राम पुनियानी
ईश्वर की अवधारणा शायद दुनिया की सबसे जटिल अवधारणा है। आस्थावानों के लिए यह परालौकिक शक्तियों के अस्तित्व में विश्वास की एक सुविकसित व्यवस्था है। अनीश्वरवादियों के लिए ‘‘मुझे नहीं मालूम’’ सर्वश्रेष्ठ उत्तर है तो नास्तिक, परालौकिक शक्ति में यकीन ही नहीं करते। आस्थावानों की भी कई श्रेणियाँ हैं- प्रकृतिपूजक, बहुईश्वरवादी, त्रिईश्वरवादी (ब्रह्मा, विष्णु, महेश या पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा) व एकेश्वरवादी (एक ईश्वर)। ईश्वर की अवधारणा भी साकार से लेकर निराकार तक की है। अलग-अलग धर्मों में ईश्वर की अलग-अलग अवधारणाएं हैं। कुछ धर्मों, जैसे बौद्ध व जैन में ईश्वर की अवधारणा ही नहीं है। यूनानी सभ्यता में बहुईश्वरवाद था। अनेक देवी-देवता थे, जिनके अलग-अलग गुण अथवा विशेषताएं थीं। प्राचीन आर्य भी बहुईश्वरवादी थे, जिनके अलग-अलग देवता धरती पर जीवन के अलग-अलग पक्षों की देखभाल करते थे और विभिन्न गुणों से लैस थे। हमारे देश में धन की देवी (लक्ष्मी), ज्ञान की देवी (सरस्वती) और शक्ति की देवी (दुर्गा) हैं। हमारे पास जल के देवता (इन्द्र), हवा के (मारूत), सेक्स के (कामदेवता) और यहाँ तक कि शराब के (सोम) देवता भी हैं। हिन्दू धर्मशास्त्र में ईश्वरीय शक्तियों का इंद्रधनुष है जो उसकी विविधताओं और जटिलताओं को रेखांकित करता है।

ईश्वर की अवधारणा मानव समाज में कब और कैसे आई, यह कहना मुश्किल है। विभिन्न अवधारणाएं अलग-अलग समय जन्मी। प्रकृति पूजा शायद सबसे पहले आई। इसके बाद बहुईश्वरवाद, एकेश्वरवाद व नास्तिकता की अवधारणाएं जन्मीं परंतु उनका ठीक-ठीक क्रम क्या था, यह जानने का कोई तरीका नहीं है। इसके बाद या साथ-साथ उभरे चार्वाक दर्शन, जैन व बौद्ध धर्म, जो या तो ईश्वर की चर्चा ही नहीं करते या फिर उसके अस्तित्व को नकारते हैं। जहाँ आज पैंगबर-आधरित धर्मों जैसे इस्लाम व ईसाई धर्म का एक निश्चित ढांचा है वहीं हिन्दू धर्म में असंख्य ईश्वरीय शक्तियां हैं। हिन्दू धर्म ने इन विविध अवधारणाओं को अपने में आत्मसात कर लिया है और उनका सह-अस्तित्व, इस धर्म को अपना एक विशिष्ट चरित्र देता है। यही कारण है कि अपने बचपन में मैं श्रद्धापूर्वक हनुमान चालीसा व रामायण पढ़ते हुए भी, महाभारत के दिलचस्प किरदारों के कारनामों का आनंद ले पाता था। मेरा परिवार व समुदाय एक ओर पीपल के पेड़ की पूजा करता था तो दूसरी ओर सांपों और बैलों की। मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैं लकड़ी के बैल लेकर अड़ोस-पड़ोस के घरों में जाता था और इनाम बतौर मुझे मिठाई या कुछ पैसे मिलते थे। हर शनिवार को हमारे घर तेल से भरे बर्तन लेकर याचक आते थे और मेरे दादाजी उन बर्तनों में कुछ सिक्के डाल देते थे। इसके साथ ही, वे राम की आराधना भी करते थे।

पिछले तीन दशकों में देश में कई ‘‘भगवान’’ उभरे जिनमें शामिल हैं महेश योगी, रजनीश, जे. कृष्णमूर्ति, आसाराम बापू व सत्यसाईं बाबा। इसी दौरान, वैष्णों देवी और शिर्डी के साईं बाबा की लोकप्रियता आसमान छूने लगी। भगवान सत्य साईं, जिनकी मृत्यु कुछ वर्ष पहले हुई, के अनुयायियों की संख्या भी बहुत बड़ी है और उन्हें शिर्डी के साईं बाबा का अवतार माना जाता था। शिर्डी के साईं बाबा के मंदिर बहुत-से शहरों में बन गए। उनकी पृष्ठभूमि भारत की मिलीजुली संस्कृति की प्रतीक थी। उनका जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था परंतु वे सूफी परंपरा के संत थे और हिन्दुओं व मुसलमानों, दोनों में खूब हिले-मिले थे। उनका जोर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मेलजोल बढ़ाने पर था। उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना उनके दर्शन की आत्मा से हमें परिचित करवाती है। सन् 1896 में उन्होंने वार्षिक सूफी उर्स मनाना शुरू किया जिसका लक्ष्य दोनों समुदायों के बीच प्रेम और सद्भाव बढ़ाना था। सन् 1912 में उन्होंने इस उर्स को रामनवमी के हिन्दू त्यौहार से मिला दिया और ये दोनों एक ही दिन मनाए जाने लगे। इससे उन्होंने सहयोग, सद्भाव और सहिष्णुता की सूफी परंपरा को मजबूती दी। इस उर्स में हिन्दू, मुसलमानों के साथ मस्जिद में प्रार्थना किया करते थे और दोनों धर्मावलंबी अपने-अपने तरीके से अपने ईश्वर की आराधना करते थे। बाबा, शिर्डी के स्थानीय खांडोबा मंदिर के पुजारी के माथे पर चंदन का टीका लगाते थे और फिर पुजारी, बाबा के माथे पर चंदन लगाते थे। बाबा में मानवता कूट-कूटकर भरी हुई थी और मानवता ही सभी धर्मों की मूल आत्मा है। धीरे-धीरे मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दू भी उनका सम्मान करने लगे।

आगे चलकर उनके हिन्दू अनुयायियों की संख्या, मुस्लिम अनुयायियों से ज्यादा हो गई और आज वे मुसलमानों की जगह हिन्दुओं के संत माने जाते हैं। हिन्दू धर्म में नए देवी-देवताओं के लिए हमेशा से जगह रही है। इसका उदाहरण हैं संतोषी माता और भगवान सत्यनारायण। साईं बाबा के अलावा, स्वामी रामकृष्ण परमहंस को भी ईश्वर का दर्जा दे दिया गया है। उनके अधिक प्रसिद्ध अनुयायी, स्वामी विवेकानंद ने उनके नाम पर एक मिशन की स्थापना की थी।

साईं बाबा की पूजा करने के मुद्दे पर शंकराचार्य, स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने (जून 2014) विवाद खड़ा किया। उन्होंने कहा कि शिर्डी के साईं बाबा, मुस्लिम संत थे और हिन्दू उन्हें अपना देवता नहीं मान सकते। उन्होंने यह भी कहा कि उनका यह अभियान हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए है और तमाम विरोध के बावजूद वे इसे जारी रखेंगे। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री साध्वी उमा भारती राम मंदिर आंदोलन की प्रमुख नेताओं में से एक थीं। इस आंदोलन का अंत, बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने से हुआ और इसने देश में दोनों सम्प्रदायों के बीच गहरी खाई खोदी। वे उमा भारती भी, साईं बाबा की भक्त हैं। स्वामी स्वरूपानंद को लिखे एक पत्र में उमा भारती ने कहा कि किसी को भी भगवान की तरह मानना और पूजना, हर व्यक्ति का व्यक्तिगत अधिकार है।

जहां हिन्दुओं का एक बड़ा तबका साईं बाबा को भगवान मानता है वहीं शायद यह पहली बार है कि किसी ने - और वह भी किसी शंकराचार्य ने - इसका विरोध किया हो। हिन्दू धर्म में कई परंपराएं एकसाथ जीवित हैं। शंकराचार्य जिस ब्राह्मणवादी परंपरा से हैं वह रूढि़वादी और कट्टर है जबकि हिन्दू धर्म की अन्य परंपराएं जैसे नाथ, तंत्र, सिद्ध और भक्ति कहीं अधिक लचीली हैं और परिस्थितियों के अनूरूप स्वयं को ढालने में सक्षम हैं। हिन्दू परंपराएं समय के साथ विकसित हुई हैं। जहां ब्राह्मणवादी परंपराएं यथास्थितिवादी हैं वहीं गैर-ब्राह्मणवादी परपंराएं लचीली और परिवर्तनशील हैं। वैष्णों देवी, साईं बाबा, संतोषी मां आदि जैसे देवी-देवताओं की लोकप्रियता में पिछले कुछ दशकों में आशातीत वृद्धि क्यों हुई, यह अध्ययन का विषय हो सकता है परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इसका एक कारण हिन्दू धर्म की नई परंपराओं को अपने में आत्मसात करने की क्षमता भी है। पैगम्बर-आधारित धर्मों में भी कई पंथ हैं जैसे कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट, शिया-सुन्नी, हीनयान-महायान व दिगम्बर-श्वेताम्बर। सभी धर्मों के कट्टरवादी संस्करणों का इस्तेमाल, राजनीति करने के लिए किया जाता रहा है। दक्षिण एशिया में इन दिनों जहां एक ओर धार्मिकता में तेजी से वृद्धि हो रही है वहीं धर्म और राजनीति का घालमेल भी बढ़ रहा है। राजनैतिक दुरूपयोग के लिए सामान्यतः धर्मों के पुरातनपंथी, दकियानूसी संस्करणों का इस्तेमाल किया जाता है। जैसे इस्लाम का वहाबी संस्करण व हिन्दू धर्म का ब्राह्मणवादी संस्करण। श्रीलंका, थाईलैंड और म्यांमार में बौद्ध धर्म के कट्टरवादी संस्करण का जोर बढ़ रहा है।

आस्था के मामले में हर व्यक्ति को स्वनिर्णय का अधिकार होना चाहिये। उस पर किसी विशेष आस्था या विश्वास को लादना समस्याएं खड़ी करता है और समाज में कटुता और बैरभाव का कारण बनता है। यही शंकराचार्य के विवादास्पद बयान के कारण हो रहा है। लोग किस पर आस्था रखें और किसे पूजें, यह उन पर छोड़ दिया जाना चाहिए। यही वह स्पष्ट संदेश है जो साईं बाबा के अनुयायियों ने शंकराचार्य के वक्तव्यों के जवाब में दिया है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay, and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved with human rights activities from last two decades.He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and ANHAD.