देश का #विकास और #स्वतंत्रता का सवाल ?
देश का #विकास और #स्वतंत्रता का सवाल ?
आम तौर पर देश के आधुनिक विकास को 1947 में ब्रिटिश राज से मिली स्वतंत्रता का परिणाम मान लिया जाता है। आम उपयोग और उपभोग के बढ़ते मालों-सामानों आधुनिक मशीनों कल-कारखानों नगरों-बाजारों पुलों रेलों जैसे यातायात तथा संचार के आधुनिक साधनों आदि के भारी विकास के साथ शिक्षा चिकित्सा जैसे अन्य क्षेत्रों के विकास विस्तार को 1947 के बाद हुआ विकास बताया जाता है। 1947 से पहले ' देश में सुई न बन पाने और 1947 के बाद हवाई जहाज बनने जैसी कहावत के साथ स्वतंत्रता पश्चात हुए विकास पर मुहर लगाया जाता है।
देश के जनसाधारण में खासकर 1947 - 50 के बाद जन्मी पीढ़ी और उसमें भी पढ़े - लिखे लोगों तथा बेहतर जीवन जीते रहे लोगों की पीढ़ी देश के सारे आधुनिक विकास को 1947 की आजादी का ही परिणाम मानती रही है। यही पाठ- प्रचार वे अपने बचपन से सुनते और अलगी पीढ़ियों को सुनाती रही है। हालामकि इन पाठों - प्रचारों से अलग 1947 से पहले और उसके बाद होते रहे आधुनिक विकास पर थोड़ा ध्यान दें तो यह समझना कतई मुश्किल नहीं है कि इस देश के विकास का 1947 में मिली आजादी से कोई सम्बन्ध या कहिये कोई प्रमुख सम्बन्ध नही रहा है।
अगर इसमें कुछ सम्बन्ध 1947 के शुरूआती दौर में था भी, तो बाद के दौर में ( 1985 - 90 ) के बाद के दौर में वह बिलकुल नहीं रह गया। फिर 1947 से पहले और उसके बाद के विकास में कोई गुणात्मक या बुनियादी अंतर भी नही है। उसका अंतर मात्रात्मक है, जो देश में कम्पनी राज तथा 1858 के बाद ब्रिटिश महारानी के राज से लेकर 1947 में भारतीय प्रतिनिधियों द्वारा संचालित राज्य के दौर में एक क्रम में तथा कमोवेश एक ही लक्ष्य से चलता बढ़ता गया। औद्योगिक उत्पादन तथा व्यापार बाजार को लगातार बढ़ावा दिया जाता रहा है, पर देश के अपने तकनीकी तथा भारी मशीनरी वाले उद्योगों के विकास को ब्रिटिश काल से आज तक उपेक्षित किया जाता रहा है।
इस संदर्भ में यह देखना भी कत्तई मुश्किल नही है कि देश के आधुनिक विकास के अंतर्गत प्रमुखत: आधुनिक उद्योगों मालो सामानों बाजारों यातायात व संचार के साधनों आदि का विकास विस्तार तो होता रहा है, पर शिक्षा-चिकित्सा के संसाधनों के विकास के वावजूद शिक्षा व चिकित्सा की व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त कर उसको जनसाधारण की पहुंच के भीतर लाने का काम बहुत कम किया गया। खासकर 1985 - के बाद तीस 30 सालों में तो यह काम जनसाधारण के लिए पहले के मुकाबले उल्टी दिशा में बढ़ता रहा। यही स्थिति या कहिये उससे भी बुरी स्थिति खेती किसानी की तथा दस्तकारी उद्योगों से लेकर अन्य तमाम छोटे व लघु उद्योगों की परम्परागत दुकानदारी की एवं जनसाधारण से जुड़े अन्य क्षेत्रों की रही है। जन उपेक्षा या जनविरोधी विकास की यही प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ती रही है।
1950 में जमींदारी उन्मूलन कानून लागू किये जाने के बाद अगर देश के आधुनिक विकास की यह दशा उस दौर की राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों दबावों 1980 - 85 तक किसी हद तक तथा देश के सभी क्षेत्रों के विकास के रूप में समस्त जनता के थोड़े बहुत विकास के रूप में आगे बढ़ती रही, तो 1985 के बाद से वह विकास एकदन नग्न रूप में 1947 से पहले अंग्रेजी राज में होते रहे जनविरोधी के सीधी लाइन में बढ़ रही है।
1947 से पहले अंग्रेजी राज द्वारक देश का आधुनिक विकास आधुनिक व्यापकर आयात - निर्यात के साथ सड़को का विकास आधुनिक शासन-प्रशासन एवं कानून के तंत्र का विकास 1850 के रेल डाक-तार आदि के विकास के साथ आधुनिक शिक्षा का विकास और 1900 से ही कुछ पहले और बाद में बड़े उद्योगों का विकास उनके उत्पादित मालों सामानों के बाजार का विकास का कम प्रमुखता से किया जाता रहा है। इस विकास के चलते दस्तकारों बुनकरों एवं अन्य छोटे उत्पादकों के साथ किसानों एवं रियाया तबकों को मटियामेट करते हुए ब्रिटिश कम्पनियों के साथ उच्च भारतीय कम्पनियों को इसका लाभ पहुंचाया जाता रहा है। इस देश से कपास - जूट - चाय - चावल - गेंहू - चमड़े - मसाले - मेवे - फल सब्जियां अंडा गोश्त आदि के साथ ही खनिज पदार्थो का निर्यात किया जाता रहा — बाद के दौर में सिले या बिना सिले सूती ऊनी कपड़ो जूतों आदि का भी निर्यात किया जाता रहा। यह निर्यात आमतौर पर ब्रिटेन व अन्य साम्राज्यी देशों के सूद मूल तथा उनकी तकनीकों मशीनों एवं उच्च तकनीक वाले मालों मशीनों के मूल्य की अदायगी की शक्ल में किया जाता है।
वस्तुत: इन्ही व्यापारिक सम्बन्धों एवं आवश्यकताओं को लेकर 1947 से पहले विकास का चरित्र आज तक बना हुआ है। 1947- 80 तक की राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में अगर इस चरित्र पर कुछ पर्दा पड़ा रहा तो सोवियत रूस के पतन तथा अमेरिका के बढ़ते वैश्विक प्रभुत्व के साथ यह और ज्यादा उजागर होता रहा है। 1947 से पहले की तरह ही विदेशी व देशी कम्पनियों के स्वार्थी हितो को केंद्र में रखकर और उन्ही कम्पनियों को देश की अर्थव्यवस्था के हर प्रमुख क्षेत्र का मालिकाना देते और बढ़ाते हुए देश के आधुनिक विकास को साम्राज्यी देशों की पूंजी व तकनीक पर निर्भर विकास को आगे बढ़ाया जा रहा है।
अगर कोई यह कहे कि क्या इस विकास से देश और देश की जनता का विकास नहीं होता रहा, तो इसका स्पष्ट जबाब है कि जरुर होता रहा। लेकिन वह 1947 से पहले की तरह होता रहा है। अर्थात धनाढ्य कम्पनियों के निजी मुनाफ़ा लाभ व मालिकाने को बढ़ावा देने तथा राष्ट्र की श्रम सम्पदा के शोषण लूट के साथ होता रहा है। राष्ट्र पर विदेशी ताकतों के निरंतर बढ़ते प्रभाव प्रभुत्व के साथ होता रहा। राष्ट्र के बुनियादी ढांचे से लेकर कृषिगत एवं औद्योगिक विकास का काम मुख्यत: इन्हीं साम्राज्यी देशों के प्रभुत्व की विश्व बैंक एशियाई विकास बैंक और अन्य अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं तथा देश की धनाढ्य कम्पनियों की सलाहों सुझाव के अनुसार किया जाता रहा।
इसे 1950 के बाद कृषि क्षेत्र के आधुनिक विकास के उदाहरण से समझा जा सकता है। 1950 के बाद लाए गये जमींदारी उन्मूलन कानून के साथ खेती के आधुनिक विकास का नया काम शुरू किया गया। नहरों सरकारी ट्युबवैलों के विकास के साथ आधुनिक बीजो खादों की हरित क्रान्ति वाली कृषि को बढ़ावा दिया गया। कृषि उत्पादों के लिए सड़क एवं मंडी का विकास शुरू किया गया कृषि विकास के लिए ब्लाको को व्यवस्थित किये जाने के साथ चकबंदी के जरिये खेती के जोतो को संगठित करने का काम भी शुरू किया गया। -
क्या इसका मुख्य लक्ष्य खेती के मालिक किसानों का ख़ास तौर से छोटे या औसत किसानों का विकास था। एकदम नहीं। उसका लक्ष्य देश की कम्पनियों तथा देश में इंडिया लिमिटेड बनी विदेशी कम्पनियों के बाजार का विस्तार करना था। उनके कपड़ो जूतों दवाओं आदि जैसे उपभोग के सामानों के साथ उनके कृषि यंत्रो मशीनों पम्पसेटों ट्रेक्टरों आदि के बिक्री को बढ़ावा देना था।
यह काम जमीदारी व्यवस्था के साथ बंधे और प्रकृति आधारित खेती से जुड़े किसान नहीं कर सकते थे। न तो वे इन औद्योगिक मालों – सामानों की खपत बढ़ा सकते थे और न ही बढ़ते उद्योगों के लिए गन्ने का, जूता उद्योग के लिए चमड़े का प्रचुर मात्रा में उत्पादन कर सकते थे। वस्तुत: इन्ही दोनों प्रमुख जरुरतों के लिए कृषि विकास का कार्यक्रम जमींदारी उन्मूलन के साथ बढ़ाया जाता रहा। इसीलिए इसका परिणाम भी जहां विभिन्न औद्योगिक सामानों के उत्पादन में लगी कम्पनियों के निरंतर एवं भारी लाभ के रूप में आता रहा वहीं शुरुआत के 20 – 25 सालों तक, किसानों को भी इसका कुछ लाभ मिलने के साथ उनकी बढ़ती लूट के फलस्वरूप बाद में उसका परिणाम किसानों के संकटों के रूप में आता रहा।
ब्रिटिश राज के दिनों में विकास के ऐसे ही परिणाम ब्रिटिश कम्पनियों तथा इस देश की धनाढ्य कम्पनियों के भारी लाभ एवं विकास के रूप में और बुनकरों दस्तकारों एवं किसानों के विनाश के रूप में प्रत्यक्ष आता रहा है। इसीलिए ब्रिटिश राज के दिनों में देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे राष्ट्रवादियों ने उस विकास को विकास नहीं, बल्कि ब्रिटिश विदेशी कम्पनियों विदेशी राज द्वारा राष्ट्र की लूट पर निर्भरता एवं परतंत्रता का विस्तार बताया था।
1947 के बाद देश के विभिन्न पार्टियों के उच्च स्तरीय नेतागण एवं प्रचार माध्यम विद्वान् बुद्धिजीवी देश की स्वतंत्रता के बाद हुए विकास को समूचे देश का अर्थात् देश के समूचे जन गण के विकास का पाठ प्रचार चलाते रहे, पर उनके यह बयान व प्रचार अंग्रेज शासकों के उन बयानों प्रचारों से कत्तई भिन्न नहीं है, जो ब्रिटिश कम्पनियों के लुटेरी हितों के लिए किये गये विकास को इस देश का आधुनिक विकास कहते रहे हैं। भले ही यह बात 1947-50 के बाद तुरंत साफ़ नहीं हो पायी, लेकिन देश के बढ़ते विकास से धनाढ्य कम्पनियों का तेजी से हो रहा विकास तथा जनसाधारण की जीविका व जीवन का विनाश इसे एकदम स्पष्ट करता जा रहा है।
1947 में उन्हीं लुटेरी विदेशी ताकतों से सम्बन्धों को बढ़ाते हुए और मुख्यत: उन्हीं के पूंजी व तकनीक के जरिये किये जाते रहे विकास का यह परिणाम आना निश्चित था और वह आ भी रहा है। देश व विदेश की धनाढ्य कम्पनिया हर धर्म जाति क्षेत्र के उच्च हिस्से से लेकर बेहतर आय एवं सुविधा प्राप्त मध्यम वर्गीय हिस्से इसे अपना विकास देखते हुए समूचे देश का विकास मानते रहे हैं। उसे देश की स्वतंत्रता उपरांत हुआ विकास मानते रहे हैं। पर देश के मजदूरों किसानों तथा शारीरिक एवं मानसिक श्रम से जुड़े अन्य जनसाधारण हिस्सों के लिए यह विकास देशी व विदेशी लुट की प्रणाली एवं उसे संसाधनों के विकास के साथ राष्ट्र के परनिर्भरता एवं परतंत्रता का ही विकास है। उनके लिए 1947 से पहले के राष्ट्र वादियों एवं क्रान्तिकारियों द्वारा उस दौर के विकास के बारे में कही गई बातें आज भी पूरी तरह से सच हैं। इसीलिए अब इस राष्ट्र पर विदेशी ताकतों और उनके देशी समर्थकों सहयोगियों के लूट एवं प्रभुत्व को खुलेआम बढ़ावा दे रही वैश्वीकरणवादी नीतियों का विरोध किये बिना तथा इंग्लैण्ड अमेरिका जापान जैसे साम्राजयी ताकतों के साथ बढ़ाये जाते रहे परनिर्भरता एवं परतंत्रता के सम्बन्धों से इस राष्ट्र की मुक्ति का प्रयास किये बिना इस राष्ट्र का स्वतंत्रता पूर्वक एवं राष्ट्र के जनसाधारण के हितों के अनुसार विकास होने वाला नहीं है।
सुनील दत्ता- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक


