कब तक बचेगी नदी

जंगल भी बचाना जरूरी है और पानी के छोटे बड़े स्रोत भी

It is also necessary to save the forest and small and big sources of water

नई दिल्ली। पहली बार चैत के महीने देश के आधे से ज्यादा राज्यों से पानी के भीषण संकट की खबरें आ रही हैं। पानी या तो मिल नहीं रहा या फिर दूषित पानी मिल रहा है। फिलहाल देश के कुछ इलाकों में राहत है, जिसके चलते एक तरफ से दूसरी तरफ रेल से भी पानी भेजा जा रहा है। पर यह कब तक संभव है। पानी के ज्यादातर छोटे स्रोत यानी ताल, तालाब और कुओं को हमने पहले ही बर्बाद कर दिया। अब नदियों और समुद्र को खत्म करते जा रहे हैं। छोटी-छोटी नदियां सूखती जा रही हैं तो बड़ी नदियां इतनी ज्यादा प्रदूषित हो गयी हैं कि उनका पानी कोई पी नहीं सकता। अपवाद कुछ नदियां हो सकती हैं जिनमें नेपाल से आने वाली गेरुआ नदी हो या राजस्थान मध्य प्रदेश से आने वाली चंबल नदी हो। ये सिर्फ इसलिये बच गयीं, क्योंकि किसी शहर से होकर नहीं गुजरीं।

शहर से गुजरने वाली नदियों जैसे गंगा, यमुना, गोमती से लेकर झेलम तक किस हाल में हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। अब तो नदियां अपने उद्गम स्थल से कुछ दूरी का सफ़र भी सुरक्षित ढंग से पूरा नहीं कर पा रही हैं।

गंगा को ही लें, यह गंगोत्री में कुछ दूर जाते ही प्रदूषित होने लगती है। गंगोत्री से उत्तरकाशी के बीच करीब दर्जन भर कस्बे हैं, जिनका कचरा भागीरथी में बहा दिया जाता है। टिहरी में तो शहर का छोटा बड़ा नाला भागीरथी में जाता है। इसके बाद हर शहर और क़स्बा जो गंगा के बगल में आता है अपना सारा कूड़ा करकट और सीवर का कचरा इसमें बहाता जाता है। हम एक तरफ गंगा में गंदगी डालते हैं और दूसरी तरफ उसकी पूजा करने का नाटक भी करते हैं। इस क्रम में ऋषिकेश और हरिद्वार के साधू संतों के आश्रम भी अपनी छोटी-बड़ी भूमिका निभाते हैं।

यह एक पवित्र, ऐतिहासिक और बड़ी नदी का हाल है। अब एक छोटी नदी की बात।

महाराष्ट्र का रायगढ़ जिला मुंबई से करीब सत्तर किलोमीटर गोवा के रास्ते पर पड़ता है। इसी अंचल की एक छोटी पर मशहूर नदी है पाताल गंगा। यह आसपास के मछुवारों के लिये किसी समय वरदान मानी जाती थी, पर अब यह अभिशाप बन गयी है। इसके उद्गम स्थल पर ही कई रासायनिक उद्योग लगाये गये जिनके जहरीले कचरे से पहले यह नदी प्रदूषित हुई, फिर उसके किनारे की आबादी। अब इस नदी में मछली ही नहीं होती। इस तरह से देश की बहुत सी छोटी नदियां हम खुद तबाह कर रहे हैं।

पश्चिम में ही वापी में दमन गंगा अब जहरीले नाले में बदल चुकी है तो कभी मुंबई में मीठे पानी के लिये मशहूर मीठी नदी अब गंदा नाला है।

नैनीताल के भवाली से गुजरते बड़े नाले के बारे में कई साल बाद पता चला कि यह शिप्रा नदी है, जिसके उद्गम स्थल पर ही लोगों ने अतिक्रमण कर मकान बना डाला है तो इसके खादर की जगह पर कालोनी बन चुकी है। बनारस में वरुणा और असी तो लुप्त होती जा रही हैं जिनके नाम पर वाराणसी बना। जहां ये दिखती हैं वहां लगता है कोई नाला बह रहा है।

दक्षिण में पेरियार नदी जो पश्चिमी घाट से निकल कर करीब ढाई सौ किलोमीटर का सफ़र कर अरब सागर तक जाती है, वह अब पानी नहीं जहरीला रसायन समुद्र में डाल रही है। यह कुछ उदाहरण हैं कि किस तरह हम नदियों को बड़ी सीवर लाइन में बदल रहे हैं और साफ़ पानी के संकट का रोना भी रोते हैं।

दरअसल पानी को लेकर हमारी दृष्टि ही साफ़ नहीं है। न हम कुओं, ताल तालाब का महत्व समझ पाये न नदी समुद्र का। एक चैनल पर किसी एंकर को कहते सुना कि बरसात का सारा पानी बटोर लेना चाहिये, ताकि समुद्र में जाकर बर्बाद न हो। यह नहीं पता कि समुद्र को अगर यह पानी नही मिला तो वह मानसून का निर्माण ही नहीं होगा जो हिमालय से टकरा कर समूचे इस अंचल को पानी देता है। समुद्र में गया पानी कभी बर्बाद नहीं होता बल्कि वह पानी बर्बाद होता है जिसे हम जहरीला बना रहे हैं। वह न पीया जा सकता है, न खेती के काम आता है।

नदी के पानी को लेकर अगर हमने अपनी दृष्टि नहीं बदली तो कुछ दिन बाद कहीं भी पानी का संकट होने पर दूसरी जगह से भी पानी नहीं भेज पायेंगे।

अभी भी समय है सोचने का कुछ करने का। नदी नहीं बची तो पानी का संकट बहुत गंभीर होगा। इसलिये जंगल भी बचाना जरूरी है और पानी के छोटे बड़े स्रोत भी। अपने लिये नहीं आगे की पीढ़ी के लिये।

अंबरीश कुमार

(शुक्रवार)

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