देश में तमाम जनविरोधी कानून (Anti-people law) और लगातार बिगड़ती कानून व्यवस्था (Deteriorating law and order) के खिलाफ चुप्पी साधे हुए विपक्ष के आत्मसमर्पण (Opposition surrender) ने यह सिद्ध कर दिया है कि यह सब एजेंट के तौर पर काम करने वाले लोग थे जिनकी राजनीतिक समझ उतनी ही थी जितने टुकड़े उनके हिस्से में आये। सामाजिक न्याय आंदोलन (Social justice movement) और बहुजन राजनीति का जो हश्र उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ है वो यह बताने के लिए काफी है कि ये नेता सत्ता से टकराने वाली जनता को मरघट की मरीचिका के पीछे दौड़ाते रहे और खुद व अपने परिवार का सेटलमेंट ठीक से करते रहे।

जिन समाजवादियों ने गांव गिराओ खेती किसानी से निकल कर सत्ता पर कब्ज़ा किया उनके पास आज सड़क पर प्रतिरोध तक करने की हैसियत नहीं बची। इतना ही नहीं वैचारिक रूप से इनके नेता से लेकर कार्यकर्ता तक शून्य में जी रहे हैं।

अभी ज़्यादा समय नही बीता है जब मुसलमानों और मेहनतकश ओबीसी के सहयोग से मुलायम सिंह यादव ने राजनीति की लंबी पारी खत्म की है लेकिन अंत समय में दक्षिणपंथियों से माफी मांग कर अपने पाप (दक्षिणपंथ के विरोध का नाटक) धोने की कोशिश भी की और यह संदेश भी देने का प्रयास किया कि वो आज भी लाल लंगोट ही बांधते हैं, जिससे पुत्र का भविष्य ठीक रहे।

"तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार" का नारा ज़ोर-ज़ोर से लगाने वाली बहुजन नेत्री के साथ ही बहुजन आंदोलन के तमाम नायक आज सर्वजन में विलीन हो गए और कुछ तो खुली चाकरी कर रहे हैं। बहुजनों, आदिवासियों के सारे संघर्ष को तोल दिया इन नेताओं ने आरक्षण और संविधान बचाने की लड़ाई लड़ते-लड़ते संविधान की धज्जियां उड़ाने लगे। तमाम शोषितों ने संघर्ष के साथ जो अधिकार प्राप्त किये थे वो इन लोगों ने बेच खाये।

सेक्युलरिज़्म के नाम पर कांग्रेस ने मुसलमानों को इस लायक भी नही छोड़ा कि वो राजनीति में अपना कोई अस्तित्व बना सकें। आज देश में जिस हिंसा और घृणा का माहौल है उसकी पूरी जिम्मेदारी कांग्रेस की साम्प्रदायिक नीतियां रहीं हैं। इतना ही नहीं आज जो लोग सत्ता शासन पर काबिज हैं, ये भी उन्ही कांग्रेसियों की ही देन है जिन्होंने इस देश मे नस्लीय हिंसा को खूब बढ़ाया इसी का फायदा आज कांग्रेसमय भाजपा को मिल रहा है। इनसे इस लिए भी सावधान रहने की ज़रूरत है क्योंकि इनके नेता थोक के भाव में घर वापसी करते हैं।

मौजूदा समय में तमाम लोकतांत्रिक आवाज़ों एवं जनता के आंदोलनों को अपना अहंकार अपनी जेब मे रख कर एकजुट होने की ज़रूरत है। जो इस देश के संविधान और सेक्युलर अस्तित्व को बचा सकता है। इतना ही नहीं निराश और हताश जनता को नई ऊर्जा नया पथ दिखा सकता है। हमें अब उन राजनीतिक दलों की तरफ देखना बंद करना होगा जिनकी लड़ाई सिर्फ अपना अस्तित्व बचाने तक सीमित है। हमें एकजुट होकर एक समावेशी भारत के लिए लोगों को एक विकल्प देना होगा। जिससे लोकतंत्र के ऊपर से इस घने कोहरे को जल्द से जल्द हटाया जा सके।

गुफरान सिद्दीकी

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।