शेष नारायण सिंह
लोकसभा चुनाव 2014 में शानदार जीत के बाद हुए उपचुनावों में भाजपा को वह आनंद नहीं आ रहा है जो उसने 16 मई 2014 को अनुभव किया था। लगातार झटके लग रहे हैं। ताज़ा उपचुनाव में उत्तर प्रदेश और राजस्थान से आ रहे संकेत ऐसे नहीं हैं जिन्हें भाजपा वाले पसंद करेगें। दोनों ही राज्यों में भाजपा के उम्मीदवार उन सीटों पर हारे है जहां इसके पहले हुए चुनावों में भाजपा को जीत हासिल हुयी थी। उत्तर प्रदेश में तो वे सीटें हैं जहां 2012 के उस चुनाव में भाजपा ने इन सीटों को जीता था जब राज्य में पूरी भाजपा पचास सीटों में सिमट गयी थी। भाजपा वालों को भी पता है कि हार गैरमामूली है और मुकम्मल है। लेकिन एक बात और भी सच है कि यह नतीजे समाजवादी पार्टी की जीत भी नहीं है। यह अलग बात है कि समाजवादी पार्टी के आला नेता मुलायम सिंह यादव इसको अपनी जीत बता रहे हैं। लेकिन यह उनकी जीत बिलकुल नहीं है। उनकी पार्टी के उम्मीदवार केवल इसलिये जीते क्योंकि भाजपा की राजनीति को नकारने का मन बना चुकी जनता के सामने कोई और विकल्प नहीं था। यह इस बात का भी सबूत है कि अगर जनता मन बना ले तो राजनीतिक पार्टियों को ज़रूरी सबक सिखाती ज़रूर है हालात चाहे जो भी हों। मसलन बिहार में लालू और नीतीश एक हो गए तो जनता ने भाजपा को औकात बता दी। उत्तर प्रदेश में भाजपा के रणनीतिकार मानकर चल रहे थे कि उसके खिलाफ पड़ने वाले वोट कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के बीच बंट जायेगें लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस चुनाव में वोटों की ठेकेदारी करने वाली जमातों को भी झटका ज़रूर लगा होगा क्योंकि मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद हुए लोकसभा चुनाव में दलितों ने उस इलाके में भाजपा को वोट दिया था। इस बार भाजपा के रणनीतिकारों को यही मुगालता था कि दलित वोट किसी भी कीमत पर मुलायम सिंह यादव को नहीं मिल सकते क्योंकि उनकी मानी हुयी नेता मायावती ने उम्मीदवार नहीं उतारे हैं। उनको इमकान था कि मायावती की पार्टी चुनाव मैदान में है नहीं तो दलित भाजपा को वोट देगें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
समाजवादी पार्टी के राज से परेशान और उसके मुकामी कार्यकर्ताओं से दहशत में रहने वाले दलित वर्गों ने भी भाजपा के खिलाफ वोट दिया। हालांकि उनका वोट समाजवादी पार्टी की राजनीति चमकाने में काम आ गया। ऐसा लगता है की उत्तर प्रदेश की जनता ने भाजपा के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष लक्ष्मी कान्त वाजपेयी और गोरखपुर के संसद सदस्य महंत आदित्यनाथ की राजनीति को धता बताने के लिए कुछ भी करने का मन बना लिया था। और उसने वह कर भी दिया।
भाजपा की हार का मुख्य कारण यह है कि वह आइडिया ऑफ इण्डिया को तोड़ मरोड़ कर पेश करती है। वह भारत को बहुमतवाद की तरफ घसीट रही है और भारत को उसी ढर्रे पर डालने की कोशिश कर रही है जिस पर मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत के बाद शासक वर्गों ने पाकिस्तान को डाल दिया था था। धार्मिक प्रभुतावादी और अधिसंख्यावादी लोकतंत्र के खतरों को पाकिस्तान के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। मौजूदा उपचुनाव के नतीजों को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए।
सितम्बर 2014 के उपचुनावों में भाजपा हार गयी है लेकिन जो पार्टियां जीती हैं उनसे लोकतंत्र के हित में कोई बहुत उम्मीद नहीं बनती। उत्तर प्रदेश में जीत समाजवादी पार्टी की हुई है। समाजवादी पार्टी कोई बहुत लोकतांत्रिक पार्टी नहीं है। उसमें परिवारवाद बहुत ही गंभीर किस्म का है। राजस्थान में भी परिवारवाद से पहचानी जाने वाली पार्टी, कांग्रेस के लोग ही जीते हैं। लेकिन जनता को भाजपा को अपनी राजनीति सुधारने की चेतावनी देनी थी, उसने दे दिया। इन चुनावों के नतीजों से सबक लेकर अगर भाजपा अपनी मनमानी की राजनीति से बाज़ आ जाती है तो वह देश के लिए हितकर होगा क्योंकि केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के रूप में उसके पास कुछ भी कर गुजरने की राजनीतिक ताक़त मौजूद है। अगर उसको बेलगाम छोड़ दिया गया तो लोकशाही के लिए मुश्किल पेश आ सकती है।
भाजपा की इस हार को उत्तर प्रदेश के हवाले से समझने की कोशिश की जायेगी। उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मी कान्त वाजपेयी और महंत आदित्यनाथ ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की राजनीति के बल पर जीत हासिल करने की कोशिश की थी। इस काम के लिए लव जिहाद का नया फार्मूला तलाश लिया गया था। लव जिहाद को इतना बड़ा कर दिया गया था की बाकी कोई भी मुद्दा चर्चा में आ ही नहीं पाया। अपने लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत सारे ऐसे वायदे किये थे जो सौ दिन में पूरे होने थे, महंगाई और बेरोजगारी पर ज़बरदस्त हमला होना था, भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जाना था, पाकिस्तान को उसकी औकात बता देनी थी, चीन को बता देना था कि सीमा पर खामखाह का तनाव न पैदा करे। लेकिन इन मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हुयी क्योंकि महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि तो ज्यों के त्यों बने हुए हैं, पाकिस्तान भी पहले की तरह की बदस्तूर सीमा पर गड़बड़ी कर रहा है, और चीन से प्रधानमंत्री का अपनापा बनाने का अभियान चल रहा है। हमारा मानना है कि चीन और पाकिस्तान से भारत को वैसे ही सम्बन्ध रखने चाहिए जैसे कि मौजूदा सरकार रख रही है लेकिन फिर सवाल उठता है कि डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार भी तो वैसे ही सम्बन्ध रख रही थी। चुनाव अभियान के दौरान इतना हल्ला गुल्ला क्यों किया गया था। जहां तक नौजवानों को नौकरियाँ देने की बात है, वह सपना तो पचासों वर्षों से सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक पार्टियां दिखाती रही हैं, अब भी दिखाती रहेगीं। ऐसी हालात में लगता है कि सरकार की सौ दिन की नाकामियों के खिलाफ जनता के गुस्से को कंट्रोल करने के लिए यह लव जिहाद वाला शिगूफा ईजाद किया गया था और इस बात की पूरी संभावना है कि इस चुनाव में मनमाफिक नतीजे न दे पाने के कारण अब इसको भुला दिया जाएगा।
दरअसल इस चुनाव का सबसे ज़रूरी सबक यह है की धार्मिक समुदायों में नफ़रत फैलाकर चुनाव नहीं जीता जा सकता। इन नतीजों को भाजपा में मौजूद दो राजनीतिक धाराओं के टकराव को समझने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इस बात में कोई विवाद नहीं है कि भाजपा और आरएसएस की संस्थापक संस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में वी डी सावरकर की किताब "हिंदुत्व" को आधार बनाकर की गयी थी लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस के नेताओं ने सावरकरवादी हिंदुत्व को नकारना शुरू कर दिया था। सावरकर की पार्टी, हिन्दू महासभा में भी मतभेद पैदा हो गए थे। नफरत की राजनीति का विरोध कर रहे हिन्दू महासभा के नेता, डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने एक नयी पार्टी की स्थापना करने का मन बनाया। उन्होंने अपना मंतव्य आरएसएस के प्रमुख एम एस गोलवलकर को बताया जिन्होंने डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सहयोग देने का वचन दिया। वचन ही नहीं दिया बल्कि एक अपेक्षाकृत उदार सोच के प्रचारक स्व. दीन दयाल उपाध्याय को डॉ मुखर्जी के सहयोग के लिए भेज भी दिया। नतीजा यह हुआ कि सावरकर की राजनीतिक सोच से अलग राजनीति को आधार बनाकर 1951-52 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के सिद्धांत को बुनियाद बनाकर 1952 के चुनाव में शामिल भी हुए और पश्चिम बंगाल में सफलता भी मिली। उसके बाद से हिन्दू महासभा को कट्टर हिंदुत्व की पार्टी का स्पेस खाली करने को मजबूर होना पडा और बाद में तो वह पूरी तरह से हाशिये पर आ गयी। आरएसएस और भाजपा मूल रूप से हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकार बने जो आज तक कायम है। जनसंघ और भाजपा के अन्दर हमेशा से सावरकर वादियों की मौजूदगी रही है और वे समय-समय पर हुंकार भरते रहे हैं। मौजूदा लव जिहाद में जो नफरत का तड़का है वह उसी राजनीति का परिणाम है। स्व. दीन दयाल उपाध्याय और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की राजनीतिक लाइन के सबसे बड़े पोषक अटल बिहारी वाजपेयी रहे हैं और उनके सक्रिय रहते कभी भी सावरकरवादियों को प्रमुखता नहीं मिली लेकिन आजकल भाजपा की वैचारिक सोच पर कब्जे की लड़ाई बार बार मुंह उठाती है। मौजूदा दौर भी उसी में से एक है।
लोकसभा चुनाव 2014 के पहले भी भाजपा और आरएसएस के बड़े नेताओं की एक मीटिंग में हिंदुत्व की नयी परिभाषा को सावरकरवादी सांचे में फिट करने की कोशिश की गयी थी। मीटिंग में शामिल लोगों ने बताया कि भाजपा के नेता आरएसएस–भाजपा के सावरकरवादी हिंदुत्व के एजेंडे को 2014 के चुनावी उद्घोष के रूप में पेश करने से बच रहे हैं। इस बैठक में शामिल भाजपा नेताओं ने कहा कि जब कांग्रेस शुद्ध रूप से राजनीतिक मुद्दों पर चुनाव के मैदान में जा आ रही है और भाजपा को ऐलानियाँ एक साम्प्रदायिक पार्टी की छवि में लपेट रही है तो सावरकरवादी हिंदुत्व को राजनीतिक आधार बनाकर चुनाव में जाने की गलती नहीं की जानी चाहिए। 12 फरवरी की बैठक में आरएसएस वालों ने भाजपा नेताओं को साफ़ हिदायत दी कि उनको हिंदुओं की पक्षधर पार्टी के रूप में चुनाव मैदान में जाने की ज़रूरत है। जबकि भाजपा का कहना है कि अब सरस्वती शिशु मंदिर से पढकर आये कुछ पत्रकारों के अलावा कोई भी सावरकरवादी हिंदुत्व को गंभीरता से नहीं लेता। भाजपा वालों का आग्रह है कि ऐसे मुद्दे आने चाहिए जिसमें उनकी पार्टी देश के नौजवानों की समस्याओं को संबोधित कर सके। इस बैठक से जब भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बाहर आये तो उन्होंने बताया कि अपनी पार्टी की भावी रणनीति के बारे में विस्तार से चर्चा हुई।
भाजपा ने जब 1986 के बाद से सावरकरवादी हिंदुत्व को चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया उसके बाद से ही उनको उम्मीद रहती थी कि जैसे ही किसी ऐसे मुद्दे पर चर्चा की जायेगी जिसमें इतिहास के किसी मुकाम पर हिंदू-मुस्लिम विवाद रहा हो तो माहौल गरम हो जाएगा। अयोध्या की बाबरी मसजिद और राम जन्म भूमि विवाद इसी रणनीति का हिस्सा था। बहुत ही भावनात्मक मुद्दे के नाम पर आरएसएस ने काम किया और जो भाजपा 1984 के चुनावों में 2 सीटों वाली पार्टी बन गयी उसकी संख्या इतनी बढ़ गयी कि वह जोड़ तोड़ कर सरकार बनाने के मुकाम पर पंहुच गयी। आरएसएस में मौजूद एक वर्ग की यही सोच है कि अगर चुनाव धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मुद्दा बनाकर लड़ा गया तो बहुत फायदा होगा। लव जिहाद भी भाजपा के अन्दर चल रहे वैचारिक मंथन का एक शिगूफा मात्र है और इसको उसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए लेकिन इन उपचुनावों के नतीजे के बाद भाजपा में वैचारिक चिंतन के बार फिर जोर मारेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि दक्षिणपंथी ही सही लिबरल डेमोक्रेसी कायम रहेगी।