धर्म और धर्मनिरपेक्षता को असली खतरा धर्म-अध्यात्म के नाम पर चल रही निहित स्वार्थों की साजिशों से है

धर्म के मठ सामाजिक बदलाव के हर दौर में प्रतिक्रियावादियों के साथ रहे हैं

आर्ट ऑफ लिविंग बनाम आर्ट ऑफ चीटिंग

अनिल जैन

अपने देश में धर्म-अध्यात्म का चोला ओढ़े बाबाओं के पीछे पगलाए लोगों की कमी नहीं है। ऐसे लोगों में अनपढ़ या कम पढे-लिखे गरीब ही नहीं बल्कि उनसे भी ज्यादा अच्छे-खासे शिक्षित और खाए-अघाए लोग भी होते हैं। इन बाबाओं को राजनेताओं और सत्ता प्रतिष्ठान प्रश्रय मिलना भी कतई चौंकाता नहीं है। लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि किसी आध्यात्मिक गुरू के एक विवादास्पद आयोजन में भारत सरकार ने सारे नियम-कायदे ताक पर रखकर अपने पूरे तंत्र को ही नहीं, बल्कि देश की सेना तक को झोंक दिया।

पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में यमुना नदी के तट पर 'जीने की कला’ सिखाने का दावा करने वाले पांच सितारा आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर ने अपने 'आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन’ (Art of Living Foundation) के 35 वर्ष पूरे होने के मौके पर विश्व सांस्कृतिक समारोह नाम से विशाल जमावड़े का आयोजन किया।

इस आयोजन को लेकर पर्यावरणीय सवाल उठे। सवाल इतने जायज और बुनियादी थे कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने मामले का स्वत: संज्ञान लेते आयोजन पर सख्त ऐतराज जताया और अपने अंतरिम फैसले में आयोजक संस्था पर पांच करोड़ रुपए का आरंभिक जुर्माना लगा कर ही आयोजन को हरी झंडी दी।

एनजीटी ने इसके साथ ही कहा कि बाकी मुआवजा आयोजक संस्था से बाद में पर्यावरणीय क्षति का आकलन करके वसूला जाएगा।

एनजीटी के इस फैसले का संदेश साफ था कि कोई भी व्यक्ति या संस्था देश के कानून से ऊपर नहीं है। लेकिन इस विवादास्पद आयोजन से जाहिर हो गया कि हैसियत और रसूख के आगे नियम-कायदे किस तरह लाचार हो जाते हैं।

यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट में भी पहुंचा था। हाईकोर्ट ने पूरे मामले पर गौर करने के बाद इसे पर्यावरणीय तबाही कहा था। अलबत्ता एनजीटी में चल रही सुनवाई के कारण हाईकोर्ट ने अपनी ओर से कोई आदेश पारित करने से मना कर दिया था।

इस आयोजन को लेकर केंद्र सरकार की अतिशय दिलचस्पी और उदारता का अंदाजा दो तथ्यों से लगाया जा सकता है। एक यह कि सेना को वहां पंटून पुल बनाने में झोंक दिया गया। दूसरे, संस्कृति मंत्रालय ने आयोजन के लिए सवा दो करोड़ रुपए के अनुदान की घोषणा कर दी। तिस पर सत्ता की शह पाए आध्यात्मिक गुरू की हेकड़ी देखिए- उन्होंने कहा कि वे जेल चले जाएंगे पर जुर्माना नहीं भरेंगे। उनकी यह हेकड़ी और बदगुमानी न्यायपालिका की सरासर अवमानना थी। कोई सामान्य व्यक्ति अगर ऐसा करता तो निश्चित ही उसकी जगह जेल में होती लेकिन यहां तो मामला 'महाराजाधिराज’ के 'राजपुरोहित’ का था, इसलिए एनजीटी को भी अपमान का घूंट पीकर रह जाना पड़ा।

रविशंकर की ओर से पहले बताया गया था कि उनके इस महोत्सव का उद्घाटन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी करेंगे। लेकिन राष्ट्रपति ने आयोजन के चंद रोज पहले ही इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया। उन्होंने ऐसा शायद आयोजन पर न्यायपालिका और पर्यावरणविदों की ओर से उठे सवालों और मीडिया सोशल मीडिया में हो रही थू-थू के मद्देनजर किया और ऐसा लगा कि शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस आयोजन की 'शोभा’ नहीं बढ़ाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

प्रधानमंत्री ने न सिर्फ आयोजन में शिरकत की बल्कि अपने राजगुरू श्रीश्री रविशंकर का भी अपने भाषण में जमकर महिमागान किया।

आर्ट ऑफ लिविंग बनाम आर्ट ऑफ चीटिंग के इस धतकरम को जब देश का प्रधानमंत्री ही सगर्व वैधता प्रदान करने को तत्पर हो तो बाकी मंत्री कैसे पीछे रह सकते थे! सो गृह मंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री अरुण जेटली समेत अन्य कई वजीर, प्यादे और मुसाहिब भी राज्यप्रणीत इस आयोजन की श्रीवृद्धि करने पहुंचे।

कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने ऐसा करके साफ तौर पर जता दिया कि अपनों को उपकृत करने में वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।

दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के साथ नत्थी बाबा रामदेव और रविशंकर नाम के ये दो शख्स योग, अध्यात्म और संस्कृति के नाम पर अपनी श्रीवृद्धि के जो भी उपक्रम कर रहे हैं, उसे धंधेबाजी ही कहा जा सकता है। एक ने स्वदेशी के नाम पर अपनी आटा-दाल, घी-तेल, साबुन और सौंदर्य प्रसाधन की बहुराष्ट्रीय कंपनी खड़ी कर ली तो दूसरे ने ओशो यानी रजनीश की तर्ज पर अपने को विश्व स्तरीय आध्यात्मिक गुरू के रूप में स्थापित करने के लिए यमुना के तट पर सरकारी संसाधनों के जरिए तथाकथित सांस्कृतिकता का वैश्विक कुंभ रच डाला। अलबत्ता विद्वता के मामले में वह रजनीश के पासंग भी नहीं है। रामदेव और रविशंकर की तरह ही एक समय वह आसाराम भी भाजपा बल्कि यूं कहें कि संघ परिवार का ऐसा ही चहेता था, जो पिछले करीब तीन वर्षों से जेल की हवा खा रहा है।

सरकारी संसाधनों की मदद से यमुना के तट पर रविशंकर के इस आयोजन में तीन दिन तक जो कुछ भी हुआ उसे कोई न्यूनतम विवेक रखने वाला व्यक्ति भी सांस्कृतिक उत्सव नहीं मान सकता। दरअसल, वह सांस्कृतिकता के नाम पर धनबल, सत्ताबल और मठबल का अश्लील प्रदर्शन था। प्रसिद्धि की लिप्सा में पगा बालीवुड छाप वैभव-ग्लैमर का एक ऐसा शो, जिसका मकसद भारत का महिमा गान या भारतीय संस्कृति का प्रचार करना नहीं बल्कि रविशंकर को बतौर सांस्कृतिकता का रॉकस्टार पेश करना था।

बहरहाल, रविशंकर हो या रामदेव या दूसरे तमाम धार्मिक गिरोहों के सरगनाओं से धर्म, संप्रदाय और जाति आधारित राजनीति करने वाले भ्रष्ट और निकृष्ट राजनेताओं और समाजसेवी का लबादा ओढ़े दलालों-मुनाफाखोरों-जमाखोरों की जगजाहिर साठगांठ कई गंभीर सवाल खड़े करती है। ये ऐसे सवाल हैं जिनसे बचा नहीं जा सकता, क्योंकि 15 अगस्त, 1947 को जिस भारतीय राष्ट्र राज्य का उदय हुआ, उसका अस्तित्व धर्मनिरपेक्षता की शर्त से बंधा हुआ है।

धर्मनिरपेक्षता ही वह एकमात्र संगठक तत्व है, जिसने भारतीय राष्ट्र को एक संघ राज्य के रूप में बनाए रखा है। धर्म से क्रमश: अलगाव के बजाय राज्यसत्ता के साथ उसके रिश्तों को मजबूत बनाने में कुछेक दलों को छोड़कर कमोबेश सभी राजनीतिक दल बढ़-चढ़कर भूमिका निभाते हैं। इन दलों ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को विकृत कर उसे सभी धर्मों के पाखंडों के प्रति समभाव का अवसरवादी सिद्धांत बना दिया है।

दरअसल, भारत का शासक वर्ग बेरोजगारी
, भुखमरी और दमन से पीड़ित शोषित वर्ग को बरगलाने के लिए धर्म का इस्तेमाल कर रहा है।

एक सोची-समझी साजिश है कि लोग भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर गोलबंद न हों, इसके लिए धार्मिक आयोजनों के मंच सजाए जाएं और लोगों को परलोक और परमात्मा का भय दिखाकर अंधविश्वास और अज्ञान के अंधेरे में घेरा जाए। धर्म के नाम पर आपराधिक तत्व धर्माचार्यों का लबादा ओढ़ कर लोगों की आस्थाओं से खिलवाड़ करते हुए किस तरह अकूत दौलत का साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं और अपने आश्रमों में किस तरह आपराधिक गतिविधियां संचालित करते और भोली-भाली लड़कियों का यौन शोषण करते हैं, इसकी भी मिसालें हम हाल के दिनों में देख चुके हैं। ऐसे ही पाखंडियों में से कुछ तो इस समय जेल की हवा खाते हुए गंभीर आपराधिक मुकदमों का सामना भी कर रहे हैं।

अत: आज सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि धर्म और धार्मिकता को ढोंगी-पाखंडी, धूर्त-मक्कार और लुच्चे-लफंगे धार्मिक नेताओं तथा दलालों, मुनाफाखोरों, कालेबाजारियों और घोटालेबाजों के चंगुल से मुक्त कराकर उसे सही मायनों में मानवीय और सार्थक तथा सामाजिक अर्थों में चौकन्ना और जवाबदेह बनाया जाए।

वैसे धार्मिक पुनर्जीवनवाद की जिस चुनौती से हम आज जूझ रहे हैं वह कोई नई परिघटना नहीं है। इस चुनौती से स्वामी विवेकानंद को भी अपने जीवनकाल में दो-दो हाथ करने पड़े थे।

swami vivekananda
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स्वामी विवेकानंद कोई राजनेता नहीं थे। वे विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक व्यक्ति थे और भारतीयता के क्रांतिकारी अग्रदूत भी। उन्होंने धर्म के ठेकेदारों और ढोंगी-पाखंडी धर्माचार्यों के बारे में भारतीयजनों को आगाह करते हुए अपने प्रसिद्ध व्याख्यान 'कास्ट, कल्चर एंड सोशलिज्म’ में कहा है-

'सैकड़ों वर्षों तक अपने सिर पर गहरे अंधविश्वास का बोझ रखकर, सैकड़ों वर्षों तक केवल इस बात पर चर्चा में अपनी ताकत लगाकर कि किस भोजन को छूना चाहिए और किसको नहीं, और युगों तक सामाजिक जुल्मों के तले सारी इन्सानियत को कुचलकर आपने क्या हासिल किया और आप क्या हैं?...आओ, पहले मनुष्य बनो और उन पंडे-पुजारियों को निकाल बाहर करो जो हमेशा आपकी प्रगति के खिलाफ रहे हैं, जो कभी अपने को सुधार नहीं सकते और जिनका हृदय कभी भी विशाल नहीं बन सकता। वे सदियों के अंधविश्वास और जुल्मों की ही उपज हैं। इसलिए पहले पुजारी-प्रपंच का नाश करो, अपने संकीर्ण संस्कारों की कारा तोड़ो, मनुष्य बनो और बाहर की ओर झांको। देखो कि कैसे दूसरे राष्ट आगे बढ़ रहे हैं...।

यद्यपि विवेकानंद समकालीन राजनीति से दूर रहते थे, लेकिन उनका धर्म सामाजिक सत्ता के सवाल से लगातार टकराता था। यही कारण है कि राजनीति के प्रति विरक्ति का भाव रखने वाले विवेकानंद कई राजनीतिकर्मियों के लिए प्रेरणास्रोत बनते रहे। यही कारण है कि धर्म की आड़ में शोषणकारी समाज-सत्ता को बनाए रखने की इच्छुक ताकतें इस योद्धा संन्यासी को अपनी विचार-परंपरा का पुरखा बताकर उसे हथियाने की बार-बार फूहड़ कोशिश करती रहीं और अब भी कर रही हैं, ताकि उसकी प्रखर सामाजिक चेतना को छद्म सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के हित में इस्तेमाल किया जा सके। हालांकि इस खतरे का अंदाजा विवेकानंद को भी था। इसीलिए उन्होंने कहा था-

'कुछ लोग देश-भक्ति की बहुत बातें करते हैं। लेकिन मुख्य बात है, हृदय की भावना। यह देखकर आपके मन में क्या भाव आता है कि न जाने कितने समय से देवों और ऋषियों के वंशज पशुओं जैसा जीवन बिता रहे हैं? देश पर छाया अज्ञान का अंधकार क्या आपको सचमुच बेचैन करता है?...यह बेचैनी ही आपकी देश भक्ति का पहला प्रमाण है।’

दरअसल, धार्मिक पुनर्जीवनवाद की चुनौती सिर्फ सशस्त्र आतंकवाद ही नहीं है।

राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए चुनौती के रूप में दिखाई दे रहा सशस्त्र आतंकवाद धार्मिक पुनर्जीवनवाद का सिर्फ एक पहलू है। असल चुनौती तो मानसिक आतंकवाद की है। यह आतंकवाद सामान्य दृष्टि से दिखाई नहीं देता लेकिन विभिन्न समूहों की गतिविधियों को बारीकी से देखे तो इस आतंकवाद की खतरनाक तस्वीर सामने आती है। यह मानसिक आतंकवाद धार्मिक-आध्यात्मिक दुकानदारियों की आड़ में हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना को निरंतर खोखला बना रहा है।

धर्म और धर्मनिरपेक्षता को असली खतरा धर्म-अध्यात्म के नाम पर चल रही निहित स्वार्थों की साजिशों से है

धर्म के मठ सामाजिक बदलाव के हर दौर में प्रतिक्रियावादियों के साथ रहे हैं। काले धन से भरी तिजोरियों को धर्म की चादर से ढंक कर लोगों को ईश्वर के नाम पर बरगलाने का काम धर्म के ठेकेदारों ने हमेशा ही खूबसूरत आडंबरों के साथ किया है। पारलौकिक मृगमरीचिका में इनसान को फंसाकर उसे दुनिया के यथार्थ से दूर ले जाने का नाम ही आज 'धर्म’ है। धर्म के इसी मानव विरोधी स्वरूप से संघर्ष आज की पहली प्राथमिकता होना चाहिए। सामाजिक स्तर पर व्याप्त निराशा का यही वास्तविक कर्त्तव्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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