धन्यवाद हरीश रावत
धन्यवाद हरीश रावत
वीरेन दा ने कल आधी रात से पहले फोन करके पिता पुलिनबाबू के नाम दिनेशपुर के अस्पताल करने पर खुशी जताई।
कौन कहता है कि वीरेनदा बीमार है और उनको कैंसर है?
हमने शुरू से ही लिखा है कि वीरेनदा को कैंसर वैंसर छू नहीं सकता!
गौर कीजियेगा,यह महज जज्बाती बयां लेकिन नहीं है।
मैंने सतहत्त्तर साल की उम्र में रीढ़ की हड्डियां सारी की सारी कैंसर में सड़ जाने के बावजूद इस देश के हर कोने में दौड़ते एक इंसान को बिना कैंसर का इलाज कराये सिर्फ अपनी रूह और अपने लोगों की बेपनाह मुहब्बत के दम पर बिना रोके दौड़ते देखा है।
संजोग से वे मेरे पिता हैं।
वे तराई और पहाड़ के पुलिनबाबू हैं।
कोई शख्सियत नहीं वे मुकम्मल एक गांव हैं।
बसंतीपुर।
जिसके हर कण में मेरे पिता, मेरी मां और मेरे परिजन समेत उस गांव को बसाने वाले लोग और पूर्वी बंगाल में छूट गये तमाम उनके पुरखे जिंदा हैं और जिंदा रहेंगे।
उन सबकी रूह दरअसल मेरी रूह है।
रूह की ताकत जमीन और आसमान के दायरे से बाहर है।
मैंने यह सबक अपने पिता से सीखा, जिनने कैंसर होने की कोई खबर तक किसी को नहीं दी।
जब दौड़ते-दौड़ते आखिरकार गिर पड़े तो पता चला।
यकीन कीजिये, उनके दिलो दिमाग मरत दम तक जिंदा रहे।
उनके परम मित्र नारायण दत्त तिवारी जब मृत्युशय्या पर उन्हें देखने आये तो पिताजी से उनकी अंतिम इच्छा पूछा था विकास पुरुष तिवारी महाराजज्यू ने।
पिता ने कहा थाः कैंसर का दर्द झेल रहा हूं। मेरा इलाज नहीं हो सका, लेकिन मैं चाहता हूं कि तराई में कोई दूसरा शख्स कैंसर से हारे नहीं, मरे नहीं।
पिता ने तिवारी से कहा थाः मेरी गुजारिश है कि दिनेशपुर में कैंसर अस्पताल बना दें।
तब तिवारी के साथ उत्तराखंड और तराई के तमाम नेता थे। सत्येंद्र गुड़िया से लेकर हरीश रावत के खास सिपाहसालार यशपाल आर्य भी गवाह हैं।
फिर तिवारी मुख्यमंत्री बने पिता के अवसान के बाद और पिता से किया वायदा भूल गये।
हरीश रावत ज्यू ने कोई नया अस्पताल नहीं बनवाया।
तिवारी जी ने चित्तरंजन राहा के नाम पर 1956 में बने जीआईसी का नामकरण करके पिता को भूल गये तो उनने 1956 में ही बने अस्पताल का नाम पिता के नाम पर रख दिया।
1956 के आंदोलन के नेता थे पुलिनबाबू जिससे दिनेशपुर में सारी चीजें बनी और शरणारथी कालोनियां बसीं।
फिरभी हरीश रावत ने पिता को याद किया तो उनका आभार।
बेहतर है कि वे बाकी उत्तराखंड की भी सुधि लें।
हम तो पिता के लाइलाज कैंसर की विरासत ढो रहे हैं,जो दरअसल उनके जलते हुए सरोकार हैं।
उसके आगे कैंसर की क्या औकात ठैरी।
वीरेनदा का कुछो न बिगाड़ सकै हैं कैंसर।
हमारे पिता जिस उम्र में कैंसर से इस देश की माटी में महमहाते रहे, उस उम्र के लिहाज से तो वीरेनदा जवान ही ठैरे।
हमारे मुकाबले उस बच्ची अनुराधा मंडल को भी याद कीजिये कि किस बहादुरी से वे कैंसर का मुकाबला करती रहीं और कैंसर को हराते-हराते आखिरी बाजी में हार गयीं।
जब तक कवि वीरेनदा जिंदा है,कैंसर उनका कुछ न बिगाड़ सके हैं।
राजीव लोचन साह ने लिखा है, मुझे भी अच्छा लगा कि अन्ततः सरकार को पुलिन बाबू की याद तो आई। कभी-कभी चीजें कितनी अनायास हो जाती हैं।
और भी लोगों से संदेश आ रहे हैं।
उन सबका आभार।
उस मुहब्बत का भी आभार जिसके सहारे
हम रोज-रोज जीते हैं।
रोज रोज मरते हैं।
मर मर कर अग्निपाखी की तरह रोज फिर जीते हैं।
मोदी राज में कार्पोरेट सीधे मोदी को निर्देश देकर अपने काम करवा रहे हैं। एक नज़र इस खबर पर
‘देश का इस हद तक कॉर्पोरेटाजेशन हो चुका है कि भूमि हस्तांतरण और पर्यावरण जैसे गंभीर मसले पर इन्हें सरकार से इजाज़त लेने की कोई ज़रूरत नहीं है। हमारी संसद जहां धर्मांतरण के मुद्दे पर बाधित हैं, वहीं पूंजीपतियों के हितों के क़ानून संसद में बड़ी आसानी से पास किये जा रहे हैं। हर तरफ कार्पोरेट छाये हुए हैं, मोदी राज में कार्पोरेट सीधे मोदी को निर्देश देकर अपने काम करवा रहे हैं और किसी कैबिनेट मंत्री तक की यह हैसियत नहीं है कि वह अपने उनके मंत्रालय के अधीन बातों पर भी स्वयं कोई निर्णय ले सके। सारा निर्णय मोदी और कार्पोरेट के गठजोड़ से तय हो रहे हैं।’
ये बात मेधा पाटकर ने भारतीय सामाजिक संस्थान में फादर पॉल डे ला गुरेवियेरे स्मृति व्याख्यान में कही।
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए पाटकर ने कहा कि कार्पोरेट का धन सभी पार्टियों को मिल रहा हैं, परन्तु हमें निराश नहीं होना चाहिए,क्योंकि हमारे सामने जनांदोलन की सफलता के भी कुछ उदाहरण हैं। पश्चिम बंगाल का सिंगुर ऐसी ही एक सफलता है जहां गैर कृषि भूमि को छोड़कर कृषियोग्य भूमि पर कार्पोरेट अपना कब्ज़ा जमाने की फिराक में थी।
हालांकि यहां हमें पूरी सफलता नहीं मिल पायी है, क्योंकि टाटा ने अपना उद्योग गुजरात में हस्तांतरित कर दिया जहां सरदार सरोवर बांध से प्रतिदिन 60 लाख लीटर पानी इस कार फैक्ट्री को दिया जा रहा है।
गुजरात से सानंद में कोका कोला कंपनी को प्रति दिन 30 लाख लीटर पानी दिया जाता है। वहीं दूसरी तरफ झुग्गी बस्तियों और सार्वजनिक स्थानों से नल गायब किये जा रहे हैं, ताकि लोग बोतल का पानी खरीदने के लिए मजबूर हो।
मंच पर बिसलेरी की बोतल की और इशारा करते हुए मेधा पाटकर ने आगे कहा कि कम से कम जब तक संभव हो सके हमें कारपोरेट के उत्पादों के इस्तेमाल से बचना चाहिए।
कार्यक्रम के आरम्भ में अध्यक्षता कर रहे जेएनयू के प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र जोधका ने कहा कि आज लोकतंत्र खतरे में है। इस बात की ओर डॉ. अंबेडकर पहले ही इशारा कर चुके थे। और इसीलिए उन्होंने कहा था कि हम केवल संवैधानिक रूप से लोकतंत्र है परन्तु हमारे देश में सामाजिक लोकतंत्र का अभाव है।
कार्यक्रम में शरीक हुए प्रख्यात समाजशास्त्री आशीश नंदी ने कहा कि इस कार्पोरेट के जाल से बचाना इसलिए कठिन है, क्योंकि वह किसी एक पार्टी को नहीं बल्कि तमाम राजनैतिक पार्टियों के एक साथ चन्दा देते हैं, ताकि जो भी पार्टी सत्ता में आये वह कार्पोरेट हित के खिलाफ कोई क़दम नहीं उठा सके।
O- पलाश विश्वास


