शेष नारायण सिंह
डॉ. भीमराव आंबेडकर के 125 साल का जश्न सरकारी तौर पर भी मनाया जा रहा है। संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में उनकी उपलब्धियों और उनके जीवन को प्रमुखता से सरकारी चर्चा में रखा जा रहा है। डॉ आंबेडकर का संविधान सभा में किया गया काम एक ऐसा काम है जिसको उन्होंने कर्त्तव्य समझ कर किया। 26 नवम्बर 1949 के अपने भाषण में उन्होंने साफ़ कहा था कि उन्होंने सोचा था कि संविधान सभा में वे अनुसूचित जातियों के हितों के रक्षक के रूप में शामिल होंगे और जब भी भारत का संविधान तैयार होगा तो उसमें इन जातियों के लोगों की अनदेखी नहीं की जायेगी। उनको जब ड्राफ्टिंग कमेटी में चुना गया तो उनको खुशी हुयी, लेकिन जब उन्हें ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया तो उन्हें बहुत खुशी हुयी। हालांकि आम तौर पर डॉ. आंबेडकर को संविधान निर्माता के रूप में ही याद किया जाता है, लेकिन हम जानते हैं कि यह काम उनको इसलिए दिया गया कि पूरी दुनिया उनको एक महान समाजशास्त्री और एक राजनीतिक दार्शनिक के रूप में स्वीकार कर चुकी थी।
डॉ. आंबेडकर के दर्शन का निचोड़ उनकी किताब aniihilation of caste में समाहित है। जाति संस्था के बारे में उनके दृष्टिकोण सभ्यता के इतिहास के किसी भी मुकाम पर सामाजिक परिवर्तन का बीजक भी हैं और दस्तावेज़ भी हैं। हम जानते हैं कि सरकारी रूप से बाबा साहेब के बारे में जो कुछ भी सम्मान आदि किया जाता है उसमें उनकी विरासत के कारण मिलने वाले वोटों को ध्यान में रखा जाता है।
तकलीफ की बात यह है कि डॉ. आंबेडकर के विशाल व्यक्तित्व को संविधान के निर्माता के रूप में ही सीमित करने की कोशिश की जाती है। यह ठीक नहीं है। उनको भारत में दलित वर्गों को न्याय दिलाने वाले सिद्धांतों के दार्शनिक के रूप में देखा जाना चाहिए। हमको और समाज को हमेशा याद रखना चाहिए कि उनकी दार्शनिक पद्धति जाति के विनाश की बुनियादी अवधारणा पर आधारित है।
डॉ. आंबेडकर को विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब, The Annihilation of caste, ने हर तरह की राजनीतिक सोच को प्रभावित किया है। आज सभी दल डॉ. आंबेडकर का नाम लेती हैं, लेकिन उनकी बुनियादी सोच से बहुत बड़ी संख्या में लोग अनभिज्ञ हैं।
सच्चाई यह है कि पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें डॉ. आंबेडकर किताब The Annihilation of caste का बड़ा योगदान है। यह काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था। उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा। डॉ. आंबेडकर ने महात्मा ज्योतिराव फुले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरुमन्त्र दिया जो सही मायनों में परिवर्तन का वाहक बनेगा। डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया।
The Annihilation of caste में डॉ आंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन और सामाजिक व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। ऐसी स्थिति में जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो आंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। उनके जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन उत्तर प्रदेश में पिछले बीस वर्षों से सरकार में डॉ आंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों का दबदबा रहता रहा है। कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए डॉ. आंबेडकर का सहारा लिया था और सत्ता के केंद्र तक पहुंचे थे।
इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि आंबेडकर के नाम पर सत्ता तक पहुंचने वाली मायावती सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत," जाति के विनाश ” लागू करने या आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाया?
उनकी किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला। लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला था। जब डॉक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता काफी बहस मुबाहिसे और सवाल जवाब के बाद इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने को तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। डॉ. आंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है। इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डॉ आंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डॉक्टर आंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था, वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।
इस पुस्तक में डॉ आंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
आंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते, इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा। लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी।
डॉ आंबेडकर का पहला महत्वपूर्ण लेखन जो इतिहास को मालूम है, वह 9 मई 1917 को कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ा गया उनका वह पर्चा है जिसमें उन्होंने दुनिया को समझाया था कि भारत में एक जाति संस्था है जो कि किसी तरह के मानवीय विकास, इन्साफ और कराबरी के दर्शन को नकार देती है। एक स्कूल टीचर की तरह उन्होंने इस बात को दुनिया को समझाया था।
हमारे नेताओं ने प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा। लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे। उनके इस शोधपत्र, Caste in India: Their Mechanism, Genesis, and Development, के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगे, तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगे। डा. आंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले। उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढ़ियां दर पीढ़ियां उसको मानती रहेंगीं। उन्होंने कहा कि, " इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की, क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं थी। मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी। मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया। जहां तक हिन्दू समाज के स्वरूप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई। उनका योगदान बस इतना ही है कि उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता। इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की। मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते।"
हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते। बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता। उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता।
डॉ भीमराव आंबेडकर के नाम पर वोटों की राजनीति में शामिल राजनेताओं को उनकी दार्शनिक सोच का आईना दिखाने का यह एक बेहतर समय है। उनके 125 साल शासक वर्गों की हर पार्टी को एक अवसर के रूप में दिख रहे हैं, लेकिन मुख्य बातों से ध्यान नहीं हटना चाहिए।