वसीम अकरम त्यागी
अमेरिका जाने वाले नव निर्वाचित मिस्टर प्राईम मिनिस्टर न तो पहले प्रधानमंत्री हैं और न आखिरी। मगर उस पर मीडिया का मोदीनाम अपने उस नमक का कर्ज उतार रहा है जो उसे पिछले साल भर से चखाया गया था। क्या इससे पहले कोई भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिका नहीं गया ? क्या उसे भी मीडिया ने इसी तरह कवरेज दिया था ? क्या मोदी वहां पर चुनाव लड़ने जा रहे हैं ? या इस देश की भुखमरी, बेरोजगारी, को दूर करने के लिये कोई साईंटेफिक तकनीक यहां लाई जा रही है ? इससे अच्छा तो चुनाव ही था उसमें कम से कम ‘टीवी’ तीन चेहरे तो दिखा ही देता था जिसमें केजरीवाल, राहुल गांधी हुआ करते थे। मगर अब वे भी स्क्रीन से गायब हैं। टीवी की स्क्रीन पर बार – बार फ्लैश हो रहा है कि मोदी की अमेरिका यात्रा का महाकवरेज।
मोदी इस देश के प्रधानमंत्री हैं, वे अमेरिका जायें या जापान, इराक जायें या मिस्त्र इससे क्या फर्क पड़ता है। इससे न तो गरीबी दूर होगी, और न ही बेरोजगारी, न सांप्रदायिकता कम होगी और न दंगे ? लंबे चौड़े भाषण वरिष्ठ आईएएस द्वारा वातानुकूलित कमरों में बैठकर तैयार किये जाते हैं जिनमें गरीबी दूर करने के नुस्खे समाये होते हैं। पिछले 66 साल से यही तो होता आया है, अच्छे दिन के ब्रांड एम्बेसेडर भी इस अवधि को बढ़ा रहे है। यानी वे भी उसी राह पर हैं जिस पर जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक चलते आये हैं।
बीते पांच सितंबर को शिक्षक दिवस के अवसर पर जब माननीय प्रधानमंत्री का भाषण स्कूलों में सुना जा रहा था उस वक्त भी देश के एक बड़े वर्ग के नौनिहाल कूड़ा बीन रहे थे, चौराहों पर भीख मांग रहे थे। क्या उस भाषण के बाद कुछ बदलाव महसूस किया गया ? क्या मीडिया ने कुछ एक अपवाद को छोड़कर उन मासूमों को स्क्रीन पर लाकर दिखाया ? ठीक ऐसा ही अब हो रहा है चुनाव के दौरान टॉयलेट जाने का लाईव दिखाना तो समझ में आता था मगर अमेरिका की यात्रा का इस तरह से विज्ञापन समझ से परे है। लगभग हर एक न्यूज का यही हाल है, सभी के टॉप हंड्रेड बुलेटिन में जो खबरें हैं उनमें से लगभग साठ फीसद या तो मोदी के खिलाफ हैं, या वे हैं जिनमें मोदी की चर्चा हो रही है। यह हाल उस देश के मीडिया का है जिसमें एक बड़ा वर्ग गरीबी रेखा से नीचे जीता है। यह हाल उस देश की मीडिया का है जो अपने आपको जन जन की आवाज बताती है। कहां है वह आवाज ? क्या पिछले 24 घंटे के बुलेटिन और आने वाले एक सप्ताह के बुलेटिन, समाचार पत्र देखकर कोई कह सकता है कि यह पत्रकारिता हो रही है ? क्या इसे कोई पत्रकारिता का नाम भी दे सकता है ?
दिक्कत यह नहीं है कि देश का प्रधानमंत्री अमेरिका जा रहा है दिक्कत तो यह है कि देश का मीडिया भारत को ही अमेरिका जैसा सक्षम और विकसित देश मान बैठा है। तभी स्क्रीन से सब कुछ गायब है सिवाय मोदी के।
जिस देश के अंदर अभी तक बहुत से ग्रामीण इलाकों ने बिजली तक न देखी हो उस देश के प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा को महाकवरेज दिया जा रहा है। पत्रकारिता में पढ़ाया जाता था कि पत्रकार लोकतंत्र के आंख, कान, नाक हैं। वर्तमान स्थिति में यह जुमला बड़ा ही हास्यापद लग रहा है यह कैसे आंख कान, नाक हैं, जिन्हें सिर्फ एक ही व्यक्ति में भारत नजर आता है ? जो सिर्फ एक ही व्यक्ति का महिमामंडन कर रहे हैं ? व्यापार की मजबूरी होती है हम मानते हैं मगर इतनी भी क्या मजबूरी की देश की सवा अरब आबादी को नजर अंदाज करके सिर्फ कैमरे का फोकस एक ही व्यक्ति पर हो ? किसी किताब में पढ़ा था कि, ‘अच्छी पत्रकारिता बिक सकती है बशर्ते आपके पास अच्छा संपादक होना चाहिये, अच्छे संपादकों की कमी है और अच्छे मैनेजरों की भरमार है’ मगर यहां तो उल्टा हो रहा है जो संपादक है वही मैनेजर बने बैठे हैं।
जिस देश का मीडिया ही शासक वर्ग की जुबान बोलना शुरु कर दे उस देश की समस्याऐं भला कैसे दूर हो पायेंगी ? जब समस्या दिखाई जायेगी तभी तो उसका समाधान किया जायेगा। इतना तो समझते ही होंगे संपादक महोदय, एंकर महोदय, दुष्यंत ने शायद आपके लिये ही कहा हो कि ..
तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह
तू एक जलील सी गाली से बेहतरीन नहीं