- राजेंद्र शर्मा

शायद नीतीश कुमार इसे अपनी कामयाबी ही मानेंगे कि महागठबंधन की सरकार के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देने के चौदह घंटे में ही उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी जा चुकी थी, इस बार एनडीए-जदयू गठजोड़ के नेता की हैसियत से। सब कुछ पूर्व-नियोजित होने के आरोप अपनी जगह, सत्ता प्रबंधन के कौशल के पहलू से वाकई इसे एक बड़ी कामयाबी माना भी जाएगा। यह 'कामयाबी’ इसलिए और भी बड़ी है कि बिहार के राजनीतिक परिदृश्य के जानकारों के अनुसार, जदयू विधायकों को अपने पीछे एकजुट रखने के लिए नीतीश कुमार को इसकी भारी जरूरत थी कि उनकी दो सरकारों के बीच संक्रमण का अंतराल छोटे से छोटा और वास्तव में नगण्य हो। नीतीश के इस्तीफा देेने के बाद, सरकार को लेकर अनिश्चितता की स्थिति में, उनकी पार्टी के विधायकों में फूट पड़ने की संंभावनाएं बहुत ज्यादा थीं।

ये संभावनाएं इसलिए और भी ज्यादा थीं कि महागठबंधन को तोड़ने और भाजपा की ओर हाथ बढ़ाने के अपने फैसले के लिए नीतीश कुमार ने, शरद यादव समेत अपनी ही पार्टी के किसी भी वरिष्ठ नेता से कोई सलाह-मशविरा करना जरूरी नहीं समझा था। इसके चलते पार्टी के संसदीय ग्रुप में फूट पड़ने की संभावना से तो, भाजपा के साथ नीतीश के नयी सरकार बना लेने के बावजूद इंकार नहीं किया जा सकता है।

सत्ता के सेकुलर : 2002 में भी नीतीश मोदी के साथ ही थे

बिहार के जदयू विधायक दल में नीतीश के बोलबाले के लिए इससे भले ही खास खतरा नहीं होता, फिर भी इस विधायक दल में कोई फूट पड़ने से, बिहार में सत्ता का गणित पलट भी सकता था और नीतीश-भाजपा का दांव उल्टा भी पड़ सकता था। नीतीश कुमार सत्ता हाथ से जाने के ऐसे किसी भी खतरे को टालने में कम से कम फिलहाल तो सफल नजर आ ही रहे हैं। लेकिन, इसी 'कामयाबी’ ने यह भी सुनिश्चित किया है कि 'भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए नीतीश की कुर्बानी’ को कोई भी गंभीरता से नहीं लेने जा रहा है, न बिहार से बाहर और न बिहार में ही। और क्यों न हो, नीतीश कुमार के जिस 'भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में जुड़ने’ पर खुद प्रधानमंत्री ने उनके राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंपते ही ट्वीट कर, 'बहुत-बहुत बधाई’ दी थी, उसके पीछे के 'सत्ता त्याग’ की उम्र मुश्किल से 14 घंटा निकली। इसलिए, अंतरात्मा की आवाज पर मुख्यमंत्री पद छोड़ने की अपनी मुद्रा से नीतीश कुमार किसी खास लाभ के उम्मीद नहीं कर सकते हैं।

उठो और जागो : खतरे में हैं संवैधानिक मान्यताएं.... ´घृणा´के बिना मोदी से प्यार पैदा नहीं होता

वास्तव में यही बात, खुद प्रधानमंत्री द्वारा पीठ ठोके जाने के बावजूद, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की नीतीश कुमार की सारी मुद्राओं पर भी लागू होती है। बेशक, भाजपा के साथ मिलकर नयी सरकार बनाने की और चार साल पहले की भाजपा के साथ गठजोड़ की अपनी सरकार की ही तरह, भाजपा के नेता सुशील कुमार मोदी को फिर से उपमुख्यमंत्री का पद देकर सरकार बनाने की जैसी हड़बड़ी नीतीश कुमार ने दिखाई दी है, उससे राजद को और जाहिर है कि कांग्रेस को भी हटाकर, भाजपा के नेतृत्व में एनडीए को सरकार में शामिल किए जाने का ही मुद्दा सबसे प्रमुख हो गया है। इसके बाद नीतीश कुमार लाख यह दावा करते हैं कि उन्होंने सरकार नहीं रहने की कीमत पर भी भ्रष्टाचार के साथ समझौता नहीं किया, इसका उनके पक्ष में खास प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। हां! इसके बावजूद नीतीश कुमार तथा उनके वफादार, राजनीतिक अवसरवाद के चौतरफा आरोपों की काट करने की कोशिश में यह दलील देना जरूर जारी रखना चाहेंगे कि लालू यादव के अपने पुत्र व तत्कालीन उपमुख्यमंत्री, तेजस्वी यादव से भ्रष्टाचार के आरोप में एफआइआर दर्ज होने के बाद भी इस्तीफा न दिलाने ने ही उन्हें, महागठबंधन तोड़ने के लिए मजबूर किया था।

बिहार एपिसोड : जब धर्मनिरपेक्षता थी ही नहीं तो उसे खतरा कैसा

लेकिन, भाजपा के साथ सरकार चला रहे नीतीश कुमार के लिए इस दलील का ज्यादा दोहन करना वैसे भी संभव नहीं होगा क्योंकि अंतत: तो यह दलील यही कह रही होगी कि जदयू-एनडीए गठजोड़, जदयू के लिए मजबूरी का ही चुनाव है। गठजोड़ और उसकी सरकार की मार्केटिंग के लिए यह मददगार हर्गिज नहीं होगा। उल्टे नीतीश कुमार के तेजस्वी के इस्तीफा न देने के जवाब में खुद इस्तीफा देने के बाद आनन-फानन में उनके भाजपा के साथ वैकल्पिक सरकार बना लेने से, उनके और उनकी फिर से सहयोगी बनी भाजपा के आलोचकों के इसके आरोपों को ही बल मिलेगा कि बिहार में तेजस्वी समेत लालू परिवार के खिलाफ सीबीआइ आदि की कार्रवाई के ताजातरीन चक्र से लगाकर, बिहार सरकार में भाजपा की वापसी तक का पूरा का पूरा घटनाक्रम, एक बनी-बनायी पटकथा के हिसाब से चला है। इस धारणा में अगर खलनायक की भूमिका में नरेंद्र मोदी होंगे तो, नीतीश कुमार उनके सहायक की भूमिका में ही नजर आएंगे।

......सिंहासन खाली करो कि......

इस सब को देखते हुए, यह समझ पाना वाकई मुश्किल है कि इस राजनीतिक पल्टी से नीतीश कुमार किस राजनीतिक लाभ की उम्मीद कर सकते हैं। जाहिर है कि अगर प्रधानमंत्री पद की उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए जरा सी भी कोई संभावना थी, तो विपक्ष के साथ ही थी, न कि भाजपा के साथ। दूसरी ओर, मुख्यमंत्री का मुख्यमंत्री ही बने रहना तो कोई लाभ की स्थिति नहीं कहा जाएगा। बेशक, आने वाले दिनों में नीतीश कैंप की ओर से उनके फैसले के बचाव में यह कहा जा रहा होगा और भाजपा द्वारा तो पहले ही जोर-शोर से इसका प्रचार शुरू किया जा चुका है कि खासतौर पर राजद के साथ गठबंधन से मुक्ति तथा भाजपा की सरकार में वापसी ही नीतीश कुमार का राजनीतिक हासिल है। जदयू के प्रवक्ता तथा महासचिव, के सी त्यागी ने तो यह कहकर काफी पहले ही इसका इशारा कर दिया था कि नीतीश कुमार भाजपा के साथ गठबंधन में 'ज्यादा सहज’ महसूस करते थे। बेशक, इस पर विश्वास करना मुश्किल है कि नीतीश कुमार ने सिर्फ इस 'ज्यादा सहज’ महसूस करने के लिए ही अपनी राजनीतिक साख तथा विश्वसनीयता को ही इस तरह दांव पर लगाया होगा। फिर भी अगर यह सच भी हो तो तब भी भाजपा के साथ गठबंधन सरकार में नीतीश कुमार का 'ज्यादा सहज’ महसूस करने की उम्मीद करना एक बड़ा छलावा ही साबित होने वाला है। इसके कारण समझ पाना मुश्किल नहीं है।

ब्रेकिंग : जद(यू) में टूट तय, 20 राज्यों के कार्यकर्ता शरद यादव के साथ

नीतीश कुमार ने 2017 में जिस भाजपा के साथ गठजोड़ किया है, 2013 तक की भाजपा नहीं है जिसके साथ उन्होंने गठजोड़ तोड़ा था। यह मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सत्ता आने में आने के बाद से खुद को लगातार विजय रथ पर आरूढ़ मान रही और विचारधारात्मक रूप से ज्यादा हमलावर भाजपा है। यह वह भाजपा है जिसे नितांत मजबूरी के बिना किसी के साथ सत्ता शेयर करना तो दूर, दूसरे किसी का बने रहना तक मंजूर नहीं है और जिनके साथ मजबूरी में सत्ता शेयर करती भी है, इस साझेदारी के दायरे में लगातार अपने साझेदार को दबाने तथा पीछे धकेलने की ही कोशिश कर रही होती है। महाराष्ट्र में शिव सेना के साथ जो हो रहा है, इसी का संकेतक है। इसके अलावा भाजपा के सत्ता में आने के बाद, बिहार में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की ताकतें जैसा तांडव दिखाने जा रही हैं और जल्द ही दिखाने जा रही हैं, नीतीश कुमार का सारा सहज महसूस करना वैसे भी काफूर हो जाने वाला है। सब रास्ते से भी नीतीश कुमार जल्द ही अपनी गर्दन के गिर्द फंदा कसते हुए महसूस कर रहे होंगे। वास्तव में और कुछ हो न हो इतना तय है कि बिहार की जनता द्वारा चुनाव में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की ताकतों के इस उन्मोचन के पूरे पांच साल के लिए रोके जाने के बाद, नीतीश कुमार ने अपने अवसरवाद से दो साल बाद ही इसके लिए रास्ता खोल दिया है। नीतीश कुमार का भाजपा के साथ में 'सहज’ महसूस करना, बिहार और उसकी जनता को काफी भारी पड़ने जा रहा है।

परिवारवाद व भ्रष्टाचार के गुनाहों को धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के से नहीं ढँका जा सकता

लेकिन, नीतीश कुमार की इस राजनीतिक-वैचारिक पल्टी की कीमत सिर्फ बिहार को ही नहीं, पूरे देश को ही चुकानी पड़ेगी। जैसाकि प्राय: सभी टिप्पणीकारों ने दर्ज किया है, नीतीश कुमार की इस चाल ने बिहार में महागठबंधन को ही ध्वस्त नहीं किया है, जिसने आम चुनाव में जबर्दस्त कामयाबी के बाद, खुद को अजेय मान रहे मोदी के विजय रथ को रोका था बल्कि इसने ज्यादा से ज्यादा सांप्रदायिक, तानाशाहीपूर्ण तथा कार्पोरेटपरस्त होते दिखाई दे रहे मोदी राज के खिलाफ एक वास्तविक विकल्प की कल्पनाओं पर भी भारी आघात किया है। यह आघात सिर्फ नीतीश कुमार के अपनी पार्टी का पाला बदलवा देने तक ही सीमित नहीं है। यह आघात विकल्प की संभावना मात्र पर है। यह दूसरी बात है कि जैसा कि सी पी आइ (एम) महासचिव, सीताराम येचुरी अपने एक साक्षात्कार में याद दिलाया है, एनडीए प्रथम का विकल्प नीतीश कुमार के वाजपेयी सरकार में होने के बावजूद विकसित हुआ था। नीतीश कुमार के जाने से भी सब कुछ खत्म नहीं हो गया है।