जैसे पूरे देश में नफरत बोई जा रही है, दीमापुर में भी घृणा की फसल बोने और काटने का यह सफल प्रयोग था
दीमापुर का नाम मैंने पहली बार बरसों पहले सुना था, जब मेरी दोस्त के पति की तैनाती आर्मी में होने के नाते दीमापुर में हुई थी। तब पता चला था कि दीमापुर उत्तरप्रदेश से इतनी दूर है कि इस नौकरी में वहां से साल में सिर्फ एक बार ही आ पाना मुमकिन है।
दीमापुर मेरे लिए बहुत दूर की कौड़ी थी। लेकिन इस जगह ने मन में कहीं पैठ बना ली थी, कि जब अपने पैरों पर खड़े होंगे तो दीमापुर भी जायेंगे।
बरसों बीते, वे यादें और मन की बात कहीं भीतर दब गयीं। अब अचानक दीमापुर इस तरह आ खड़ा हुआ कि भूचाल आ गया।
5 मार्च को दीमापुर की सड़कों पर हैवानियत का जो नंगा नाच हुआ वह इस देश ने शायद ही कभी इस तरह देखा हो। करीब दस हज़ार लोगों की भीड़ रेप के आरोपी को दीमापुर केन्द्रीय जेल से खींच कर बाहर ले आई। उसे मारा पीटा कहना तो घटना की भयावहता को कम करके आँकना है। आरोपी को नंगा किया गया। उसके गुप्तांगों को वीभत्स कर दिया गया। रेप के आरोपी के लिंग में डंडा बाँध कर बैल की तरह भीड़ उसे सड़कों पर घसीट कर घुमाती रही। नोचा खसोटा, उसे जीभर पीटती रही। भीड़ ने उसे ऊपर उछाल-उछाल कर जमीन पर पटका और जब वह तड़पने लगा तब उसके गले में रस्सी बांधकर बाइक से उसके नग्न शरीर को 7 किलोमीटर तक सड़क पर घसीटा, जिस वजह से कुछ ही दूर जाकर आरोपी ने दम तोड़ दिया। भीड़ की मर्दानगी इतने से नहीं शांत हुई तो उसके झूलते हुए मृत शरीर को शहर के बीचोबीच चौक पर ले जाकर टांग दिया।
दुखद यह है कि पाँच मार्च की इस घटना पर अब तक कोई अधिकृत सरकारी बयान नहीं आया है कि वास्तव में हुआ क्या था। सरकार ने मामला और न भड़कने की दलील देकर इंटरनेट भी बंद करा दिया। फिर भी जो तथ्य छनकर आ पाए हैं उनसे पता चलता है कि यह कथित रेप घटना के एक हफ्ते या दस दिन पहले हुआ था।
सवाल कई हैं। पहला सवाल यह कि अगर यह रेप काण्ड हफ्ता या दस दिन पहले हुआ था, आरोपी गिरफ्तार भी किया गया, इसका मतलब है कि इतनी भड़काऊ भीड़ कोई त्वरित प्रतिक्रिया नहीं थी। बल्कि इस भीड़ को बाकायदा सोच समझ कर भड़काया गया था, जिसके लिए इतना समय लिया गया।
लेकिन जब इतना बड़ा जनमानस तैयार किया जा रहा था, तब कई बेबुनियाद और बिलकुल झूठे 'तथ्य' फैलाए जा रहे थे। मसलन- आरोपी बांग्लादेशी घुसपैठिया है। जिस लड़की का रेप हुआ वह नगा है, और यह बांग्लादेशी मुसलमान घुसपैठिया बनाम नगा अस्मिता का मामला है। इसमें यह बात भी पूर्व प्रचारित थी कि बांग्लादेशी घुसपैठिये स्थानीय निवासियों का रोज़गार हड़प जाते हैं। मामले का स्वरूप ऐसा बना कि जनता के मन में बांग्लादेशी मुसलमानों के खिलाफ भारी नफरत का माहौल बहुत पहले से तैयार होता रहा है, उसमे नगा कम्युनिटी की इज्ज़त की बात ने आग में घी डाल दिया। एक चिंगारी भर मिलने की देर थी जो रेप कहते ही भड़क उठी।
लेकिन इतना भड़काऊ माहौल तो एक दिन में नहीं बन सकता। एक दिन में बना भी नहीं। बांग्लादेशी, घुसपैठिया, मुसलमान, देसी अस्मिता, औरतों की इज्ज़त पूरे समाज की इज्ज़त होना ये मूल्य किस विचारधारा के हैं? कौन लोग हैं जो देश की आजादी से भी पहले से इन बाँटने, तोड़ने, आग लगाने वाले मूल्यों को हर दिन प्रचारित प्रसारित कर रहे हैं। निश्चित तौर पर यह दक्षिणपंथी विचार है। तो ज़ाहिर है जैसे पूरे देश में नफरत बोई जा रही है, दीमापुर में भी घृणा की फसल बोने और काटने का यह सफल प्रयोग था।
यह सवाल इसलिए भी पूछा जाएगा कि जिस उत्तर पूर्व में आफ्सपा लागू है, जिसमे फ़ौज को चौबीस घंटे तलाशी और पूछताछ के लिए किसी भी नागरिक को बिना वारंट, बिना चार्ज शीट उठा ले जाने का निरंकुश अधिकार मिला हो, वहां इतनी भारी भीड़ को तैयार किया जाता रहा और फ़ौज और स्थानीय प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। यहाँ तक कि भीड़ बाकायदा आरोपी की तस्वीर लेकर जेल में घुसी और उसने सिर्फ आरोपी को पहचान कर बाहर घसीट लिया। इतनी बड़ी भीड़ को इकठ्ठा होने में कुछ समय लगा होगा, इन्हें जेल कूच करने में समय लगा होगा। तो प्रशासन और फ़ौज की निष्क्रियता को क्यों नहीं इस षड्यंत्र में शामिल होना माना जाना चाहिए। यह न मानने का क्या कारण है कि जो पुलिस मामूली आंदोलनों में छात्रों पर लाठी चार्ज कर देती है, आंसू गैस के गोले छोड़ सकती है, जो फ़ौज इन्ही आदिवासियों को कूच सकती है, आदिवासी औरतों के साथ आसाम रायफल्स के जवानों पर बलात्कार का आरोप है, वह पुलिस और फ़ौज अपनी वीरता नहीं दिखा पायी तो क्यों ?
अब तो यह तथ्य भी सामने आ रहा है कि इस मामले में कुछ जेल अधिकारी भी मिले हुए थे। फ़ौज और प्रशासन की यह चुप्पी दोषी भीड़ के साथ खड़ी हो जाती है। क्यों उस समय तैनात प्रशासन और फ़ौज के सभी अधिकारियों पर ह्त्या में शामिल होने का अभियोग नहीं चलाया जाना चाहिए। क्या इन्होने उस भीड़ को मौन समर्थन देकर ह्त्या के लिए बने गिरोह में ज़िम्मेदार अपराधी की भूमिका नहीं निभाई।
यह भी पूछा जाएगा कि आरोपी ने नगा स्त्री से शादी की थी। उनके एक तीन साल का बच्चा भी है। जिसके साथ रेप हुआ उसे आरोपी की नगा पत्नी की कजिन बहन बताया जा रहा है। तब इस मामले के तथ्यों से इरादतन इतनी भड़काऊ छेड़छाड़ किसने की।
अब यह तथ्य भी सामने आ रहा है कि आरोपी के पास असाम का ड्राइविंग लाइसेंस है। उसके पिता फ़ौज में रह चुके हैं। उसके दो भाई इस वक्त फ़ौज की नौकरी में हैं, क्या बंगलादेशी घुसपैठिये मुसलमान को भारतीय सेना ऐसे ही नौकरी दे देती है?
बात रेप पर भी करनी होगी। जिस संगठित भीड़ ने आरोपी पर हमला बोला उसे इसी बात से भडकाया गया था कि उनके समाज की लड़की के साथ रेप हुआ है, यह उस लड़की पर नहीं समाज की पवित्र योनि के मूल्य पर हमला था, जिसे एक मर्दानगी वाले समाज को बचाना ही चाहिए। जिसमे दम है वह आरोपी को जेल से घसीट कर मार डालेगा और जो नामर्द होगा वही कोर्ट के फैसले का इंतज़ार करेगा। और हमारे यहाँ इस समाज का मतलब मर्द होता है।
यह लड़की को इंसान होने के नाते बचाना नहीं था, यह लड़की को इज्ज़त देने वाली बात नहीं थी, इज्ज़त के नाम पर तो हमारे समाज में प्रेम करने वाली लड़की की ह्त्या कर दी जाती है, यहाँ उस लड़की की पीड़ा से भी कोई मतलब नहीं था, क्योंकि यहाँ पति को अपनी पत्नी को रोज़ ठोंकने बजाने का निर्विवादित अधिकार मिला हुआ है।
तो फिर यह भीड़ लड़की से किस तरह जुड़ रही थी? उत्तर पूर्व में औरतों का समाज बहुत खुला हुआ है, शेष भारत की तुलना में वहां लड़की को बाहर आने, जाने, अपनी मर्जी से प्रेम करने, विवाह करने, सम्बन्ध बनाने के अधिकार ज्यादा प्राप्त हैं, आदिवासी संस्कृति में साधारणतः रेप होते नहीं, और यदि बलात सम्बन्ध हो भी गये तो उसे शेष भारत की तरह के अर्थों में लड़की का ज़िंदा लाश बनना, या जीते जी मर जाना, या लड़की का सब कुछ खत्म होने जैसे पिछड़े और अधोगति वाले विचारों से नहीं जोड़ा सकता। यानी यह मामला लड़की के रेप से भी पूरी तरह जुड़ा हुआ नहीं था। तब उत्तर पूर्व के इस सुदूर जिले में आखिर इतना गुस्सा भड़कने की क्या वजह थी, यह सरकार और फ़ौज को बताना चाहिए। अगर मामला रेप का होता तो पूरे भारत में हर बीस मिनट में एक रेप काण्ड होता है, रेप के बाद लड़की को मार डालने या तेज़ाब डालने की बर्बरता हुई है, ऐसा वहशी काण्ड अगर रेप की प्रतिक्रिया थी तो यह 16 दिसम्बर के निर्भया काण्ड में क्यों नहीं हो पाया जहां फास्ट ट्रैक कोर्ट के बावजूद न्याय विलंबित हुआ है।
सवाल यह भी है कि अब तक साम्प्रदायिक हिंसा के कारण बलात्कार हुए हैं, बलात्कार के कारण साम्प्रदायिक हिंसा बड़े स्तर पर हो गयी हो, ऐसा बड़ा मामला देखने में नहीं आता। हाँ, ऐसी खबरों का दुष्प्रचार अफवाहों के तौर पर साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए खूब किया गया है।
हैरानी इस बात की है कि हम खुद मध्ययुगीन बर्बरता को मात करते हैं और हम आइएस या तालिबान पर सवाल उठाते हैं कि वे किस निर्ममता से क़त्ल करते हैं, उसके वीडियो बनाते हैं और उसे प्रचारित करते हैं। हमारा समाज भी तो वही कर रहा है, कत्ल कर रहा है, और भीड़ में शामिल लोग अपने मोबाइल से इसकी रिकार्डिंग कर रहे हैं।
इस घटना के सरलीकरण की कोशिशें लगातार हो रही हैं। मसलन क़ानून अपना काम नहीं कर रहा था, इसलिए भीड़ ने सज़ा दी। कोर्ट सजा सुनाने में देरी कर रहे हैं इसलिए भीड़ ने तुरंत न्याय कर दिया। इस मामले में तो हद है। अगर पाँच तारीख को आधार माना जाए तो घटना इसके हफ्ता दस दिन पहले की है। यानी दस दिन में न्याय की खूनी जिद। भारत में पुलिस जिस मानसिकता से काम करती है, उसमे अक्सर असल मुजरिम की जगह किसी की भी गर्दन में फंदा फिट कर दिया जाता है, उस देश में तुरंत न्याय का अर्थ है पुलिस को सर्वाधिकार संपन्न कर देना। पुलिस जिस को चाहे मुजरिम बना दे।
जैसा कि हो रहा है और जो इस पूरी बर्बर घटना का हासिल भी है, रेप पीड़िता की तकलीफ इस पूरी चिंता से गायब है। अब तो यह भी खबर आ रही है कि पीड़िता की मेडिकल रिपोर्ट आ गयी है, जिसे सार्वजनिक नहीं किया जा रहा, यह भी कहा जा रहा है कि शायद मेडिकल रिपोर्ट में रेप की पुष्टि नहीं हो रही।
अगर रेप हुआ भी हो, तो भी रेप एक वहशी हिंसा है, जो सेक्स से ज़्यादा ताकत का प्रदर्शन है। यह मर्दानगी का सवाल है, और मर्दानगी इज्ज़त का, और इज्ज़त माने ताकत। जहां निर्भया जैसे दरिंदगी के काण्ड होते हैं, जहाँ इंडियाज़ डाटर डाक्यूमेंट्री पर रोक लगाईं जाती है। मानसिकता वही कि औरत घर की इज्ज़त है इसे दाब ढाक कर रखो, कुछ हो भी जाए तो घर में मामला दबा दो, वरना लड़की की और बेईज्ज़ती होगी और लड़की की अक्षत योनि में पूरे समाज और देश की मर्दानगी और पितृसत्ता की इज्ज़त रखी हुई है, तो अपनी औरतों को कूचते , मारते, भ्रूण ह्त्या करते, उसका पोर्न देखते, उसे कोई प्रापर्टी राईट न देने , उससे बिस्तर पर ज़बरदस्ती करने वाला समाज अपनी औरतों यानी संपत्ति की हिफाज़त ऐसे ही करता है।
लेकिन बर्बर समाज को सभ्यता का पाठ पढ़ाने के लिए क़ानून है, संविधान है, संसद है, पुलिस है , फ़ौज है। आप यह कहकर नहीं बच सकते कि समाज की मानसिकता बदलने में समय लगता है। मानसिकता बदल जाती है, आप क़ानून बनाइये, उसका पालन करवाइए। और लड़कियों को हर क्षेत्र में हिस्सेदारी दीजिये, उन्हें घर से बाहर आने दीजिये, रोकिये मत। आम युवा को भी रोज़गार दीजिये। वरना जितनी तरह से आप समाज को बाँट रहे हैं, यह अराजक दिशा में बढ़ रहा समाज ज़िम्मेदार लोगों को भी चैन से जीने नहीं देगा। फर्क सिर्फ इतना होगा कि कोई आज मारा गया है और किसी को आने वाले कल में मार दिया जाएगा।
ज़ाहिर है कि मामले में कई पेंच हैं। इस बात से किसको फायदा हो सकता है कि नागालैंड और असम के समाज को उत्तर पूर्वी आदिवासी बनाम बांग्लादेशी मुसलमान घुसपैठियों में बाँट दिया जाए। जो ताकतें वोटों का ध्रुवीकरण कराने की राजनीति कर रही हैं वे ही इस बंटवारे से फायदे में हैं।
मौत के इस बर्बर खेल के पैरोकार इसी समाज में हैं और वे काफी ताकतवर जगहों पर विराजमान हैं। ‘सामना’ के संपादकीय में कहा गया है कि जो दिल्ली के निर्भया कांड में होना चाहिए था, वो नगालैंड में हुआ। जन भावना क्या होती है नगालैंड के लोगों ने दिखा दिया। शिवसेना का कहना है कि नागालैंड पहले से ही बांग्लादेशी घुसपैठियों के आक्रमण से परेशान है। लोगों ने कई बार आंदोलन किया, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला, जिसके चलते लोगों में असंतोष है। रेपिस्ट को फांसी पर लटकाया जाना भी इसी असंतोष का परिणाम है। कट्टर हिन्दू संगठन का भी यही रुख है जो शिवसेना का है। केंद्र सरकार की तो ठीक से कोई प्रतिक्रिया भी नहीं आई है सिवा इसके कि मामले की जांच करा रहे हैं। और राज्य सरकार इस मामले को दबाने में लगी है। जिसके तहत इंटरनेट सेवाएं भी बाधित हैं।
इतनी बड़ी घटना पर गृह राज्यमंत्री किरेन रिजीजू, जो भारतीय जनता पार्टी के सचिव एवं अरूणाचल प्रदेश से सांसद है, की ठंडी प्रतिक्रिया और भावहीन चेहरा चकित करता है। उनका रिएक्शन ऐसा है मानो यह रोज़ की बात हो। वे कह रहे हैं मामले को साम्प्रदायिक रंग न दीजिये। मतलब ? मामला साम्प्रदायिक बना दिया गया, बाकायदा भीड़ को इरादतन भड़का कर जेल अटैक हो गया, बर्बरता की सारी हदें पार कर आरोपी को इतनी निर्दयता से मार डाला गया, पुलिस-प्रशासन और फ़ौज चुपचाप सब होते देखते रहे, और रिजीजू कह रहे हैं मामले को साम्प्रदायिक नज़रिए से मत देखिये। तो किस नज़रिए से देखा जाए यह बताएं ज़िम्मेदार मंत्री महोदय?
इस दिशा में सारे संकेत साफ़ हैं कि इस मामले में एक समुदाय को दूसरे के खिलाफ भड़काने के लिए रेप जैसे अति संवेदनशील मुद्दे की आड़ ली गयी। यह पूरे राज्य को भयानक तरीके से साम्प्रदायिक हिंसा में झोंकने का षड्यंत्र भी हो सकता है। यह भी सोचा जाना चाहिए कि जिस नागालैंड में 90 फीसद आबादी ईसाई, हिन्दू 7 फीसद, और मुसलमान 1।8 प्रतिशत हैं वहां हिन्दू बनाम मुसलमान का ध्रुवीकरण किया जा रहा है। फिलहाल इस घटना का हासिल यह है कि अब तक 4000 से ज्यादा बंगाली मुसलमान (बंगाली माने बांग्ला भाषी न कि बांग्लादेशी ) नागालैंड से पलायन कर चुके हैं। नागालैंड और असम में कर्फ्यू के हालात हैं, नगा और बंगाली मुसलमान और असमी में खाई मरने मारने की हद तक गहरी कर दी गयी है, और बंटवारे की राजनीति करने वाले अपने मकसद में फिलहाल तो इंतिहाई सफल प्रतीत हो रहे हैं।
संध्या नवोदिता
संध्या नवोदिता, लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं, वे प्रगतिशील लेखक संघ की सदस्य हैं।