नेहा दाभाड़े

हाल में नई दिल्ली नगर निगम (एनडीएमसी) ने दिल्ली की डलहौजी रोड का नामकरण दारा शिकोह के नाम पर कर दिया। यह निर्णय, भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी के प्रस्ताव पर लिया गया।

उन्होंने कहा,

‘‘दारा शिकोह ने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक किया था और उन्हें सम्मानित करने के लिए हमने सड़क का नाम उनके नाम पर रखा है’’।

लार्ड डलहौजी 1848 से 1856 तक भारत के गवर्नर जनरल थे। यद्यपि इस पुनःनामकरण को एक सामान्य निर्णय कहा जा सकता है तथापि इसके पीछे की राजनीति को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है। सड़कों और भवनों को ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का नाम देना, दरअसल, उनका और उनके विचारों का अनुमोदन और समर्थन करने का तरीका है।

जिन लोगों ने दारा शिकोह का नाम नहीं सुना है, उन्हें हम बता दें कि वे मुगल बादशाह शाहजहां के सबसे बड़े और सबसे पसंदीदा पुत्र थे। वे वली अहद (युवराज) भी थे और शाहजहां के बाद गद्दी पर उन्हें ही बैठना था। परंतु उन्हें उनके भाई औरंगज़ेब ने युद्ध में पराजित कर दिया और औरंगज़ेब, भारत के बादशाह बने।

अगस्त 1915 में दिल्ली की औरंगज़ेब रोड का नाम बदल कर पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर कर दिया गया था। राजसिंहासन के लिए भाईयों के बीच खूनी संघर्ष के कई उदाहरण भारतीय इतिहास में हैं। फिर, अचानक, हमारे राजनीतिक आकाओं को एक पराजित मुगल राजकुमार दारा शिकोह की याद क्यों सताने लगी है?

यद्यपि दारा शिकोह एक पराजित राजकुमार थे परंतु वे उद्भट विद्वान भी थे और उनका जीवन कई शानदार उपलब्धियों से भरा हुआ था। उन्होंने हिन्दू धर्म का गहराई से अध्ययन किया और उपनिषदों का फारसी भाषा में अनुवाद भी किया। उपनिषदों और भगवद गीता के अतिरिक्त, उन्होंने तालमुद (यहूदी धर्मग्रंथ) और न्यू टेस्टामेंट (ईसाई बाईबिल का दूसरा हिस्सा) का भी अध्ययन किया।

वे सच्चे अर्थों में सूफी थे और उन्होंने अपना जीवन, सत्य और आध्यात्मिकता की तलाश को समर्पित किया। परंतु अगर कोई यह सोचे कि भाजपा, दारा शिकोह को उनकी विद्वता या दकियानूसीपन और धर्मान्धता के उनके विरोध के कारण सम्मान की दृष्टि से देखती है, तो यह गलत होगा।

दारा शिकोह के ‘धर्मान्ध’ भाई औरंगजे़ब ने यह आरोप लगाकर उन्हें मौत के घाट उतार दिया था कि उन्होंने ‘‘अपने धर्म का त्याग कर एक दूसरे धर्म के साथ स्वयं को जोड़ा’’।

औरंगजे़ब की अपने एक भाई, जिसने हिन्दू धर्म का अध्ययन किया था, की क्रूर हत्या, दारा शिकोह को हिन्दू राष्ट्रवादियों का प्रियपात्र बनाती है। उन्हें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द का उदाहरण और प्रतीक बताया जाता है।

भाजपा, दारा शिकोह को इसलिए याद करना चाहती है क्योंकि उसके लिए वे ‘अच्छे’ मुसलमान थे।

दारा शिकोह (1615-1659) बादशाह शाहजहां और बेगम मुमताज़ महल के सबसे बड़े पुत्र थे। दारा शिकोह के जन्म के पहले शाहजहां की पत्नी ने केवल लड़कियों को जन्म दिया था। शाहजहां ने महान सूफी संत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर प्रार्थना की कि उन्हें पुत्र बख्शा जाए और इसके तुरंत बाद अजमेर के निकट सागरताल में दारा शिकोह का जन्म हुआ।

दारा शिकोह के तीन भाई थे-शूज़ा, औरंगजे़ब और मुराद। परंतु दारा शिकोह अपने पिता के सबसे नज़दीक थे।

जहां शाहजहां अपने अन्य पुत्रों को दूरस्थ क्षेत्रों में सैनिक अभियानों पर भेजते थे, वहीं दारा शिकोह को वे हमेशा अपने साथ अपने दरबार में रखते थे। बचपन से ही दारा शिकोह सेना और यु़द्धों से ज्यादा दर्शनशास्त्र और रहस्यवाद में रूचि रखते थे और यही कारण है कि उन्हें ‘‘दार्शनिक राजकुमार’’ (फिलॉसफर प्रिंस) भी कहा जाता है।

दारा शिकोह की तुलना अक्सर उनके परदादा अकबर से की जाती है। अकबर ने भी अन्य धर्मों के विद्वानों को संरक्षण दिया और विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया परंतु दोनों के बीच महत्वपूर्ण अंतर थे।

अकबर की सहिष्णुता की नीति और विभिन्न धर्मों के विद्वानों के साथ उनके विचार विनिमय का लक्ष्य राजनीतिक था। वे भारत, जहां की अधिकांश आबादी हिन्दू थी, में अपने साम्राज्य को मज़बूत बनाना चाहते थे। परंतु दारा शिकोह को सत्ता और दुनियावी ची़जों से ज़रा भी मोह नहीं था। उन्होंने सत्य की तलाश में विभिन्न धर्मों का अध्ययन किया। वे पूरी निष्ठा से यह मानते थे कि किसी धर्म का सत्य पर एकाधिकार नहीं है। सत्य के कई पक्ष और आयाम हैं और सत्य, हर धर्म में मौजूद है।

उनकी आध्यात्मिक यात्रा की शुरूआत महान सूफी संतों के संपर्क में आने से हुई। वे मियां मीर और मुल्लाशाह बदाक्षी के बहुत नज़दीक थे। उन्होंने सूफीवाद का अध्ययन किया और कादिरी सूफी सिलसिला के सदस्य बने। वे इस्लामिक सूफीवाद से इतने गहरे तक प्रभावित थे कि उन्होंने सूफीवाद पर छह पुस्तकें लिखीं। अपनी पहली पुस्तक, जिसे उन्होंने तब लिखा था जब वे मात्र 25 वर्ष के थे, में उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद और उनकी पत्नियों सहित लगभग 411 इस्लामिक संतों के जीवन का वर्णन किया। वे मुल्लाओं के कटु विरोधी थे क्योंकि मुल्ला अक्सर इस्लाम की गलत व्याख्या कर धर्मान्धता और असहिष्णुता को बढ़ावा देते थे।

सूफीवाद के उनके गहन अध्ययन से दारा शिकोह को यह अहसास हुआ कि ईश्वर के साथ एकाकार होने के लिए न तो हमें मुल्लाओं की ज़रूरत है और ना ही कर्मकांडों की। ज़रूरत है तो केवल ईश्वर के प्रति प्रेम और उसके आगे निस्वार्थ भाव से समर्पण की।

वे केवल सूफी परंपरा के संतों के ही संपर्क में नहीं थे। वे कबीर के अनुयायी बाबा लालदास बैरागी के भी काफी नज़दीक थे। उन्होंने विभिन्न धर्मों की रहस्यवादी परंपराओं को समझने के लिए कई ग्रंथों का अध्ययन किया, जिनमें वेदान्त, साल्म (यहूदी बाईबिल और ईसाई बाईबिल के ओल्ड टेस्टामेंट का हिस्सा), द गौस्पिल (ईसा मसीह के जीवन का वर्णन) और पेन्टाट्यूच (यहूदी बाईबिल की पहली पांच पुस्तकें) शामिल थे। वे फॉदर बुज़ी से भी आध्यात्मिक मामलों में ज्ञान प्राप्त करते थे।

हिन्दू धर्मग्रंथों को बेहतर ढंग से समझने के लिए उन्होंने बनारस के पंडितों और सन्यासियों के साथ भी काफी वक्त गुज़ारा।

दारा शिकोह की सबसे प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है ‘‘मज़मा-उल-बेहरीन’’ (दो महासागरों का मिलन)। इसमें उन्होंने इस्लाम और हिन्दू धर्म के बीच की समानताओं को ढूंढने की कोशिश की है। वे लिखते हैं, ‘‘...मज़मा-उल-बेहरीन सत्य जानने वाले दो समूहों के सत्य और ज्ञान का संकलन है।’’

अपनी इस पुस्तक में दारा शिकोह उन बिंदुओं का विस्तार से विवरण करते हैं जहां ये एकदम अलग-अलग दिखने वाले धर्म एक-दूसरे से मिलते हैं। वे इस तथ्य से अच्छी तरह से वाकिफ थे कि सत्य, बहुआयामी होता है और वे धार्मिक बहुवाद के जबरदस्त पैरोकार थे। उन्होंने अपने अध्ययन से यह साबित किया कि हिन्दू धर्म और इस्लाम में कई चीज़ें समान हैं और वे एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्होंने भारतीय इस्लामिक परंपरा को मज़बूती दी, उसे संकीर्णता से मुक्त किया और भारतीय परंपरा का हिस्सा बनाया। वे यह नहीं मानते थे कि कोई धर्म किसी दूसरे धर्म से श्रेष्ठ है। धर्मों की उनकी व्याख्या उदारवादी और समावेशी थी।

उन्होंने लिखा,

‘‘अगर मैं जानता हूं कि एक काफिर (हिन्दू) पाप में डूबा हुआ है परंतु एकेश्वरवाद की बात कहता है तो मैं उसके पास जाउंगा, उसे सुनुंगा और उसके प्रति आभारी रहूंगा।’’

आज दारा शिकोह प्रासंगिक इसलिए हैं क्योंकि हिन्दू राष्ट्रवादी, ‘भारतीय संस्कृति’ के प्रभुत्व और उसकी सर्वोच्चता के दावे बार-बार दोहरा रहे हैं और परोक्ष रूप से यह भी कह रहे हैं कि भारत की ऐतिहासिक परंपरा हिन्दू है। शायद उनका यह मानना है कि भारत की संस्कृति के निर्माण में इस्लाम की कोई भूमिका ही नहीं थी।

इस संदर्भ में मज़मा-उल-बेहरीन एक महत्वपूर्ण पुस्तक है क्योंकि वह दोनों धर्मों की समानताओं पर केन्द्रित है और कहती है कि सभी धर्म हमें सत्य की राह पर ले जाते हैं। यह पुस्तक 22 खंडों में विभाजित है और इसमें प्रकृति के मूल तत्वों से लेकर हमारी ज्ञानेन्द्रियों, चेतना, आत्मा और धार्मिक परंपराओं की विशद विवेचना है।

इस पुस्तक का जो सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है वह है इसमें दोनों धर्मों में ईश्वर के गुणों का वर्णन और उनकी तुलना। इस्लाम के अनुसार ईश्वर के दो गुण हैं-जमाल या सुंदरता और जलाल या महिमा अथवा वैभव। हिन्दू धर्म में ईश्वर के तीन रूप बताए गए हैं-ब्रह्मा, विष्णु और महेश जो क्रमश: सृष्टि, अस्तित्व और विनाश के प्रतीक हैं।

यह इस्लाम में वर्णित जिब्राएल, मीकाइल और इस्राफील से मिलते जुलते हैं। जिब्राएल सृष्टि के फ़रिश्ते हैं, मीकाइल अस्तित्व के और इस्राफील संहार के। इससे यह पता चलता है कि दोनों धर्मों में कुछ मूलभूत समानताएं हैं।

तौहीद (एक ईश्वर) की अवधारणा ने दारा शिकोह को बहुत आकर्षित किया। उन्हें बहुवाद में गहरी निष्ठा थी परंतु वे फिर भी यह मानते थे कि सभी रास्ते हमें एक ही ईश्वर की ओर ले जाते हैं।

उन्होंने कहा था कि

‘‘तौहीद का रहस्य यह है, हे मेरे मित्र, इसे समझो, कहीं पर कुछ भी ऐसा नहीं है जो ईश्वर न हो। जो कुछ तुम उससे अलग देखते या जानते हो उसका नाम भले ही कुछ और हो, परंतु वास्तव में वह ईश्वर ही है।’’

तौहीद या ईश्वर की एकात्मकता की खोज ने उन्हें अनेक धर्मों के ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। पवित्र कुरान में भी कई ऐसी बातें हैं जिनकी व्याख्या करना मुश्किल है।

उन्होंने अपने मन में उपजे प्रश्नों के उत्तर उन विभिन्न धर्मों के ग्रंथों में ढूंढने की कोशिश की, जो जाहिरी तौर पर एकेश्वरवाद में विश्वाश रखते हैं। परंतु उन्हें इन प्रश्नों के उत्तर इन धर्मग्रंथों में नहीं मिले। फिर उन्होंने अपने प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए हिन्दू धर्मग्रंथों का सहारा लिया और उन्होंने उपनिषदों के 50 अध्यायों का फारसी में अनुवाद भी किया।

उपनिषदों में उन्हें उनके मन में घुमड़ रहीं कई गुत्थियों के उत्तर मिले और उन्होंने लिखा कि उपनिषद ‘पहली दिव्य पुस्तक’ और ‘एकेश्वरवाद के मूल स्रोत’ हैं।

उन्होंने यह भी लिखा कि उपनिषद वह किताब-ए-मक्तूम (गुप्त पुस्तक) है जिसका ज़िक्र कुरान में है।

कुरान कहती हैः

‘‘निःसंदेह एक छिपी हुई किताब है। इसकी वास्तविकता को वे ही लोग पाते हैं जो पवित्र होते हैं। इसका उतरना सारे जंहानों के रब्ब की ओर से है’’

(कुरान, अध्याय 56, आयत 78-81)।

Neha Dabhadeदारा शिकोह ने उपनिषदों का जो अनुवाद किया उसका शीर्षक था ‘सिर-ए-अकबर’ (महान रहस्य)। यह पुस्तक दारा शिकोह की उदार सोच का परिचायक है। वे अपने प्रश्नों का उत्तर ढूंढने और सत्य की तलाश में अन्य धर्मों के ग्रंथों का सहारा लेने से भी तनिक भी हिचकिचाते नहीं थे।

आज कट्टर इस्लामवादी यह दावा करते नहीं थकते कि कुरान अमोघ है और इसमें हर प्रश्न का सही उत्तर मौजूद है। स्पष्टतः दारा शिकोह ऐसा नहीं मानते थे।

इसी तरह, हिन्दू राष्ट्रवादी भगवद गीता को दुनिया की श्रेष्ठतम पुस्तक बताते हैं और यहां तक कि उसे स्कूली पाठ्यक्रमों का आवश्यक हिस्सा बनाना चाहते हैं।

मुस्लिम और हिन्दू कट्टरवादियों, दोनों की यह सोच रूढ़िवादिता और धर्मान्धता की परिचायक है। इसके विपरीत, दारा शिकोह, अन्य धर्मों के ग्रंथों में संचित ज्ञान का इस्तेमाल अपने धर्म को बेहतर ढंग से समझने के लिए करते थे और उन्हें यह स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं थी कि अन्य धर्म भी सत्य की ओर ले जाने वाले हैं।

दारा शिकोह ने कभी इस्लाम को नहीं त्यागा। वे धर्मनिष्ठ मुसलमान थे परंतु उन्होंने अन्य धर्मों के ग्रंथों का उपयोग इस्लाम की अपनी समझ को बेहतर बनाने के लिए किया।

उन्होंने हिन्दू धर्म का अध्ययन इसलिए किया क्योंकि उन्हें ऐसा लगा कि दोनों धर्मों के बीच समानताएं और एकरूपता हैं। उनका कहना था कि भले ही दोनों धर्मों के कर्मकांड और पूजा पद्धतियां अलग हों परंतु उनकी आत्मा एक ही है। इस दृष्टि से वे विभिन्न धर्मों के बीच समन्वय और एकता के हामी थे और भारत की मिलीजुली संस्कृति में उनका योगदान अमूल्य है। परंतु क्या केवल एक सड़क का नाम उनके नाम पर रख देने से हम उन्हें वह सम्मान दे सकेंगे जिसके वे हकदार हैं?

आज सार्वजनिक भवनों, संस्थानों, सड़कों आदि के नामकरण में भी राजनीति हो रही है। औरंगजे़ब को अस्वीकार्य मुसलमान और दारा शिकोह को स्वीकार्य मुसलमान बताया जा रहा है।

इतिहास का सांप्रदायिकीकरण कर औरंगज़ेब जैसे मुगल शासकों का दानवीकरण किया जा रहा है। कौन स्वीकार्य है और कौन नहीं, इसका टेस्ट निर्धारित कर दिया गया है। दारा शिकोह के विचारों और उनके जीवन का अध्ययन करने से हमें यह स्पष्ट हो जाएगा कि आज के भारत में उनके आदर्शों को सम्मान नहीं दिया जा रहा है। केवल किसी सड़क का नाम किसी व्यक्ति के नाम पर रख देने से हम उसे असली सम्मान नहीं दे सकते। हम उसे असली सम्मान तब देंगे जब हम उसकी बताई राह पर चलेंगे और उसके आदर्शों को अपना आदर्श बनाएंगे।

आज देश में हिन्दू धर्म को सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च बताया जा रहा है। क्या हमारे राजनेता दारा शिकोह के बहुवाद को स्वीकार करने को तैयार हैं? जब सरकार योग को अनिवार्य बनाती है तब क्या उसे यह याद रहता है कि दारा शिकोह यह कहते थे कि सभी धर्म एक ही ईश्वर तक पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं?

क्या दारा शिकोह ने उसी धार्मिक कट्टरता के विरूद्ध संघर्ष नहीं किया था, जिसे हम आज अपने आसपास फलता-फूलता देख रहे हैं? आज आखिर गाय क्यों इतनी पवित्र बन गई है कि उसके लिए लोगों के साथ मारपीट की जा सकती है और उनकी जान तक ली जा सकती है?

क्या हम यह भूल गए कि दारा शिकोह का कहना था कि हमें धर्मों के सतही प्रतीकों से आगे जाकर उनकी बीच की समानताओं पर विचार करना चाहिए? क्या आज हमारी सरकार संस्कृति को जिस रूप में समझती और देखती है उसमें दारा शिकोह के विचारों की तनिक भी झलक है? अगर नहीं तो उनके नाम पर एक सड़क का नामकरण केवल एक नाटक है।

(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)