देशद्रोही-संघी आपातकाल के खतरे
देशद्रोही-संघी आपातकाल के खतरे
बिना जनता के देश की भक्ति
कन्हैया को फंसाना मुश्किल होता देखकर, अब शासन उमर खालिद उसी के सिर मढ़ने के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों और उनसे बड़ी संख्या में उनके साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ सडक़ पर उतर कर आवाज उठाने के लिए तैयार लोगों ने, 18 फरवरी की शाम देश की राजधानी के बीचो-बीच, जंतर-मंतर तक एक प्रभावशाली जुलूस निकाला। स्वाभाविक रूप से इस प्रदर्शन में राजधानी के सभी विश्वविद्यालयों के छात्रों तथा शिक्षकों के साथ ही, सोचने-समझने तथा रचने वालों की विशाल संख्या ने भी हिस्सा लेकर, मौजूदा शासन के साथ टकराव में जेएनयू के छात्रों के साथ अपनी एकजुटता का इजहार किया। बहरहाल, यह मार्च जितना अविस्मरणीय था, इसका मूल लक्ष्य या नारा, अपने पीछे छिपे संकेतों में उतना ही डरावना था।
यह मार्च ‘जेएनयू के लिए दिल्ली की सडक़ें दोबारा खोलने’ के लिए आयोजित किया गया था। क्या यह दहशत पैदा करने वाला नहीं है कि एक विश्वविद्यालय के लिए, राजधानी की सडक़ें इस तरह बंद कर दी जाएं कि उन्हें ‘दोबारा खोलने’ के लिए हजारों लोगों को सडक़ों पर उतरना पड़े!
दुर्भाग्य से, 9 फरवरी की बदमजगी पैदा करने वाली किंतु मामूली घटना को बहाना बनाकर, संघ परिवार और उसके द्वारा नियंत्रित सरकार ने सिर्फ हफ्ते भर में वाकई ऐसी ही स्थिति पैदा कर दी थी, जहां जेएनयू के लिए राजधानी की सडक़ें बंद कर दी गयी थीं।
जेएनयू में 9 फरवरी को जो कुछ हुआ या नहीं हुआ, उस पर इतना ज्यादा बोला-लिखा-दिखाया जा चुका है, जानकारियों के घटाटोप में सच छुप गया है। सचाई यह है कि अपनी सामाजिक-राजनीतिक जीवंतता तथा मुखरता के लिए और बहुलता तथा जनतांत्रिकता के लिए भी विख्यात, जेएनयू परिसर में 9 फरवरी को हुआ आयोजन, एक मामूली सा आयोजन था। यह आयोजन न तो छात्रसंघ द्वारा किया गया था और न विश्वविद्यालय के प्रमुख छात्र संगठनों में से किसी के द्वारा। हां! इसकी अपील जिन कुछ छात्रों ने की थी, उनमें एक धुर-वामपंथी छात्र गुट, डीएसएफ के कुछ पूर्व-सदस्य जरूर शामिल थे, जो पहले ही उससे बाकायदा नाता तोड़ चुके थे। स्वाभाविक रूप से यह किसी भी माने में जेएनयू के छात्रों या छात्र आंदोलन का प्रतिनिधित्व करने वाला आयोजन नहीं था, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि जेएनयू में तो ऐसा होता है या हो रहा है। लेकिन, यह आयोजन इस माने में जेएनयू के बुनियादी मिजाज के खिलाफ भी नहीं था कि यह, एक तो आम तौर पर आतंकवादियों और दूसरी ओर फौज के बीच पिस रही कश्मीरी जनता के प्रति हमदर्दी जगाता था।
यह संयोग ही नहीं है कि आयोजन का शीर्षक, ‘कंट्री विदाउट पोस्ट आफिस’ जो एक कश्मीरी लेखक के 1997 में प्रकाशित कविता संग्रह के नाम से लिया गया है, जिसके पीछे 1990 में एक बार सात महीने तक कश्मीर में डाक बंद रहने की वास्तविकता है।
दूसरे, प्रकटत: यह आयोजन अफजल गुरु की फांसी पर सवाल उठाता था, जो जेएनयू के मिजाज के खिलाफ नही था क्योंकि छात्रों की बड़ी संख्या सिद्धांत रूप में फांसी की सजा के ही खिलाफ है।
वास्तव में यह आयोजन बाहर की तो बात ही क्या है, खुद जेएनयू में भी प्राय: अनदेखा-अनसुना ही रह गया होता, अगर संघ परिवार और उसकी केंद्र सरकार ने, उसे देश के ही जीने-मरने का सवाल नहीं बना दिया होता। जैसाकि अब नियम ही बन गया है, इसकी शुरूआत संघ परिवार के छात्र बाजू, एबीवीपी की शिकायत से हुई। चूंकि संघ के मोदी राज में एबीवीपी को अघोषित रूप से सत्ताधारी पार्टी का ही दर्जा दे दिया गया है, उसकी शिकायत पर, संघ की छन्नी से निकलकर आए, नए वाइसचांसलर के नेतृत्व में विश्वविद्यालय प्रशासन ने फौरन उक्त कार्यक्रम के लिए इजाजत रद्द कर दी।
यह जेएनयू के लिए असामान्य चीज थी, जिसका छात्र संगठनों ने व्यापक रूप से विरोध भी किया। और बाद में जब कथित कल्चरल प्रोटैस्ट का आयोजन हुआ भी, उसे रुकवाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन के भरोसे न रहकर, खुद एबीवीपी के कार्यकर्ता मैदान में कूद पड़े।
ठीक इसी पृष्ठभूमि में उक्त आयोजन के लिए जमा मुश्किल से दो-तीन दर्जन लोगों और दूसरी ओर, एबीवीपी के लोगों के बीच, उत्तेजक नारेबाजी का मुकाबला हुआ। इसी उग्र मुकाबले के बीच, एक ओर से अगर ‘‘खून से तिलक करेंगे, गोलियों से आरती’’ जैसे हिंसक नारे लगे, तो दूसरी ओर से आजादी के नारे।
नारा युद्ध के बीच ही किसी समय फिसलकर कमान कश्मीरी युवाओं के और भी छोटे से गुट के हाथ पहुंच गयी होगी, जिसने ‘टुकड़े होंगे, इंशा अल्ला’ के नारे उछाल दिए।
जाहिर है कि कश्मीर की या किसी भी तरह की आजादी के साथ, वहां मर्दवाद समेत कितनी ही लानतों से आजादी के नारे भी लग रहे थे, कोई वामपंथी इंशाअल्ला का नारा नहीं लगाएगा। अतिवामपंथी छात्र संगठन, डीएसयू से जुड़ा रहा उमर खालिद जिसके नास्तिक होने की गवाही सब देते हैं, सिर्फ जन्म से मुसलमान होने से यह नारा नहीं लगा सकता है। लेकिन, कन्हैया का फंसाना मुश्किल होता देखकर, अब शासन उक्त नारे उसी के सिर मढ़ने के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है। यह तब है जबकि सुप्रीम कोर्ट 1962 में ही साफ कर चुका था कि राजद्रोह के आरोप के लिए, हिंसा का प्रत्यक्ष उकसावा होना जरूरी है।
जाहिर है कि कैसा भी नारा लगाना या भाषा करना, हिंसा के ऐसे उकसावे के बिना राजद्रोह के दायरे में नहीं आ सकता है।
बहरहाल, यह सब विश्वविद्यालयों में दो छात्र गुटों के बीच बादा-बादी का मामला बनकर खत्म हो गया होता, अगर अपनी सरकार के साथ संघ परिवार, इसे जेएनयू के खिलाफ हमले का नायाब मौका जानकर, तलवार लेकर कूद नहीं पड़ा होता। ‘देशविरोधी’ नारेबाजी को एक ही झटके में ‘‘देशद्रोह’’ और ‘‘राजद्रोह’’ के मामले में तब्दील कर दिया। भाजपा के सांसद ने छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया समेत, अनेक वामपंथी छात्र नेताओं के नामजद करते हुए एफआइआर दर्ज करा दी। इसके फौरन बाद, गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने देशविरोधी गतिविधियां बर्दाश्त न करने का एलान करते हुए, पुलिस को कड़ी कार्रवाई करने के आदेश दे दिए। विश्वविद्यालय प्रशासन ने, जो ‘देशद्रोही गतिविधियों’ के संघ पर परिवार तथा उसके प्रभाव में मीडिया के शोर के दवाब में, एक जांच कमेटी का गठन कर, हाथ के हाथ छात्र संघ अघ्यक्ष समेत आठ छात्रों को निलंबित करने का एलान कर दिया और जैसाकि अब साफ हो चुका है, पुलिस को अपने मन मुताबिक कार्रवाई की छूट दे दी।
पुलिस ने ‘‘राजद्रोह’’ के आरोप में छात्रसंघ के अध्यक्ष, कन्हैया को पकड़ लिया और विश्वविद्यालय के होस्टलों में विस्तृत छापामारी की, हालांकि छ: अन्य छात्र जिनकी पुलिस की तलाश है, जिनमें छात्र संघ के कुछ और पदाधिकारी भी शामिल हैं, पुलिस के हाथ नहीं आए हैं।
संघ परिवार और मोदी राज ने अपना फासीवादी चेहरा दिखा दिया है
बहरहाल, इस दमनकारी कार्रवाई के खिलाफ जेएनयू में और देश भर में बढ़ते विरोध के सामने, संघ परिवार और मोदी राज ने अपना फासीवादी चेहरा दिखा दिया है। जेएनयू तथा उसके बहाने से वामपंथ को ‘‘देशद्रोही’’ बताने, दिखाने की जो मुहिम बहुत पहले से चली आ रही थी, जिसका अंदाजा सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा पूरे जेएनयू पर ही हमला किए जाने और संघ के मुखपत्रों के जेएनयूविरोधी द्रष्प्रचार से लगाया जा सकता है, उसे नारा प्रकरण से नयी उग्रता तथा आक्रामकता मिल गयी। बहुत जल्द यह उग्रता सडक़ों पर नजर आने लगी। संघ से जुड़े लोगों ने, जिनमें साध्वी प्राची जैसे नाम नाम शामिल हैं, जेएनयू गेट पर उग्र तथा हिंसक प्रदर्शन कर, विश्वविद्यालय को ही बंद करने की मांग शुरू कर दी गयी।
उधर, पुलिस-प्रशासन के हमले के खिलाफ जेएनयू में आंदोलन कर रहे छात्रों-शिक्षकों को समर्थन देने पहुंचे सीताराम येचुरी तथा राहुल गांधी जैसे नेताओं को, संघ परिवार के अनेक मुंहों से ‘देशद्रोहियों को समर्थन देने वाला’ और इसलिए ‘देशद्रोही’ करार दे दिया गया। खुद भाजपा अध्यक्ष ने एक तरह से इसका अनुमोदन किया। इसका नतीजा सी पी आइ (एम) मुख्यालय पर हमले के रूप में सामने आया।
वैसे इससे पहले ही, देहरादून में एसएफआइ कार्यालय पर संघ परिवार का हमला हो चुका था। उसके बाद से देश के विभिन्न हिस्सों में वामपंथी कार्यालयों पर और वामपंथी रैलियों-विरोध प्रदर्शनों आदि पर, संघ परिवार के संगठनों ने हमले किए हैं और अब भी ऐसे हमले जारी हैं।
इसके बावजूद, सबसे डराने वाला था, दो दिन के अंतराल पर दो बार, राजधानी के पटियाला हाउस कोर्ट में कन्हैया की अदालत में पेशी को निशाना बनाकर किया गया, आरएसएस-भाजपा के वकीलों का भीषण और पूरी तरह से बिना किसी उकसावे का हमला।
दोनों हमलों के मौके पर ही नहीं, बाद में हमलावर भाजपा विधायक तथा वकीलों की शक्लें वीडियो के जरिए सारी दुनिया के देखने के बाद भी उनके खिलाफ काईवाई करने के मामले में भी, राजनाथ सिंह के नियंत्रण में दिल्ली पुलिस मूक दर्शक ही बनी रही है। पहले रोज जेएनयू के छात्रों व शिक्षकों के अलावा मीडियाकर्मी भी इतनी बड़ी संख्या में तथा इतने भारी हमले के शिकार हुए कि इसके खिलाफ देश भर में मीडियाकर्मियों के रोषपूर्ण प्रदर्शन हुए हैं।
दूसरे दिन, सुप्रीम कोर्ट के पूरी सुरक्षा देने के आदेश के बावजूद, पुलिस की हिरासत में कन्हैया कुमार पर इन वकीलों ने हमला किया। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा भेजे गए वरिष्ठ वकीलों के एक दल को जो कुछ देखने को मिला, उसकी रिपोर्ट उसने सुप्रीम कोर्ट को दी है।
एक ओर जेएनयू से शुरू कर, वामपंथ और अब तो समूचे विपक्ष को ही देशद्रोही बताने, दिखाने, साबित करने का खेल तेज हो गया और दूसरी ओर, इन देशद्रोहियों को भीड़ की हिंसा के जरिए ‘सबक सिखाने’ का जोश बढ़ता जा रहा है। हमलावर वकील दूसरों से देशभक्ति का सबूत मांगते हुए इंडिया गेट पर जुलूस निकालती हैं। एबीवीपी, देशद्रोहियों का साथ देने वाले सांसदों की संसद सदस्यता खत्म करने की मांग को लेकर संसद को घेर रही है। भाजपा, इस सब को सही ठहराने के लिए ही देशभक्ति और संविधान की रक्षा की शपथ लेने के अभियान चला रही है। हालांकि, इसके साथ ही वह जम्मू-कश्मीर में अफजल गुरु की फांसी की उग्रविरोधी, पीडीपी के साथ दोबारा सरकार बनाने की जोड़-तोड़ में भी लगी हुई है। इंदिरा गांधी की इजर्मेंसी के साथ, दूसरों को देशद्रोही करार देने के जरिए खुद को राष्ट्रवादी दिखाने की ऐसी ओट और भीड़ की हिंसा का सहारा जोड़ दीजिए-प्रधानमंत्री मोदी अपनी खामोशी और मुखरता दोनों से देश को इसी रास्ते पर धकेल रही है। सब मिलकर रोकेंगे, तभी बिना जनता के देश की भक्ति का यह बुलडोजर रुकेगा।


