धर्मनिरपेक्षता की राजनीति और कांग्रेस के अस्तित्व का संकट
धर्मनिरपेक्षता की राजनीति और कांग्रेस के अस्तित्व का संकट
ये कैसी कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की राजनीति ?
ये कैसी कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की राजनीति - जानकार बताते हैं कि किसानों की ज़मीन लेने के लिए मादी सरकार जो कानून ला रही है उसे भी कांग्रेस के सहयोग से पास करा लिया जाएगा। हो सकता है कि कांग्रेस राज्य सभा से वाक् आउट करके बिल पास कराने में मदद करे। जहां तह श्रम कानूनों की बात है, उसमें तो कांग्रेस ने कभी भी विरोध का संकेत नहीं दिया।
नई दिल्ली। संसद के दोनों सदनों में बीमा बिल पास हो गया। इसका मतलब यह है कि विदेशी बीमा कम्पनियां अब अपने मन से भारत में बीमा कारोबार कर सकेगीं। मौजूदा संसद की स्थिति ऐसी है कि कांग्रेस की मदद के बिना नरेंद्र मोदी की सरकार कोई भी कानून नहीं पास करवा सकती, क्योंकि राज्य सभा में बीजेपी के पास संसद सदस्यों की संख्या ऐसी नहीं है कि वे अपने बूते पर कोई भी प्रस्ताव पास कारवा सकें। सबको मालूम है कि जिन कानूनों को बदल कर मौजूदा सरकार तथाकथित आर्थिक सुधारों को लागू करना चाहती है, वे पूंजीवादी अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांत हैं। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बड़े अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह खुद ही हैं। इन सुधारों को वे 1992 से ही लागू करने की बात कर रहे हैं, लेकिन संसद में ज़रूरी बहुमत कभी नहीं रहा, इसलिए वित्त मंत्री के रूप में भी और प्रधानमंत्री के रूप में भी वे सुधारों को लागू नहीं कर सके। अब उन्हीं सुधारों को नरेंद्र मोदी की सरकार लागू करना चाहती है, तो कायदे से तो कांग्रेस को उसका समर्थन करना चाहिए।
साफ़ बात है कि देश के लिए जो आर्थिक एजेंडा और उसको लागू करने का तरीका कांग्रेस लगाना चाहती थी, नरेंद्र मोदी की सरकार वही कर रही है। ऐसा इसलिए है कि दोनों का ही वर्ग चरित्र एक है। दोनों ही पूंजीवादी अर्थशास्त्र की घोर पोषक हैं। इसलिए कोई दिक्क़त नहीं आनी चाहिये। डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने विदेशी समर्थकों को हमेशा से ही यह भरोसा दिलाया था कि उनके लाभ के लिए भारत की बड़ी बाज़ार को खोलने के लिए वे बीमा में उनकी भागीदारी बढ़ाएंगे, ज़मीन के कानून उनकी सुविधा से बदल देगें और श्रम क़ानून उनकी ज़रूरत के हिसाब से बना दिए जायेंगे, लेकिन उनको अपनी पार्टी का समर्थन तो था, लेकिन सहयोगी पार्टियों का समर्थन नहीं था, लिहाजा वे उसे पूरा नहीं कर पाए। अब नरेंद्र मोदी की सरकार वही सब करना चाहती है तो कांग्रेस भी उनकी समर्थन में नज़र आ रही है।
जानकार बताते हैं कि किसानों की ज़मीन लेने के लिए मादी सरकार जो कानून ला रही है उसे भी कांग्रेस के सहयोग से पास करा लिया जाएगा। हो सकता है कि कांग्रेस राज्य सभा से वाक् आउट करके बिल पास कराने में मदद करे। जहां तह श्रम कानूनों की बात है, उसमें तो कांग्रेस ने कभी भी विरोध का संकेत नहीं दिया।
ऐसी हालत में लगता है की आज की कांग्रेस वह नहीं है जिसने आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व किया था। आम तौर पर माना जाता रहा है कि कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई की मूल मान्यताओं की हिफाज़त के अगले दस्ते के रूप में काम करेगी और देश के सबसे गरीब आदमी के साथ खडी नज़र आयेगी। लेकिन पूंजी समर्थक आर्थिक नीतियों के चलते ऐसा होता दिख नहीं रहा है। आज़ादी की लड़ाई की एक मुख्य मान्यता थी धर्म निरपेक्षता। पिछले तीस वर्षों में देखा गया है कि वह मान्यता भी ख़तम कर दी गयी है। ऐसी हालत में धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था।
जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है, वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था।
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है, वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है। 60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया।
महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - "अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया। लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने बहुत सारे लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।
कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी।वी। नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था।
पीवी नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पीवी नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आरएसएस की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। लेकिन आज एक बार फिर जब हर मुकाम पर मौजूदा सरकार के करता धरता धर्म निरपेक्षता को चुनौती देते हुए नज़र आ रहे हैं तो कांग्रेस को अपने कर्तव्यों की स्पष्ट निशानदेही करनी पड़ेगी और उसी के हिसाब से काम करना पड़ेगा।
आज कांग्रेस जो भी आलाकमान है, उसमें धर्मनिरपेक्षता को महत्व देने का रिवाज़ ही नहीं है। कांग्रेस के एक नेता, दिग्विजय सिंह ही हैं जो धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की बात करते हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उनकी पार्टी के ही बहुत सारे साफ्ट हिन्दुत्ववादी उनका विरोध करने लगते हैं। ऐसी हालत में अगर कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को मजबूती नहीं दे सकेगी तो उसके अस्तित्व पर सवालिया निशान लग जाएगा।
शेष नारायण सिंह


