खतरनाक है मीडिया ट्रायल की प्रवृत्ति और सुर मिलाती समाज की मानसिकता

बीता साल कई मामलों में पीछे के कई सालों से अलग रहा। उसने जहां कुछ अच्छे बदलाव का संकेत दिया, वहीं कुछ चिन्ता की लकीरें भी खींचीं। 2012 के 16 दिसम्बर की गैंगरेप वाली घटना के बाद देश भर में जो जनाक्रोश फूटा था, उसने पूरे समाज पर असर डाला। एक तरफ यौन हिंसा की पीड़िताओं ने शिकायत दर्ज कराने में भरोसा किया, कई सारे ऐसे मामले सामने आए जबकि अत्याचारी समाज में प्रभावशाली ओहदे पर था तो दूसरी तरफ समाज में विभिन्न स्तरों पर, गली मोहल्लों से लेकर युनिवर्सिटी, स्कूल, कालेज तक में सुरक्षित वातावरण को लेकर विमर्श चल पड़ा। इन विमर्शों का हो सकता है कि तुरन्त असर न दिखे लेकिन वह लोगों की मानसिकता तैयार करने में भूमिका निभाएगा, तीसरे इन सरगर्मियों ने लम्बे अर्से से लटके कानूनों या उनमें अपेक्षित सुधारों को एक हद तक सम्भव बनाया।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश गांगुली और प्रख्यात पत्रकार तेजपाल वाले मसले ने इस बात पर नए सिरे से रौशनी डाली कि कैसे बड़े-बड़े संस्थानों में भी यौन हिंसा के खिलाफ कमेटियों का गठन नहीं किया गया है और इस रूप में निहायत गैरजिम्मेदाराना व्यवहार देखा गया। इसी के साथ अपने ऊपर बलात्कार का आरोप लगने के बाद सामाजिक कार्यकर्ता खुर्शीद अनवर की आत्महत्या ने पूरे मीडिया ट्रायल की प्रवृत्ति को बेपर्द किया तथा कोई लड़ाई कितने विद्रूप तथा विकृत ढंग से लड़ी जा सकती है इसका नमूना भी देखने को मिला।

ज्ञात हो कि एक दूसरी संस्था में काम करने वाली लड़की ने राष्ट्रीय महिला आयोग में इसकी शिकायत की थी, मामला बीते सितम्बर का बताया गया है।

महिला आयोग के कहने पर बसन्त कुंज थाने में शिकायत दर्ज हुई। पुलिस का कहना है कि वह लड़की से पूछताछ के बाद ही कार्रवाई करती और अगर लड़की शिकायत दर्ज नहीं करती तो केस खारिज हो जाता। मामले के तकनीकी पक्ष की छानबीन करना पुलिस का काम है। लेकिन सबसे अहम बात है कि आखिर खुर्शीद को यह भरोसा क्यों नहीं हुआ कि वह कानून के समक्ष अपनी सफाई पेश कर सकें या अपना पक्ष रख सकेंगे ? खुर्शीद को जिन्दगी की कीमत पता थी और वह आवेश में आत्महत्या करने वाले कोई किशोरवय मानसिकता के इन्सान नहीं थे। गम्भीर मुददा यह है कि मीडिया में जिस तरह इस मसले को लेकर छीछालेदर शुरू हुई , उसमें कोई भी सुनवाई करना सम्भव नहीं था।

खुर्शीद के मित्रों ने- जो इस मामले से परिचित थे- बताया कि वह बार-बार कहते रहे कि केस दायर करो, मामला कोर्ट जाएगा तो मैं अपनी सफाई पेश करूंगा। लेकिन सभी को पता है कि कैसे टी वी चैनल से लेकर सोशल मीडिया तक में मुहिम चली और सार्वजनिक दायरे में बातें ऐसी छायीं कि उनका सामना कोई क्या करता ?

यदि खुर्शीद दोषी थे तो भी क्या उसे पलट कर यह नहीं सोचना चाहिए कि किसी को न्याय दिलाने की लड़ाई ऐसे ही लड़ी जाती है ? क्या आने वाले दिनों में भीड़- फिर वह चाहे सोशल मीडिया में नमूदार हों या वह टीआरपी रेटिंग की चाहत में मामलों को सनसनीखेज बना कर तैयार की जाती हो- ही' फैसला सुनाया करेगी।

टीआरपी रेटिंग बढ़ाने की खातिर मीडिया द्वारा किस तरह चीजों को हाइप किया जाता है या सरासर झूठे मामलों को 'सच्ची घटना के तौर पर पेश किया जाता है, इस प्रवृत्ति से हम परिचित हैं। याद करें कुछ साल पहले की वह घटना जब नए शुरू हुए एक चैनल ने दिल्ली के दरियागंज इलाके के एक स्कूल की अध्यापिका के खिलाफ अनर्गल आरोप लगाने वाली स्टोरी चलायी और देखते ही देखते सैकड़ों की तादाद में इलाके के अभिभावकों ने स्कूल को घेर लिया, यहां तक कि कइयों ने अन्दर घुस कर अध्यापिका के साथ मारपीट की और उसके कपड़े भी फाड़े थे। गनीमत थी कि मौके पर पहुंची पुलिस के कारण वह बच गयी। बाद में पता चला कि वह स्टोरी पूरी तरह फर्जी थी। अब अगर बाद में पता भी चले कि व्यक्ति निर्दोष है तो वह हर किसी को जाकर सफाई तो नहीं दे सकता और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा तो धूमिल हो ही जाती है। इसी तरह वाराणसी से कुछ साल पहले ख़बर आयी थी कि किस तरह अनशन पर बैठे दुकानदारों को उकसा कर स्थानीय पत्रकारों ने 'आत्मदाह के लिए प्रेरित किया, उन्हें यह 'समझाया गया था कि जब तक कोई कड़ी कार्रवाई वह नहीं करते हैं तब तक प्रशासन सुनवाई नहीं करेगा साथ में ही उन्हें बचा लेने का आश्वासन भी दिया गया था। आत्मदाह में उन लोगों की हुई मौत महज एक घटना बन कर रह गयी, कोई सुनवाई नहीं हुई।

फिर तो कानून की किताबों, संविधान या उसमें लिखी बातों के क्या मायने रह जाते हैं ?

सभ्य समाजों में अगर कोई व्यक्ति हत्या करता है तो भी उसकी सुनवाई होती है, गवाह पेश होते हैं, अभियुक्त को वकील मिलता है और पूरी बहस के बाद, सबूतों-गवाहों की प्रस्तुति के बाद न्यायाधीश अपना फैसला सुनाते हैं। खुर्शीद वाले मामले में- जहां एक हिस्से को लग रहा है कि कोई मामला ही नहीं था- वहीं दूसरे हिस्से में वहां माहौल ऐसे बनाया गया कि आरोप भी मीडिया ने ही लगाए और सज़ा भी उसी ने सुना दी।

खुर्शीद अनवर क्या थे, उनकी पहचान क्या थी, आदि अलग बात है। निश्चित तौर पर वह हिन्दू और इस्लामिक दोनों ही प्रकार की साम्प्रदायिकता पर प्रहार करनेवाले धर्मनिरपेक्ष तथा नास्तिक इन्सान थे। प्रगतिशील आन्दोलन से अपनी युवावस्था से ताल्लुक रखनेवाले खुर्शीद बेबाकी से उन बातों पर बोलते थे, हिन्दुत्ववादियों से लेकर वहाबियों के खिलाफ उतनी ही तीव्रता से कलम उठाते थे। लेकिन यह इस बात की गारंटी नहीं हो सकती कि वे कुछ गलत व्यवहार नहीं करेंगे।

सोचने की बात यह है कि किसी भी प्रकार की अनहोनी हो जाए, अपराध हो जाए तो उससे लड़ने का तरीका क्या होगा ? कैसी प्रक्रियायें चलें और कैसे सुनिशिचत हो कि भुक्तभोगी को न्याय मिले।

यह निहायत अराजक और गैरजिम्मेदाराना रवैया होगा कि कोई समाज, भीड़ या मीडिया जज बन बैठे और फैसला सुनाए। हमारी न्यायिक प्रणाली चाहे जितनी दूषित हो, पुलिस जितनी भी भ्रष्ट हो, उसको शुद्ध या दुरूस्त करने की लड़ाई हम जरूर लड़ेंगे लेकिन कोई केस हम उन्हीं के माध्यम से लड़ सकते हैं। इसके अलावा कोई तरीका नहीं हो सकता कि हम अपने एफ आई आर अर्थात प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर लें और खुद ही थाना कोर्ट बन जाएं और फैसला भी सुना दें। यह बर्बर समाज में ही सम्भव हो सकता है।

अपने घर की छत से खुर्शीद का छलांग लगाना एक तरह से इस बात का प्रतीक भी था कि सोशल मीडिया और बाद में इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने जैसे मुहिम चलायी उसमें वह एक ऐसी स्थिति में पहुंचा दिए गए थे कि जहां से लौटना उन्हें असम्भव मालूम पड़ रहा था। दरअसल जो मुहिम चल पड़ी थी वह न्याय की लड़ाई की नहीं, बल्कि खुर्शीद नामक शख्स से मध्ययुगीन किस्म का बदला चुकाने की मुहिम थी।

खुर्शीद के बहाने हमें सोशल मीडिया के चरित्र पर भी बात करनी चाहिए। साथ ही उन प्रदर्शनप्रिय, पाखण्डी मानसिकता पर भी बात होनी चाहिए जिसकी अपनी नीयत तो महिलाओं के प्रति खोटी है, कुंठित और विकृत है लेकिन महिलाओं की कथित रूप से "इज्जत बचाने के लिए" नारे लगाने में वह संकोच नहीं करती है।

16 दिसम्बर की घटना के बाद भी जगह-जगह हुए विरोध प्रदर्शनों में ऐसे लोग भी शामिल थे जो खुद स्त्री की बराबरी और आजादी के बिल्कुल पक्षधर नहीं थे। उनसे पूछने पर वे यही बताते कि इतना क्रूर ढंग से नहीं मारा गया होता तो ठीक था, उस लड़की को दूसरे ढंग से सबक सिखाया जाना जरूरी था।

खुर्शीद की इस असामयिक मृत्यु के बहाने लोगों की इस प्रवृ्त्ति पर भी बात होनी चाहिए कि वे दूसरों को कटघरे में खड़े करने के लिए इतनी हड़बड़ी में क्यों रहते हैं ? और खुर्शीद जैसे हश्र तक या उसके आसपास पहुंचने वालों के लिए भी यह समझने की बात होनी चाहिए कि आखिर ऐसी गुंजाइश क्या बनें जिसमें यदि आप निर्दोष हैं फिर भी घेरे जा सकते हैं ? इतना सामाजिक होकर भी आप इतने अकेले कैसे हो जाते हैं कि संकट की घड़ी में किसी से मशविरा नहीं कर पाते हैं।

कुल मिला कर ऐसी घटनाएं हमारे अपने समाज पर भी गहरे प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं कि इसमें इतनी सतही लोकरंजकता कैसे विकसित हुई कि लोग बिना जाने समझे कुछ सुन कर ही कथित अपराधी पर मुक्का जड़ने को तैयार रहते हैं। हमारा वही समाज है जहां अपने ही आत्मीय कहे जानेवाले लोगों को अपने चाहत का इजहार करने के लिए पीट पीट कर मार देने की भी घटनाएं घटती हैं। ऐसी घटनाएं जब भी सामने आती हैं तो वास्तविक लड़ाई तथा उससे मिली उपलब्धियां पीछे चली जाती हैं। जैसा कि अब खुर्शीद वाली घटना के बहाने लोगों को यह कहने का मौका मिल गया कि महिलाएं किसी को भी फंसा सकती हैं। यह विचार स्त्री बराबरी की लड़ाई को धक्का पहुंचाएगा और साथ ही पुरूषों की मनमानी चलती रहे इसके लिए जगह बनाएगा। ऐसी स्थितियों से निपटने तथा इस दुष्चक्र से निकलने के लिए गम्भीर प्रयास करना जरूरी होगा।

यह एक ऐसा दौर है जिसमें विभिन्न संघर्षों के कारण सामाजिक वातावरण बदल रहा है तथा कई प्रकार की पीड़िताएं अब शिकायत दर्ज कराने के लिए आगे आ रही है, यह सकारात्मक बदलाव है। इसमें ठीक ढंग से कानूनी प्रक्रियायें चला कर न्याय की परिपक्व तथा जवाबदेह प्रणाली विकसित किए जाने की जरूरत है। लेकिन मीडिया तथा लोगों की गैरजनतांत्रिक चेतना मिल कर हालात ऐसा तैयार कर रहे हैं कि अपराधी प्रवृत्तियों को प्रश्रय मिलेगा तथा सामाजिक बदलाव की मुहिम कमजोर पड़ जाएगी। बदलाव के शुरूआती दौर में ही अगर मगर किन्तु परन्तु लगाना रूढ़िवादियों के लिए आसान होगा।

अंजलि सिन्हा

अंजलि सिन्हा, स्त्री मुक्ति संगठन की कार्यकर्ता है और पिछले तीस सालों से महिला आन्दोलन से जुड़ी रही हैं।

साभार- New Socialist Initiative (NSI)