सीता का हरण एक साधु के भेष में धोखा देकर ही किया गया था व कालनेमि धोखा देने के लिए झूठा राम भक्त बन गया था।

वीरेन्द्र जैन

धर्म के नाम पर धोखा, महिलाओं का यौन शोषण
Cheating in the name of religion, sexual exploitation of women
पिछले कुछ वर्षों से धर्म के नाम पर धोखा देने और सम्पत्ति हड़पने, महिलाओं का यौन शोषण करने, से लेकर हत्या तक के समाचार लगातार प्रकाश में आ रहे हैं। सामाजिक व्यवस्था से निराश आम आदमी धार्मिक संस्थानों और उनके गुरुओं के पास बड़ी उम्मीद लेकर जाता है किंतु जब उसकी उम्मीदें वहाँ भी टूटती हैं तो उसके पास कोई चारा नहीं बचता। प्रत्येक धर्म अपने समय में मनुष्य की गहनतम समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिए अस्तित्व में आया होता है, किंतु उस पर अन्धविश्वास करने वाले उसे उसी काल में रोक कर उसकी जीवंतता को नष्ट कर देते हैं जबकि समय बदलता रहता है और लोगों की समस्याएं बदलती रहती हैं। लोगों के विश्वासों का विदोहन करने वाले उसे दूसरी अनजान अनदेखी दुनिया में हल मिलने का झांसा देकर अपनी अक्षमताओं को छुपाये रहते हैं जबकि धर्म अपने जन्मकाल में इसी दुनिया के इसी समय में स्वयं के महसूस करने की वृत्ति को बदलने के लिए पैदा होते रहे हैं।
We can not change events, but We can Attitude towards Change Under the Changing Events
सुप्रसिद्ध दार्शनिक और तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली डा.राधा कृष्णन जब अमेरिका यात्रा पर गये और जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जान एफ केनेडी उनकी अगवानी करने के लिए पहुँचे तब बरसात हो रही थी। राष्ट्रपति केनेडी ने मजाक में कहा- ओह, प्रैसीडेंट यू ब्राट रेन विथ यू! <राष्ट्रपतिजी आप अपने साथ बरसात लाये हैं> इस पर हमारे दार्शनिक राष्ट्रपति का उत्तर था- प्रैसीडेंट वी केन नाट चेंज इवेंट्स, बट वी केन चेंज अवर एट्टीट्यूड टुवर्ड्स दि चेंजिंग इवेंट्स <राष्ट्रपतिजी, हम घटनाओं को नहीं बदल सकते किंतु घटनाओं के प्रति अपने व्यवहार को बदल सकते हैं>

धर्म जड़ नहीं हो सकता
Religion can not be stable
धर्म आम तौर पर समाज परिवर्तन की नहीं, अपितु घटती घटनाओं के प्रति व्यवहार परिवर्तन की शिक्षा देने का तरीका रहा है। समय व क्षेत्र के अनुसार इस शिक्षा में परिवर्तन अवश्यम्भावी रहता है। धर्म जड़ नहीं हो सकता भले ही उसकी अनेक सलाहें लम्बे समय तक उपयोगी बनी रहने वाली हों। उसे निरंतर कसौटी पर कसे जाने की जरूरत हमेशा बनी रहती है और इसी कसौटी ने निरंतर धर्मों को विकसित किया है, उनमें परिवर्तन किया है, उनका नया नामकरण किया है। जीवंत धर्म को मनवाने के लिए ताकत लालच और अज्ञान का सहारा नहीं लेना पड़ता वह तो स्वयं ही व्यक्ति की जरूरत बन जाता है। स्वर्ग लालच है तो नर्क झूठाधारित भय होता है।
जैसे विश्वासघात वही कर सकता है जिस पर विश्वास किया हो, उसी तरह धर्म के नाम पर उसके अन्धविश्वासी ही धोखा खा सकते हैं। जो लोग भी धर्म के नाम पर धोखा देना चाहते हैं वे कहते रहते हैं कि धर्म के बारे में सवाल मत करो और गुरू के आदेश को आंख बन्द कर मानो। शायद यही कारण है कि मार्क्स को कहना पड़ा कि इससे अफीम का काम लिया जाता है। सच तो यह है कि धर्म जागरण होना चाहिए, धर्म को विवेक को विकसित करने वाला होना चाहिए, जो वह है भी। किंतु निहित स्वार्थी लोग उसे रहस्य बना कर उसके बारे में प्रश्न न उठाने की सलाह देकर उसे अफीम बना देते हैं।उसमें ये विकृत्तियाँ सदैव से नहीं रहीं। धर्म हमेशा से ऐसा नहीं था। कुछ लोकोक्तियों पर ध्यान दें तो बात समझ में आती है। जैसे कहा जाता रहा है- पानी पीजे छान कर, गुरू कीजे जानकर। जानना विवेक का काम है विश्वास का नहीं। यह परखना भी है। कबीर ने कहा है- जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। ये पंक्तियां भी इसी बात की ओर संकेत करती हैं कि साधु की जाति पूछना जरूरी नहीं है किंतु उसके ज्ञान को जानना परखना जरूरी है।
धार्मिक इतिहास बताता है कि पुराने काल में शास्त्रार्थ होते थे जो इस बात का प्रमाण है कि विचारों को आंख मूंद कर नहीं माना जाता था अपितु उस पर अपने तर्क वितर्क सामने रखे जाते थे। हमारी प्राचीनतम राम कथा में भी प्रसंग आता है कि सीता का हरण एक साधु के भेष में धोखा देकर ही किया गया था व कालनेमि धोखा देने के लिए झूठा राम भक्त बन गया था।

भारतीय संस्कृति की विशेषता
Characteristic of Indian culture
भारतीय संस्कृति की विशेषता ही यही है कि वह किसी एक किताब या गुरू पर जड़ होकर नहीं रह गया। यहाँ एक ही समाज में शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, और लोकायत दर्शन आते गये और कुछ अपवादों को छोड़ कर धीरे धीरे सहअस्तित्व के साथ रहते चले गये। लोगों ने विवेक पूर्वक अपने धर्मों का चुनाव किया। बाद में सिख धर्म आया, कबीर पंथी आये और पिछली शताब्दी में आर्य समाज ने बड़ी संख्या में विवेकवान लोगों को प्रभावित किया। साम्राज्यवाद द्वारा फैलायी गयी साम्प्रदायिक राजनीति के उदय के पूर्व तक बाहर से आये इस्लाम और ईसाई धर्म के साथ भी सहअस्तित्व बना रहा है जो जनता के स्तर पर अभी भी कायम है। हिन्दू मुस्लिम राजाओं के बीच धर्म के आधार पर कभी युद्ध नहीं हुए, जैसा कि कुछ साम्प्रदायिक संगठन बताते हैं। दोनों की सेनाओं में ही दोनों धर्मों के सिपाही रहे और उनके बीच राजसत्ता के लिए लड़ाइयाँ हुयीं।
आज के व्यापारिक साधु जब आपराधिक गतिविधियों में पकड़े जाते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया बहुत ही हास्यास्पद होती है। जैसे-

सरकार उन्हें फँसा रही है,

सरकार हमारे धर्म के लोगों को परेशान करना चाहती है

यह दूसरे धर्म के लोगों के तुष्टीकरण के लिए किया जा रहा है।

सम्बन्धित अधिकारी विधर्मी है,
आदि
उनके अन्धविश्वासी भक्त भी सामने आये सच को नहीं देखना चाहते और उनकी आधारहीन सफाई में भरोसा करने लगते हैं। सच तो यह है कि धार्मिक विश्वासों के आधार पर बने गिरोह ही आज इंसानियत के सबसे बड़े दुश्मन बने हुए हैं। एक भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में भी हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि के नाम पर राजनीतिक दल बने हुए हैं और जो लोकतत्र की भावना का दम घोंट रहे हैं। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, अकाली दल ही नहीं, आपितु एक झीने परदे के साथ भाजपा, शिवसेना, आल इंडिया यूनाइटिड डैमोक्रेटिक फ्रंट, व केरल के ईसाई लोगों के दल आदि भी इसी आधार पर धर्म के मूल स्वरूप को कलंकित कर रहे हैं। लोग अपने धार्मिक अन्धविश्वासों के आधार पर अपने दल का चयन कर रहे हैं, जबकि ऐसे दल अपने स्वार्थ के लिए न केवल उन्हें छल रहे हैं अपितु उन्हें धर्म के मार्ग से भटका रहे हैं। ऐसे ही दल छद्म धर्मगुरुओं को प्रश्रय देते हैं क्योंकि वे परस्पर सहयोगी होते हैं।
जैसे खोटे सिक्के असली सिक्के को चलन से बाहर कर देते हैं उसी तरह धर्म के मुखौटे लगाने वाले लोग धर्म की मानवीय भावना को धता बताते हुए उसे नष्ट कर रहे हैं। आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि धार्मिक संस्थाओं और उनके संचालकों के आचरणों को गहराई से परखते रहा जाय और अपने सवालों को बेबाकी से रखने में कोई संकोच न किया जाये। आम तौर पर ऋषि मुनि और दूसरे धर्म गुरु कम से कम साधनोंका प्रयोग करते हुए सादगी से रहते रहे थे जिससे धार्मिक संस्थानों की पारदर्शिता बनी रहती थी, किंतु अब स्तिथि बदल गयी है। धार्मिक संस्थानों के पास अटूट दौलत और अचल सम्पत्तियाँ हैं, जो धर्म के क्षेत्र में विकृत्तियों के लिए जिम्मेवार है। धर्मगुरू मोटी मोटी चारदीवारी में रहते हैं जिनके चारों ओर सशस्त्र गार्डों का पहरा रहता है। उनके पास धन के उपयोग की कोई योजना नहीं है और वे उस धन को समाज के हित में भी नहीं लगा रहे हैं। वे प्राप्त धन पर टैक्स मुक्ति की अनुमति लिए हुए होते हैं और काले धन को सफेद करने का काम करते हैं। जरूरी हो गया है कि धर्म को मानने वाले धर्म में आयी विकृत्तियों के खिलाफ भी निर्भयतापूर्वक मुखर हों। यह धर्म की रक्षा का काम होगा। इससे ही धर्म का भला होगा अन्यथा नकली लोग कानून की पकड़ में आने के पूर्व असली धर्म को नष्ट कर चुके होंगे।
विवेकानन्द की अनास्था और प्रश्नाकुलता ने ही उन्हें उस मंजिल तक पहुँचाया जहाँ से वे पूरे विश्व को सम्बोधित कर सके। यदि वे बचपन से ही अन्धभक्ति में पड़ जाते तो लाखों विवेकशून्य लोगों की तरह बिना कोई पग चिन्ह छोड़े इस दुनिया से कूच कर गये होते।
अविश्वास ही ज्ञान के मार्ग का प्रारम्भ बिन्दु होता है।