नया साल और सत्ता पर एकाधिकार का भाजपा का सपना | कमजोर पड़ने लगी मोदी लहर
नया साल और सत्ता पर एकाधिकार का भाजपा का सपना | कमजोर पड़ने लगी मोदी लहर
नई दिल्ली। ....और वर्ष 2014 भी गुजर गया। पिछले एक वर्ष में कई राजनीतिक उलटफेर हुए। राष्ट्रीय फलक पर भाजपा और नरेंद्र मोदी के उभरने और राष्ट्रीय राजनीति का विश्लंषण कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा
गुजरते साल के ऐन छोर पर हुए विधानसभाई चुनाव के नतीजों का अपने आप में जितना महत्व है, उतना ही महत्व आने वाले साल के लिए इन नतीजों में छुपे इशारों का है। विधानसभाई चुनावों के ताजातरीन चक्र में झारखंड तथा जम्मू-कश्मीर, दोनों राज्यों में भाजपा सत्ता की मुख्य दावेदार बनकर सामने आयी है। वास्तव में झारखंड में तो चुनाव नतीजे आने के बाद, चटपट भाजपा के रघुवरदास मुख्यमंत्री के पद पर भी बैठा दिए गए। वह ऐसी पूर्ण बहुमत पर आधारित सरकार के नेता बने हैं, जिसके बारे में यह कहा ही नहीं माना भी जा रहा है कि शायद यही झारखंड की पहली गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री वाली सरकार होने के साथ ही, पहली स्थिर सरकार भी होगी। बेशक, जम्मू-कश्मीर के मामले में स्थिति इससे काफी अलग है। झारखंड के विपरीत, जहां अकेले बहुमत न हासिल कर पाने के बावजूद, भाजपा दूसरी सभी पार्टियों से मीलों आगे ही नहीं रही है, बहुमत से पांच सीट ही पीछे रही है और ये सीटें उसकी चुनाव-पूर्व सहयोगी, आजसू ने जुटा दी हैं, जम्मू-कश्मीर में भाजपा, पीडीपी के बाद दूसरे स्थान पर ही नहीं रही है, उसकी चुनाव-पूर्व सहयोगी, बिलाल लोन की पार्टी भी दो सीटों से ज्यादा नहीं जोड़ पायी है। इसलिए, इस राज्य की अगली सरकार में भाजपा के नेतृत्व की बात तो छोडि़ए, भाजपा की हिस्सेदारी तक अनिश्चित है। फिर भी विधानसभा की 25 सीटें जीतकर भाजपा ने अपनी ताकत का धमाकेदार प्रदर्शन किया है। इसी प्रदर्शन का हिस्सा है कि भाजपा ने पूरे राज्य को मिलाकर 23 फीसद वोट हासिल किया है, जो सब से ज्यादा है। विधानसभाई चुनावों के ये नतीजे भाजपा की और ठीक-ठीक कहें तो नरेंद्र मोदी की चुनावी लहर के, नये साल तक जाने का इशारा तो जरूर करते हैं।
लेकिन, ताजातरीन विधानसभाई चुनावों की कहानी का दूसरा पक्ष भी है। यह पक्ष है, लोकसभाई चुनाव से उठी इस मोदी लहर के धीरे-धीरे कमजोर पड़ते जाने का। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि मई के महीने में मोदी सरकार के बनने के बाद से, उपचुनावों को अगर छोड़ दिया जाए तब भी, दो चक्रों में दो-दो राज्यों के जो विधानसभाई चुनाव हुए हैं, उनमें से एक-एक राज्य में ही भाजपा सीधे सरकार बनाने की स्थिति में आयी है, जबकि दोनों चरणों में एक-एक राज्य में वह बहुमत से इतनी दूर रही है कि चुनाव के बाद के बाद कोई गठबंधन किए बिना, सरकार तक पहुंचने की बात सोच भी नहीं सकती है। सच तो यह है कि इन चारों ही राज्यों में भाजपा, लोकसभाई चुनाव का अपना प्रदर्शन विधानसभा के चुनाव में नहीं दोहरा पायी है। फिर भी, जहां पहले चरण में हरियाणा में तथा दूसरे चरण में झारखंड में भाजपा, अपेक्षाकृत आसानी से सरकार बना पायी है, वहीं पहले चरण में महाराष्ट्र और दूसरे चरण में जम्मू-कश्मीर में, जैसाकि हमने पहले ही कहा, सत्ता तक पहुंचने की अपनी महत्वाकांक्षा के लिए भाजपा गठबंधन की उसी राजनीति पर निर्भर है, जिसे लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद से वह बड़ी हिकारत के साथ, ‘गुजरे जमाने की चीज’ करार देती आयी है।
वैसे विधानसाई चुनाव के इन दो चक्रों की प्रकट समानताओं के बीच-बीच में नजर में पडऩे वाली असमानताओं में भी अपने ही संकेत छिपे हैं। मिसाल के तौर पर यह कोई संयोग ही नहीं है कि जहां पहले चक्र में हरियाणा में भाजपा ने लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन के मुकाबले कुछ कम विधानसभाई सीटें आने बावजूद, अकेले पूर्ण बहुमत हासिल कर सरकार बनायी थी, वहीं दूसरे चक्र में झारखंड में भाजपा अपने बूते साधारण बहुमत भी हासिल नहीं कर पायी है। हां! अपनी चुनाव-पूर्व सहयोगी आजसू के साथ मिलकर जरूर, उसने बहुमत का आंकड़ा हासिल कर लिया है। लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन के मुकाबले तो विधानसभाई चुनाव में भाजपा की सीटें दो-तिहाई भी नहीं रह गयी हैं। इसके बावजूद, भाजपा का झारखंड में पहली बार एक गैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री के पद पर बैठाना, चाहे भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के लिए फौरी तौर पर कोई मुश्किल पैदा न करे, फिर भी इस गठबंधन सरकार में आदिवासी घटक के रूप में, आजसू के राजनीतिक वजन में कुछ न कुछ बढ़ोतरी जरूर कर रहा होगा। यह रघुवरदास सरकार के स्थायित्व के दावे को झूठा अगर नहीं भी साबित करेगा तब भी, इस चुनाव के सामने आए आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी ध्रुवीकरण को बढ़ाने का काम जरूर करेगा।
बेशक, विधानसभाई चुनावों के पहले चक्र में महाराष्ट्र में और दूसरे चक्र में जम्मू-कश्मीर में, हालात इन राज्यों से काफी भिन्न रहे हैं। इन दोनों राज्यों में अपेक्षाकृत मजबूत जनाधार वाली क्षेत्रीय पार्टियां मौजूद हैं और वास्तव में भाजपा को सबसे बढक़र उन्हीं पार्टियों के साथ चुनाव में मुकाबला करना पड़ा है। यह दूसरी बात है कि महाराष्ट्र में इस भूमिका में सामने आयी शिव सेना, इस बार के विधानसभाई चुनाव के पहले तक भाजपा की सहयोगी रही थी और चुनाव के नतीजे आने तथा भाजपा के अल्पमत की सरकार बनाने के बाद, एक बार फिर दोनों पार्टियों का गठजोड़ हो गया है। लेकिन, इस बीच भाजपा, गठबंधन की राजनीति की जरूरत से चाहे बरी न हो सकी हो, फिर भी शिव सेना के साथ अपने गठबंधन के दायरे में ताकतों का संतुलन बदलने में जरूर कामयाब हो गयी है और उसने शिव सेना को गठबंधन में बड़े भाई की हैसियत से छोटे भाई की हैसियत में पहुंचा दिया है।
बहरहाल, जम्मू-कश्मीर में भाजपा के लिए सरकार के नेतृत्व तक पहुंचने का रास्ता तो कमोबेश बंद ही समझना चाहिए। हां! अगर भाजपा केंद्र में अपनी सरकार होने का फायदा उठाकर, जोड़-तोड़ के जरिए किसी तरह सरकार पर काबिज होने का सरासर नुकसानदेह दांव आजमाना चाहती हो, तो बात दूसरी है। भाजपा की ऐसी कोई कोशिश इस सीमावर्ती राज्य के मामले में कितनी नुकसानदेह हो सकती है, इसका कुछ अंदाजा इस सचाई से लगाया जा सकता है कि भाजपा की सभी 25 सीटें, हिंदू बहुल जम्मू से आयी हैं, जबकि कश्मीर ही नहीं लद्दाख से भी, भाजपा की एक सीट भी नहीं आयी है। बेशक, पिछले साल की 11 सीटों को बढ़ाकर भाजपा ने इस बार दोगुने से ज्यादा कर लिया है, लेकिन यह भाजपा के पक्ष में हिंदू वोट के ओैर गैर-हिंदू वोट के उसके खिलाफ, ध्रुवीकरण को ही दिखाता है। भाजपा का कश्मीर में मुश्किल से 3 फीसद वोट हासिल कर पाना, इसी सचाई को दिखाता है। जम्मू-कश्मीर की ही तरह, इस चरण में झारखंड में भी भाजपा, सांप्रदायिक-इथनिक ध्रुवीकरण पर कहीं ज्यादा साफ तौर पर निर्भर रही है और इसके बावजूद, उसकी चुनावी कामयाबी पिछले चक्र के मुकाबले कमजोर रही है। यह, लोकसभा चुनाव के मुकाबले ही नहीं, विधानसभाई चुनाव के दो चक्रों के बीच भी, मोदी लहर के कमजोर पड़ऩे को ही दिखाता है। यह आने वाले समय में उसके बहुसंख्यकवादी गोलबंदी पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर होते जाने को भी दिखाता है।
दूसरी ओर, चारो राज्यों के विधानसभाई चुनाव के नतीजे, गुजरते साल के शुरूआती महीनों तक केंद्र में सत्ता में रही कांग्रेस के अगर हाशिए पर खिसक जाने की नहीं तो और ज्यादा कमजोर पडऩे की ही कहानी कहते हैं। यह संयोग ही नहीं है कि चारों राज्यों में कांग्रेस, दूसरे नंबर से भी नीचे खिसक गयी है, जबकि इनमें से कम से कम तीन में वह पहले-दूसरे नंबर पर जरूर रही थी। चारों राज्यों में दूसरे नंबर पर ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां आयी हैं, जिनका अपना मजबूत आधार रहा है। क्षेत्रीय पार्टियों की यह बढ़ती हुई भूमिका, मई के आम चुनाव में भी तमिलनाडु, बंगाल, ओडिशा तथा तेलंगाना क्षेत्र में, क्षेत्रीय पार्टियों के शानदार प्रदर्शन के साथ जुडक़र, और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। इसी इस पृष्ठभूमि में जनता परिवार की एकता के प्रयास समेत, सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर भाजपाविरोधी व्यापक गोलबंदी, नये साल का राजनीतिक मिजाज़ तय कर रही होगी। अचरज नहीं कि भाजपा के सबसे अनुभवी नेता, लालकृष्ण आडवाणी ने यह भविष्यवाणी भी कर दी है कि गठबंधन की राजनीति का दौर वापस आने जा रहा है। साफ है कि भाजपा का सत्ता पर एकाधिकार का सपना, नये साल में कुछ और टूटने ही जा रहा है।
0 राजेंद्र शर्मा


