क्या लालू मार्का राजनीति ने बिहार में भाजपा का रास्ता साफ नहीं किया है?

रिंकु यादव

26 वर्षों के इतिहास में लालू मार्का सामाजिक न्याय की राजनीति राजनीतिक हत्याओं के रास्ते ही आगे बढ़ी है!

भाजपा पर लगाम लगाने की आकांक्षा पाले धर्मनिरपेक्षता व सामाजिक न्याय के लिए संवेदनशील बहुत सारे बुद्धिजीवी मान रहे हैं कि तेजस्वी यादव की राजनीतिक हत्या हो रही है! उसकी बलि ली जा रही है! उनके अनुसार तो सामाजिक न्याय व धर्मनिरपेक्षता के संभावनमय योद्धा-उम्मीद के तारे तेजस्वी ठहरे!

लेकिन हमें जरूर ही गौर करना चाहिए कि इस उम्मीद के तारे व संभावनामय राजनीतिक योद्धा का अभ्युदय किस रास्ते हुआ? वह रास्ता किस तरह का है?

खैर बात राजनीतिक हत्या की हो रही है, सामाजिक न्याय व धर्मनिरपेक्षता के एक संभावनामय योद्धा के बलि लेने की हो रही है!

मुझ जैसे ने जब राजनीति को समझना शुरू किया और बिहार में जिस राजनीतीक हत्या ने भीतर तक झकझोरा, वो राजनीतिक हत्या 31मार्च1997 में हुई थी! लालू अपने उफान पर थे! मारे गये थे, सीवान की धरती पर अपनी मां का इकलौता चंद्रशेखर! लालू के दुलारे-प्यारे, आज भी जेल में बंद रहते हुए लालू की पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी और कहिए तो लालू मार्का सामाजिक न्याय व धर्मनिरपेक्षता के अपराधी- योद्धा शहाबुद्दीन के गुंडों द्वारा चंद्रशेखर की हत्या हुई थी!

पता नहीं, जो लोग तेजस्वी की राजनीतिक हत्या को लेकर चिंतित हैं, जिन्हें लगता है कि सामाजिक न्याय व धर्मनिरपेक्षता के संभावनामय युवा योद्धा की बलि ली जा रही है उनके जेहन में चंद्रशेखर के लिए कितनी जगह बचती होगी?

वही चंद्रशेखर जो पिछड़े समुदाय से आते थे! दो बार जेएनयू के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे थे! जो जेएनयू छात्रसंघ के शायद पहले वामपंथी अध्यक्ष थे, जिन्होंने जेएनयू के अंदर सामाजिक न्याय के संदर्भ से सवालों को उठाना शुरू किया था और लड़कर हल भी निकाला था!

चंद्रशेखर दलितों-पिछड़ों-गरीबों की सामाजिक-राजनीतिक दावेदारी की लड़ाई को आगे ले जाने सीवान आए और मारे गये!

बिहार में संभावनमय युवा नेतृत्व की हत्या हुई थी, राजनीतिक हत्या थी!

लोकतांत्रिक आंदोलन व राजनीति के संभावना की हत्या थी!

बिहार में लोकतांत्रिक आंदोलन, लोकतांत्रिक राजनीतिक नेतृत्व और कहिए तो लोकतांत्रिक राजनीति की संभावना की हत्या यहीं नहीं रूकती है!

26 वर्षों का इतिहास देखिए तो दलितों-गरीबों के मान-सम्मान व अधिकार के लिए जमीन पर लड़ रहे सैकड़ों दलित -पिछड़े समुदाय से ही आने वाले कार्यकर्ताओं -नेताओं की हत्या बिहार में हुई है!

टाडा खत्म होने के बावजूद इसी बिहार में शाह चांद सहित कई एक साथी जेल की सलाखों के पीछे दम तोड़ चुके हैं! यह राजनीतिक हत्या ही है!

अजीत सरकार की भी राजनीतिक हत्या ही हुई!

कौन कह सकता है कि अजीत सरकार के संघर्षों का सामाजिक न्याय पक्षधर आयाम नहीं था?

क्या बिहार में लोकतांत्रिक राजनीतिक नेतृत्व व लोकतांत्रिक राजनीति की हत्या के रास्ते वास्तव में कोई धर्मनिरपेक्ष व सामाजिक न्याय की लोकतांत्रिक राजनीति आगे बढ़ रही थी?

साफ है इस राजनीति की लोकतांत्रिक अंतर्वस्तु शुरू से ही क्षीण थी और जिसके कोख से राज-पुत्रों का जन्म ही हो सकता है!

लेकिन ये राजपुत्र, जिसे बहुतेरे लोग राजनीतिक नेतृत्व कह रहे हैं; क्या किसी धर्मनिरपेक्ष व सामाजिक न्याय की लोकतांत्रिक राजनीति के योद्धा हो सकते हैं? क्या भाजपा विरोधी लोकतांत्रिक संघर्ष को ऐसे राजपुत्रों के कंधे पर आगे बढ़ना है?

कतई नहीं!

क्या लालू मार्का राजनीति ने बिहार में भाजपा का रास्ता साफ नहीं किया है?