देश में विपक्ष की भूमिका और दिल्ली चुनाव
देश में विपक्ष की भूमिका और दिल्ली चुनाव
विपक्ष की भूमिका और सब का विकल्प
विपक्षी राजनीति पर आप की दिल्ली की जीत का असर और विपक्ष की भूमिका
इस मीडिया युग में एक खतरा और ज्यादा है, जहां एक अवास्तविक विपक्ष पर रौशनी केंद्रित रखने के जरिए, वास्तविक विपक्ष को कमजोर तथा उसी अनुपात में सत्तापक्ष को मजबूत भी किया जा सकता है। याद रहे कि पिछले आम चुनाव में देश भर में सबसे ज्यादा उम्मीदवार खड़े करने वाली आप पार्टी ने, एक हद तक ऐसी ही भूमिका अदा भी की थी।
एक बात निर्विवाद है। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी की झाडूमार जीत ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के विजय रथ को रोक दिया है। इस चुनाव में मोदी-शाह जोड़ी की भाजपा की हार कितनी जबर्दस्त है, इसका अंदाजा सिर्फ विधानसभा में भाजपा के सत्तर में से तीन सीटों पर सिमट जाने से नहीं लगाया जा सकता है, हालांकि इस तथ्य को ध्यान में रखें तो यह धक्का भी बहुत जबर्दस्त है कि सिर्फ नौ महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दिल्ली की सभी लोकसभाई सीटों पर ही कब्जा नही किया था, विधानसभा की पूरी साठ सीटों पर बढ़त दर्ज करायी थी। भाजपा की हार की गहराई का अंदाजा इससे भी लगता है कि 2015 के विधानसभाई चुनाव में भाजपा का मत फीसद, भाजपा में मोदी-शाह युग के आने से पहले 2013 में हुए दिल्ली के पिछले विधानसभाई चुनाव में भाजपा के मत फीसद से भी नीचे खिसक गया है, फिर लोकसभा चुनाव के मत फीसद से तुलना का तो सवाल ही कहां उठता है। इसी प्रकार, आप की जीत गहराई का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इस चुनाव में आप को 53 फीसद से ज्यादा वोट मिले हैं, जबकि खुद भाजपा द्वारा घोषित ‘मोदी सुनामी’ के बावजूद, 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ 31 फीसद वोट मिला था और इस सुनामी के बने रहने का सबूत बतायी गयी विधानसभाई चुनाव की जीतों के बाद भी महाराष्ट्र, हरियाणा तथा झारखंड में उसे तीस फीसद के करीब ही वोट मिला था।
मोदी-शाह की भाजपा की इस हार और आप की जीत का असर जाहिर है कि किसी तरह से सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं रह सकता है। वास्तव में अनेक राजनीतिक प्रेक्षकों का तो मानना है कि निकास मतदान सर्वेक्षणों में आप की जीत की स्पष्ट रूप से घोषणा किए जाने के साथ ही, खासतौर पर बिहार की ताजा राजनीतिक उठा-पटक के संदर्भ में, सत्ताधारी भाजपा की भूमिका में बदलाव शुरू भी हो चुका था। जदयू से जीतन राम मांझी की बगावत का साथ देते-देते भाजपा ने अचानक अपने पांव पीछे खींचने शुरू कर दिए। अचरज नहीं कि उसकी इस हिचकिचाहट से मांझी की बगावत अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाए। याद रहे कि मोदी-शाह की भाजपा की अगली बड़ी परीक्षा बिहार में ही होनी है, जहां नितीश-लालू के एका ने विधानभाई उपचुनाव के पिछले चक्र में अपनी कामयाबी से, मोदी लहर के लिए खतरे की घंटी पहले ही बजा दी थी। दिल्ली के चुनाव से मोदी की अजेयता का हर प्रकार के प्रचार के बल पर बड़ी मेहनत से खड़ा किया गया मिथक टूटने के बाद, बिहार में और आगे चलकर दूसरे राज्यों में भी, भाजपा की राह और मुश्किल हो जाने वाली है, यह कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
दूसरी ओर, जैसा कि अनेक विश्लेषणकर्ताओं का अनुमान है, दिल्ली के चुनाव के नतीजों का असर, इसी महीने के आखिर में शुरू होने जा रहे संसद के बजट सत्र पर भी पड़ेगा। इस सिलसिले में यह गौरतलब है कि राज्यसभा में, जहां संख्याओं का संतुलन विपक्ष के लिए कहीं ज्यादा अनुकूल है, पिछले सत्र में भी विपक्ष सत्तापक्ष पर काफी हद तक अंकुश लगाने में कामयाब रहा था। यहां तक कि मोदी सरकार को बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने तथा भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन जैसे अपने विवादास्पद कदमों के लिए, संसद का शीतकालीन सत्र खत्म होने के फौरन बाद, अध्यादेश जारी करने का सहारा लेना पड़ा था। बजट सत्र में सरकार को संसद से इन अध्यादेशों का कानून के रूप में अनुमोदन कराना होगा। दिल्ली के चुनाव नतीजे के बाद, विपक्ष की यह सक्रियता और नहीं बढ़े तभी अचरज होगा। मीडिया की खबरें अगर सच हैं तो मोदी सरकार ने उर्वरक सब्सीडी खत्म करने तथा मिट्टïी के तेल को राशन व्यवस्था से बाहर ही करने जैसे अपने पिछले बजट में घोषित ‘सुधारों’ को कम से कम फिलहाल टालने का मन बना लिया है। दिल्ली की जनता से अपने वादे पूरे करने पर ही ज्यादा ध्यान देने के आप पार्टी के सारे वादे अपनी जगह, आप पार्टी प्रकटत: जनता पर असर डालने वाले मुद्दों पर मोदी सरकार के विरोध की आवाजों से दूर नहीं रह सकती है। भूमि अधिग्रहण कानून तथा खाद्य सुरक्षा कानून जैसे मुद्दों पर और सांप्रदायिक ता के खतरे के सवालों पर, उसे मोदी सरकार के पक्के विरोधियों के साथ खड़ा होना ही होगा।
फिर भी देश के पैमाने पर विपक्षी राजनीति पर आप की दिल्ली की जीत का असर, बिल्कुल सीधा-सरल भी नहीं होगा। दिल्ली की जीत के बाद, आप पार्टी अगर सबसे पहले पंजाब पर अपना ध्यान केंद्रित करे तो शायद ही किसी को अचरज होगा। पंजाब ने लोकसभा चुनाव में इस पार्टी को इसकी चारों सीटें ही नहीं दी थीं, राज्यस्तर पर आप को करीब हरेक चौथा वोट भी मिला था। लेकिन, पंजाब में आप का बढऩा, कांग्रेस पार्टी की संभावनाओं की कीमत पर ही हो सकता है। यह चीज दूसरे अनेक राज्यों में तो चीजों को और भी उलझा देती है, जहां जैसा कि पिछले आम चुनाव ने दिखाया था, आप पार्टी मीडिया-प्रभावित शहरी मध्यवर्ग से आगे नहीं पहुंच पायी है। दिल्ली की जीत, आम आदमी पार्टी की एक साथ ‘सब का विकल्प’ बनने की ललक को बेशक बढ़ाएगी। ‘सब का विकल्प’ होने यानी इकलौतेपन की मुद्रा ही उसके मूल समर्थन आधार को सुरक्षित रख सकती है। लेकिन, दिल्ली की जबर्दस्त जीत भी आम आदमी पार्टी को ‘सब का विकल्प’ बना सकती है, मानना मुश्किल है। मुश्किल सिर्फ यह नहीं है कि आप पार्टी एक साथ देश में तमाम स्थापित राजनीतिक पार्टियों का विकल्प पेश करने की कोशिश कर रही है। मुश्किल यह भी है कि इस विकल्प में मुद्राएं ही ज्यादा हैं, ठोस वैकल्पिक दिशाएं बहुत कम। ऐसे में ‘सब का विकल्प’ की मुद्रा वस्तुगत रूप से सरकार के खिलाफ विपक्षी एकता को कमजोर करने का भी काम कर सकती है। इस मीडिया युग में इसका खतरा और ज्यादा है, जहां एक अवास्तविक विपक्ष पर रौशनी केंद्रित रखने के जरिए, वास्तविक विपक्ष को कमजोर तथा उसी अनुपात में सत्तापक्ष को मजबूत भी किया जा सकता है। याद रहे कि पिछले आम चुनाव में देश भर में सबसे ज्यादा उम्मीदवार खड़े करने वाली आप पार्टी ने, एक हद तक ऐसी ही भूमिका अदा भी की थी।
राजेंद्र शर्मा


