धर्मनिरपेक्ष शब्द से कांप क्यों रहे हैं शब्दों के कातिल संघी ?
धर्मनिरपेक्ष शब्द से कांप क्यों रहे हैं शब्दों के कातिल संघी ?
धर्मनिरपेक्ष शब्द से कांप क्यों रहे हैं शब्दों के कातिल संघी ?
शब्दों के कातिल
देश बहुत बुरे दौर में दाखिल हो चुका है, हमारे शासक और उनके भक्त गण असहिष्णु हो चुके हैं। उन्हें शब्द अच्छे नहीं लगते, वे खुले आम कह रहे हैं “सेकुलरिज्म” का दुरुपयोग बंद करो। कल तक वे “सेकुलर” की आत्मा और शरीर पर हमले कर रहे थे, अब वे “धर्मनिरपेक्ष” शब्द के इस्तेमाल को बंद करने की मांग कर रहे हैं। मजेदार बात यह है कि राजनाथ सिंह के बोलते ही उनके फेसबुकगण “पंथ-निरपेक्षता” का नाम लेकर भाषा ज्ञान कराने उतर पड़े हैं। इससे एक बात का पता तो चलता है कि “सेकुलरिज्म” को लेकर इनके अंदर किस कदर घृणा भरी हुई है।
पहली बार सत्ता ने शब्द को ललकारा है
For the first time power has challenged the word
समाज में शब्दों की हत्या जब होने लगती है तो समझो सत्ता और समाज असहिष्णु हो गया है। मनुष्य के नाते शब्द हमारे हैं और हम शब्दों के हैं। हमने कभी नहीं कहा कि फलां शब्द का इस्तेमाल न करो। सत्ता के शिखर से पहले किसी ने नहीं कहा कि देश में “सेकुलरिज्म” या “धर्मनिरपेक्ष” पदबंध का इस्तेमाल न करो। सत्ता के कर्ताओं की शब्द विशेष को लेकर घृणा पहली बार नजर में आई है। यह पहली बार हुआ है कि सत्ता ने शब्द को ललकारा है, एक ऐसे शब्द को ललकारा है जिसमें 125करोड़ लोगों की आत्मा निवास करती है। पहले यह कभी नहीं हुआ कि सत्ता के शिखर से कहा गया हो कि धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग बंद हो।
शब्द महज शब्द नहीं होता
सवाल यह है धर्मनिरपेक्ष शब्द ने क्या बिगाड़ा है संघी सत्ताधारियों का ? इस शब्द से क्यों कांप रहे हैं ये लोग ? इस शब्द के क्यों पीछे पड़े हैं? जब संविधान दिवस पर संसद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह बोल रहे थे तो वे “सेकुलर” शब्द के खिलाफ बोल रहे थे, वे कह रहे थे, इस शब्द का प्रयोग बंद होना चाहिए।
राजनाथ सिंह भूल गए कि शब्द महज शब्द नहीं होता, उसके साथ विचार भी होता है, मूल्य भी होता है, संवेदनाएं भी होती हैं, शब्द महज शब्दकोश का शब्द नहीं होता। सवाल यह है “सेकुलर” शब्द में निहित विचार, संवेदना, अनुभूति आदि पर राजनाथ सिंह क्या सोचते हैं ? क्या उसे भी त्याग दें ?
ध्यान रहे संविधान दिवस के संदर्भ में सारी बहसें हो रही हैं। कुछ देर बाद वे बोले “सेकुलर” का हिन्दी में संवैधानिक अनुवाद है पंथ निरपेक्षता। धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग बंद करो।
राजनाथ सिंह से कहा किसने था “सेकुलर संविधान” की सौगंध खाओ
राजनाथ सिंह ने जाने-अनजाने “सेकुलरिज्म” के प्रति अपनी समस्त बुरी भावनाएं व्यक्त करके यह साबित कर दिया। राजनाथ सिंह पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं, जिम्मेदार नागरिक हैं, अनेक बार संविधान की सौगंध खा चुके हैं, हम जानना चाहते हैं कि उनको “सेकुलरिज्म” से क्या परेशानी है ? यदि परेशानी है तो काहे को “सेकुलर” राज्य का शासन संभालने गए ? किसने कहा था “सेकुलर” राष्ट्र की बागडोर संभालो, ”सेकुलर” राजनीति करो। “सेकुलर संविधान” की सौगंध खाओ।
“सेकुलरिज्म” से इतनी ही चिढ़, विरोध और घृणा मन में भरी है तो सीधे भाजपा के संविधान में लिखो कि भाजपा “सेकुलरिज्म” को नहीं मानती, उसकी “सेकुलरिज्म” में आस्था नहीं है, उसकी भारत के “सेकुलर स्टेट” में आस्था नहीं है, उसकी भारत के “सेकुलर सामाजिक ताने-बाने में आस्था” नहीं है। किसने रोका है भाजपा और आरएसएस को खुले आम “सेकुलरिज्म” का नाम लेकर विरोध करने से।
संघ को धर्मनिरपेक्षता पर छद्म रूपों में हमले बंद करने चाहिए। हमारे देश में उनको भी स्वतंत्रता प्राप्त है जो इस देश से नफरत करते हैं, ”सेकुलर स्टेट” से नफरत करते हैं। भाजपा तो “स्वतंत्र चेता” नेताओं का दल है उसे सबसे पहले अपने राजनीतिक कार्यक्रम में से “सेकुलरिज्म” का प्रयोग बंद करना चाहिए। आम जनता से “सेकुलरिज्म” के खिलाफ अपने “मन की बातें” चुनाव घोषणापत्र के जरिए कह देनी चाहिए। वैसे बहुत ही बारीकी से “मन की बात” का नायक यह काम कर रहा है, लेकिन हम चाहते हैं कि “सेकुलरिज्म” को लेकर संघ-भाजपा और मोदी सरकार एकदम पारदर्शी रुप में आचरण करें। संघी मंत्री-सांसद ईमानदारी से खुलकर “सेकुलरिज्म” का विरोध करें। उन तमाम सरकारी किताबों और दस्तावेजों से “सेकुलरिज्म” शब्द निकालने का आदेश दें जो पहले छप चुके हैं।
राजनाथ सिंह जब कल “धर्मनिरपेक्षता” शब्द का विरोध करते हुए “पंथ-निरपेक्षता” का विकल्प सुझा रहे थे तो मन में यह सवाल भी उठा कि “पंथ निरपेक्षता” पदबंध समाज में प्रचलन में क्यों नहीं आ पाया क्यों धर्मनिरपेक्षता पदबंध आम जनता के जीवन का कण्ठहार बन गया ? कभी इस पहलू पर गंभीरता से राजनाथ सिंह संसद के आधिकारिक दस्तावेजों का सर्वे कराएं कि संसद में “धर्मनिरपेक्षता” और “पंथ-निरपेक्षता” का हमारे सांसदों ने कितनी बार प्रयोग किया है ? इससे यह बात साफ हो जाएगी कि आम जनता के नेता अनुवाद की भाषा में बात करते हैं या मौलिक मन की भाषा में बात करते हैं !
सच्चाई यह है हिन्दी में ही नहीं भारत की किसी भी भाषा में “सेकुलरिज्म” का सटीक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध नहीं है। स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस समस्या पर संभवतः 1961 में कहा भी था कि यह आश्चर्य की बात है कि हिन्दी में “सेकुलर” शब्द का सटीक पर्यायवाची शब्द नहीं है।
राजनाथ सिंह जिस बात को लेकर अड़े हैं वह रुख सही नहीं है। उपन्यासकार बंकिम चन्द्र चटर्जी ने बहुत पहले एक जगह लिखा था कि अनुवाद का मतलब यह नहीं होता कि अंग्रेजी के एक शब्द का हिन्दी या बंगला में पर्यायवाची ढूँढ लें। शब्द का पर्यायवाची तो ढूँढ लेंगे लेकिन उस “आइडिया” का क्या करोगे जो शब्द में निहित होता है। सवाल यह है कि राजनाथ सिंह और उनकी समस्त संघी मंडली से हम जानना चाहते हैं कि वे “सेकुलर” के पीछे निहित विचार के बारे में क्या सोचते हैं ? क्या भारत “सेकुलर राष्ट्र है” ? क्या भारत “सेकुलर समाज है” ? क्या भारत में रहने के लिए “सेकुलर आइडिया” के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए ?
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