अक्‍टूबर क्रान्ति दिवस : 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी'

"क्रान्तियों की गरिमा को खण्डित करना शोषित-उत्‍पीड़ि‍त लोगों से उनके सपने छीन लेना है"

लखनऊ 7 नवंबर 2016। अक्‍टूबर क्रान्ति दिवस की पूर्वसंध्‍या पर 'लखनऊ सिनेफ़ाइल्‍स' की ओर से आज सोवियत क्रान्ति पर बनी प्रसिद्ध दस्‍तावेज़ी फ़ि‍ल्‍म 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी' का प्रदर्शन और उस पर बातचीत आयोजित की गयी।

इस फ़ि‍ल्‍म में फरवरी 1917 में ज़ारशाही के अन्‍त से लेकर उसी वर्ष नवम्‍बर में अस्‍थायी सरकार के ख़ात्‍मे और बोल्‍शेविकों के सत्‍ता में आने तक की घटनाओं को डॉक्‍युमेंट्री शैली में बेहद प्रभावशाली ढंग से दिखाया गया है।

फ़ि‍ल्‍म का परिचय देते हुए सत्‍यम ने बताया कि 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी' का निर्माण अक्‍टूबर क्रान्ति के 50 वर्ष पूरे होने के अवसर पर ब्रिटेन के ग्रेनाडा टेलीविज़न की ओर से 1967 में किया गया था। इसे आइज़ेंस्‍ताइन के सहयोगी रहे ग्रिगोरी अलेक्‍सन्‍द्रोव की लिखी स्क्रिप्‍ट के आधार पर तैयार किया गया था और इसमें वास्‍तविक दस्‍तावेज़ी फ़ुटेज और फ़ोटोग्राफ़्स के साथ ही सेर्गेइ आइज़ेंस्‍ताइन की प्रसिद्ध फ़ि‍ल्‍म 'अक्‍टूबर' के दृश्‍यों का भी काफ़ी इस्‍तेमाल किया गया है। रूस, इंग्‍लैण्‍ड और अमेरिका के अनेक प्रसिद्ध अभिनेताओं ने इसमें अपनी आवाज़ दी है। इनमें दुनिया की श्रेष्‍ठतम फ़ि‍ल्‍मों में से एक गिनी जाने वाली 'सिटीज़न केन' के निर्देशक और अभिनेता ऑरसन वेल्‍स, प्रसिद्ध ब्रिटिश अभिनेताओं रॉबर्ट स्‍टीफ़न, बारबरा जेफ़र्ड और जेनेट सुज़मैन जैसे नाम शामिल हैं। सन्‍दर्भ केन्‍द्र, इन्‍दौर ने इसका हिन्‍दी रूपान्‍तर तैयार किया है।

फ़ि‍ल्‍म की स्‍क्रीनिंग के बाद काफ़ी देर तक फ़ि‍ल्‍म और अक्‍टूबर क्रान्ति से जुड़े विभिन्‍न सवालों पर चर्चा हुई।

अमेरिका में लम्‍बे समय से युद्ध-विरोधी आन्‍दोलन और वहाँ की नीबिल-प्रॉक्‍टर मार्क्सिस्‍ट लायब्रेरी से जुड़े कॉमरेड राज सहाय ने कहा कि 1917 में अक्‍टूबर क्रान्ति की महज़ शुरुआत हुई थी। सोवियत संघ के समाज के क्रान्तिकारी रूपान्‍तरण का सिलसि‍ला उसके बाद दो दशकों तक जारी रहा। उस क्रान्ति का याद करना और उसके अनुभवों से सीखना आज किसी भी क्रान्तिकारी बदलाव के लिए बहुत ज़रूरी है।
मार्क्‍सवादी विद्वान और राजनीतिक कार्यकर्ता शशि प्रकाश ने अक्‍टूबर क्रान्ति के महत्‍व, उसके अनुभवों और प्रासंगिकता पर विस्‍तार से चर्चा की।

उन्‍होंने क‍हा कि सर्वहारा क्रान्तियों की लम्‍बी राह के चार ऐतिहासिक मील के पत्‍थर हैं। 1871 का पेरिस कम्यून पहला मील का पत्‍थर है जब मज़दूरों ने पहली बार सत्‍ता की बागडोर अपने हाथ में ली थी और सिर्फ़ 72 दिन के शासन में बीज रूप में य‍ह दिखा दिया था कि वास्‍तव में समानता और न्‍याय पर आधारित शासन किस तरह चलाया जा सकता है।

1917 की अक्‍टूबर क्रान्ति दूसरा मील का पत्‍थर है जिसने कम्‍यून के सिद्धान्‍तों को अमली जामा पहनाया और भौतिक उत्‍पादन में ही नहीं, बल्कि‍ कला-साहित्‍य-संगीत-फ़ि‍ल्‍मों सहित आत्मिक जीवन के हर क्षेत्र में भी चमत्‍कारिक उपलब्धियाँ हासिल कीं। लेकिन स्‍वाभाविक तौर पर इतिहास की इस पहली सफल सर्वहारा क्रान्ति की कुछ समस्‍याएँ भी थीं जिनके कारण 1956 में वहाँ पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना करने में बुर्जुआ शक्तियों को कामयाबी मिल गयी।

तीसरा मील का पत्‍थर 1949 की चीनी क्रान्ति थी जिसने एक पिछड़े अर्द्धसामन्‍ती-अर्द्धऔपनिवेशिक समाज में क्रान्ति की नयी राह खोज निकाली।

इस राह का चौथा मील का पत्‍थर 1966 से '76 तक चीन में हुई सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति है जिसने सोवियत क्रान्ति के सकारात्‍मक और नकारात्‍मक अनुभवों से सीखते हुए सतत् क्रान्ति के सिद्धान्‍त के ज़रिए पूँजीवाद की वापसी को रोकने का रास्‍ता दिखाया। भले ही यह महान सामाजिक प्रयोग स्‍वयं चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना को रोकने में विफल रहा लेकिन इसने सर्वहारा वर्ग को भविष्‍य में इसे रोकने की समझदारी से लैस कर दिया।

उन्‍होंने कहा कि आज बुर्जुआ वर्ग अपने तमाम संसाधनों का इस्‍तेमाल करके अतीत की महान क्रान्तियों पर कीचड़ उछाल रहा है और उनकी शानदार उपलब्धियों को धूल और राख की परतों के नीचे दफ़्न करने की कोशिश कर रहा है। ख़ासकर नयी पीढ़ि‍यों के मेहनतकश लोग और बुद्धिजीवी इस गौरवशाली विरासत से अपरिचित हैं। क्रान्तियों की गरिमा को खण्डित करना वास्‍तव में दबे-कुचले उत्‍पीड़ि‍त जनों से उनके सपने छीन लेना है। उनके प्रेरणा के स्रोतों और विचारों के प्रकाशस्‍तम्‍भों को ख़त्‍म कर देना है। मगर शासक वर्गों की सारी कोशिशें नाकाम साबित होंगी। सर्वहारा क्रान्तियों का पहला विश्‍व-ऐतिहासिक दौर समाप्‍त हो चुका है, लेकिन एक नये दौर के शुरू होने की आहटें पूरी दुनिया में सुनायी दे रही हैं। क्रान्तियों को जन्‍म देने वाला पूँजीवाद का संकट पहले की तरह अब थोड़े-थोड़े समय के बाद नहीं आता बल्कि पिछले कई दशकों से अनवरत संकट की स्थिति बनी हुई है जिससे उबरने और उभार के कोई दौर नहीं आ रहे। बल्कि पूँजीवाद का यह ढाँचागत संकट दिनोदिन गहराता जा रहा है। इस बार अक्‍टूबर क्रान्ति के जो नये संस्‍करण शुरू होंगे वे पूँजीवादी व्‍यवस्‍था पर अन्‍तकारी चोट करेंगे।

चर्चा में असग़र मेहदी, एस.एन. हैदर रिज़वी, निखिल कुमार, राजेश मौर्य, रजनीश, रफ़त फ़ातिमा आदि ने भी भागीदारी की।

असग़र मेहदी ने सवाल उठाया कि एक समय क्रान्तिकारी मार्क्‍सवाद के प्रभाव में इस्‍लामिक समाजवाद की लहर पूरी दुनिया में आयी थी मगर आज इसके विपरीत इस्‍लामी कट्टरपंथ की लहर हावी हो रही है। इसके क्‍या कारण हैं और इससे कैसे लड़ा जा सकता है।

इस पर शशि प्रकाश ने अरब देशों में कम्‍युनिस्‍ट और प्रगतिशील पार्टियों पर ख्रुश्‍चेवी संशोधनवाद के विनाशकारी प्रभाव तथा इस्‍लामी कट्टरपंथ के उभार के पीछे प्रथम विश्‍वयुद्ध के पहले ब्रिटिश हुकूमत की हरकतों से लेकर अमेरिका की कारगुज़ारियों और अरब देशों के शासकों की भ‍ूमिका आदि का ज़ि‍क्र करते हुए विस्‍तार से चर्चा की। इसके साथ ही उन्‍होंने पूँजीवाद के संकटग्रस्‍त होने के साथ भारत में हिन्‍दुत्‍ववादियों सहित पूरी दुनिया में हर तरह के कट्टरपंथ के बढ़ने पर भी बात रखी। बातचीत में फासीवाद से कारगर लड़ाई के लिए मेहनतकश अवाम के बीच काम करने, बुद्धिजीवियों की भूमिका, क्रान्तियों की पराजय के कारणों आदि पर भी खुलकर चर्चा हुई।

सत्‍यम ने बताया कि अक्‍टूबर क्रान्ति का शतवार्षिकी समारोह 7 नवम्‍बर 2016 से 2018 तक मनाया जाएगा। इस दौरान 'लखनऊ सिनेफ़ाइल्‍स' भी अक्‍टूबर क्रान्ति के बारे में और उसके प्रभाव में बनी कुछ बेहतरीन फ़ि‍ल्‍मों का प्रदर्शन आयोजित करेगा।

'लखनऊ सिनेफ़ाइल्‍स' की शुरुआत ऐसे आग्रही सिनेप्रेमियों द्वारा की गयी है जो सिनेमा को जीवन के यथार्थ के सभी पहलुओं के चित्रण का सशक्‍ततम कलामाध्‍यम मानते हैं। हम ऐसे सिनेमा को लोगों के बीच ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं जो संघर्षरत मनुष्‍य के जीवन, संघर्ष और स्‍वपनों को सामने लाता है। लखनऊ में ऐसे उत्‍सुक दर्शकों के बीच हम विश्‍व और भारतीय सिनेमा की उत्‍कृष्‍ट सिनेकृतियों का प्रदर्शन और उनके विभिन्‍न पक्षों पर चर्चाओं का नियमित रूप से आयोजन करते रहेंगे। साथ ही, हम समय-समय पर फ़ि‍ल्‍म कला के विविध आयामों, सिनेमा के इतिहास आदि पर परिचर्चा, व्‍याख्‍यान, वर्कशॉप आदि का भी आयोजन करेंगे।