दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास बने महात्मा
दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास बने महात्मा
चण्डीदत्त शुक्ल
जंजीरों में जकड़ी, सिसक रही थी भारत माता...उसके कुछ लाडले छटपटाते मां की हालत देखकर, तो कई बावले लालच में पड़कर जननी का दुख भुला बैठे थे...। महज छटपटाकर चुप बैठ जाने वाले कहां बने मां के लायक पूत और जो लालच से घिर गए, वो तो सबकी नज़रों से ही गिर गए। देश के लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। अंग्रेज देशभक्तों पर लाठियां बरसा रहे थे...मनमानियां कर रहे थे...वो दोनों हाथों से सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत को लूटने में लगे थे। ऐसे समय में, एक सपूत सामने आया...और फिर उठ गए जिधर दो डग मग में, उठ गए कोटि पग उसी ओर। यही थे महात्मा गांधी। मोहनदास नाम का एक साधारण इंसान राष्ट्रपिता बन गया...देश की धड़कन में उनका नाम गूंजने लगा, लेकिन ये ऊंचाई आसानी से नहीं मिली।
गांधी जब जन्मे थे, तब देश पर अंग्रेजों की हुकूमत थी। साधारण घर के नौजवानों की तरह वो भी ऊंची पढ़ाई के लिए परदेस गए, लेकिन वहां उन्होंने भारतीय होने के कारण जिस तरह की उपेक्षा झेली...उसका बदला पूरे देश का सम्मान बचाकर दिया। गांधी ने दासता से मुक्ति का, अंधेरे पर उजाले की जीत का देशवासियों को सपना दिखाया और उसे बुलंदी तक पहुंचाया। दो अक्टूबर, 1869 को पोरबंदर के वैश्य परिवार में जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी अपनी मां के विचारों से काफी प्रभावित थे।
शुरुआती जीवन में गांधी काफी शर्मीले और एकदम सामान्य छात्र थे। कानून की पढ़ाई के लिए वे इंग्लैंड गए। वहां से लौटने के बाद बंबई में वकालत करने का फैसला लिया, लेकिन जल्द ही उन्हें यहां के छद्म व्यवहार से घृणा हो गई। इस बीच गांधीजी को दक्षिण अफ्रीका की एक कंपनी ने अपने मुकदमे की पैरवी के लिए बुलाया। साल 1893 का अप्रैल महीना था, जब चौबीस साल के गांधी दक्षिण अफ्रीका रवाना हो गए।
यहीं से शुरू होता है मोहनदास के महात्मा बनने का सफ़रनामा। डरबन पहुंचे गांधी को पता चला कि कोई किसी भी जाति, धर्म का क्यों ना हो, दक्षिण अफ्रीका में उसे कुली ही कहा जाता है। यहां तक कि गांधी भी कुली बैरिस्टर कहलाते थे। इस बीच एक घटना घटी, जिसने गांधी को गुस्से से भर दिया। उन्हें ट्रंसवाल की राजधानी प्रिटोरिया जाना था। मुवक्किल ने उन्हें फर्स्ट क्लास का टिकट खरीदकर दिया, लेकिन जब गाड़ी नाताल की राजधानी मार्टिजबर्ग पहुंची, तो रात के नौ बजे एक गोरा उनके डिब्बे में आया। उसने गांधी से कहा—तुम ज़नरल डिब्बे में जाओ। गांधी ने बात नहीं मानी, तो एक सिपाही की मदद से उन्हें गाड़ी से बाहर धकेल दिया गया। कड़ाके की ठंड में ठिठुर रहे थे गांधी पर उनके दिल में नाराज़गी की आग सुलग रही थी। गांधी ने उसी समय फैसला कर लिया—अपने हक़ की लड़ाई लड़ूंगा।
अगले दिन गांधी चार्ल्सटाउन पहुंचे। यहां उन्हें जोहानसबर्ग तक कोचवान के साथ बाहर बक्से पर बैठकर सफ़र करना पड़ा। यही नहीं, साथ यात्रा कर रहे एक व्यक्ति ने उन्हें छोटी-सी बात पर पीट भी डाला। गांधी ने इसका विरोध करते हुए ट्रंसवाल की राजधानी में रह रहे सभी भारतवासियों की बैठक बुलाई। गांधी ने यहां पहला भाषण दिया। उन्होंने कहा—हर धर्म के लोग एकसाथ हो जाएं, तभी हमारा सम्मान बच सकेगा।
ट्रंसवाल में रहने वाले भारतीय कठिन हालात में थे। शहर में घुसने के लिए वो तीन पाउंड का टैक्स भरते थे। सार्वजनिक फुटपाथ पर उन्हें चलने की इजाज़त नहीं थी। गांधी ने इस अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की। एक साल बाद डरबन लौटने पर गांधीजी ने यहां के लोगों की लड़ाई भी लड़ी।
दक्षिण अफ्रीका की ज़मीन इस मायने में अहम है कि गांधी ने वहां रहकर शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ लड़ाई की पहली बुनियाद रखी। यहां से उन्होंने जो मंत्र लिया, वही भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने में कामयाब साबित हुआ। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद गांधीजी ने कुछ समय राजकोट में काम किया और उसके बाद फिर विदेश लौट गए। दूसरी यात्रा के दौरान उनमें काफी बदलाव आया। इस दौरान उन्होंने असल मायने में जीवन जीने की कला सीखी। गांधी अपने बाल खुद काटते। साफ-सफाई करते।
हर दिन दो घंटे एक चैरिटेबल अस्पताल में लोगों की सेवा करते। 1899 में बोअर-युद्ध के समय उन्होंने भारतीयों की एक एंबुलेंस टुकड़ी तैयार की और घायलों की सेवा की। 1901 में युद्ध खत्म होने के बाद वह भारत लौट आए।
दक्षिण अफ्रीका का प्रवास गांधी के जीवन में अहम बदलाव ला चुका था। देश लौटने के बाद गांधी ट्रेन के तीसरे दर्जे में सफर करने लगे। वो जान सके कि लोगों के दुख-दर्द क्या हैं और व्यक्तिगत अपमान से कहीं बड़ा है राष्ट्र का अपमान।
गांधी को एक बार फिर दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा, वहां उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में वकालत की। जोहान्सबर्ग में गांधीजी ने आदर्श कालोनी बनाई और उसका नाम 'टालस्टाय फार्म' रखा। गांधीजी ने ट्रंसवाल की सरकार के काले कानून के ख़िलाफ जमकर लड़ाई लड़ी। इसमें तय किया गया था कि आठ साल से बड़े हर भारतीय को अपना रजिस्ट्रेशन कराना होगा और इसका सर्टिफिकेट हरदम अपने पास रखना होगा। गांधीजी ने जमकर सभाएं की। 1908 में उन्हें जेल भी जाना पड़ा, लेकिन वो डिगे नहीं। बाद में गांधीजी को रिहा कर दिया गया, लेकिन अन्य भारतीय जेल में बंद रखे गए। गांधी ने नाराज़गी जाहिर की और फिर उनकी अगुवाई में 16 अगस्त को काले कानून के सर्टिफिकेट सार्वजनिक तौर पर जलाए गए। फरवरी 1909 में गांधी को फिर कैद कर लिया गया। लंबी लड़ाई के बाद गांधी विजयी रहे। रंगभेदी सरकार ने माना कि भारतीयों पर अत्याचार हो रहा है।
18 जुलाई 1914 को गांधी फिर भारत लौट आए। सच तो ये है कि दक्षिण अफ्रीका के प्रवास ने गांधी के चरित्र में उल्लेखनीय परिवर्तन शामिल किए और हम अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले एक नेता से मिल पाए।


