरीन मिसाल है।
ग्रामीण भारत में दलितों में बहुत बड़ी संख्या भूमिहीन मजदूरों की है, जिनके पास कोई उत्पादक परिसंपत्तियां ही नहीं हैं। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित पदों पर भरे जाने के लिए विशाल बैकलॉग बना हुआ है। बढ़ता निजीकरण, दलितों के लिए रोजगार तथा शिक्षा में आरक्षण को निरर्थक बनाए दे रहा है। अनुसूचित जाति तथा जनजाति अत्याचार निवारण कानून या मैनुअल स्कैवेंजर एक्ट जैसे कानून अगर बनाए भी गए हैं, तो उन्हें सही ढंग से लागू नहीं किया जा रहा है। अनुसूचित जातियों/ जनजातियों के विकास के लिए रखे जाने वाले फंड का बड़ा हिस्सा, दूसरे कामों की ओर मोड़ दिया जाता है।
संसद के विशेष सत्र में इन मुद्दों पर चर्चा हो सकती थी और यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते थे कि दलितों को अपने

मौलिक अधिकार मिलें और शिक्षा, रोजगार, भूमि, स्वास्थ्य तथा अन्य बुनियादी सुविधाओं तक, उनकी पहुंच हो।
बहरहाल, भाजपा की सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दो दिन ही डा0 आंबेडकर की जयंती मनाने के लिए रखे हैं। इन हालात में सरकार को कम से कम कुछ ठोस विधायी एजेंडा पेश करना चाहिए था, जिससे समता तथा सामाजिक न्याय की डा0 आंबेडकर की संकल्पना को आगे बढ़ाने में मदद मिलती। शुरूआत के तौर पर तीन महत्वपूर्ण विधेयक तो लाए ही जा सकते थे। इनमें पहला है, निजी क्षेत्र में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए आरक्षण का विधेयक। यह यूपीए सरकार के समय का अधूरा एजेंडा है, जिसे वह आगे बढ़ाने में विफल रही थी। रोजगार तथा शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था तभी कारगर हो सकती है, जब निजी क्षेत्र तक इसका विस्तार किया जाए। दूसरा विधेयक, अनुसूचित जाति तथा जनजाति (अत्याचार निवारण) विधेयक-2015 है, जो मौजूदा कानून को और मजबूत करता है। यह विधेयक, जो लोकसभा द्वारा पारित किए जाने के बाद से राज्यसभा में विचाराधीन पड़ा हुआ है, फौरन अनुमोदित किया जा सकता है। तीसरा विधेयक, अनूसूचित जाति/ जनजाति उपयोजना को वैधानिक दर्जा दिलाने का हो सकता है। इन उपयोजनाओं के फंड को दूसरे कामों की ओर मोड़े जाने से बचाना है, तो उपयोजना के फंड आवंटन के लिए इस तरह का वैधानिक दर्जा सुनिश्चित करना जरूरी है।
अगर सरकार ने जाति के आधार पर दलितों के साथ जारी अन्यायों तथा उसके साथ हो रहे नाबराबरी के बर्ताव पर कोई रिपोर्ट पेश की होती और इन शर्मनाक हालात को बदलने के लिए कोई चौतरफा मार्गचित्र पेश किया होता, तब तो फिर भी संसद की इस दो दिनी बैठक को उल्लेखनीय तथा सार्थक बनाया जा सकता था। लेकिन, भाजपा की केंद्र सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है और इस तरह उसने संसद की दो दिनी बैठक को कोरी श्रद्घांजलि तक सीमित कर दिया है। होगा यह कि अच्छे-अच्छे भाषण होंगे तथा डा0 अंबेडकर का कोरा नामस्मरण होगा, जिसका ठोस हासिल कुछ भी नहीं होगा। 0