नरसंहारी मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी फासिज्म के अंध राष्ट्रवाद का जबाव फिर वही लोकायत का जनवाद है।
पलाश विश्वास
नरसंहारी मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी फासिज्म के अंध राष्ट्रवाद का जबाव फिर वही लोकायत का जनवाद है।
यही विविधता बहुलता का लोकायत जनवाद सिंधु सभ्यता के समय से तमिल इतिहास की निरंतरता के तहत करीब सात हजार साल की भारतीय सभ्यता की विरासत है और जिसकी वजह से दुनियाभर में तमाम प्राचीन सभ्यताओं जैसे रोमन, यूनानी, मेसोपोटामिया, मिस्र, इंका और माया सभ्यताओं के अवसान के बावजूद भारतीय सभ्यता हिमालय से निकली पवित्र नदी गंगा की जलधारा की तरह भारतीय राष्ट्र और भारतीय नागरिकों के तन मन में प्रवाहमान है, जिसे हम अवरुद्ध करके आपदाओं का सृजन कर रहे हैं।
इसके विपरीत, प्राचीनतम सभ्यताओं की अनंत धारा में एशिया और यूरोप के संजोगस्थल पर यूनान और भूमध्यसागर के पार तुर्क साम्राज्य का आधुनिकीकरण हुआ है।
सीरिया और समूचे अरब दुनिया जब युद्ध और गृहयुद्ध में कबीलाई विरासत को जीते हुए आतंकवाद और शरणार्थी सैलाब के शिकंजे में हैं, वहां इस्लाम देश होने के बावजूद यूरोप और अमेरिका की तुलना में तुर्की का जीवन यापन कम आधुनिक नहीं है।
खास बात यह है कि सिंधु सभ्यता के समय से और वैदिकी काल में भारत के नेतृत्व में मौलिक वैश्वीकरण की प्रक्रिया में मध्य एशिया के साथ भारत की संस्कृति का इसी तुर्की से नाभिनाल का संबंध रहा है। इस पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।
ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत में सत्तावर्ग के सत्ताकेंद्रों के रूप में रचे बसे और उत्तर आधुनिक अमेरिकी मुक्तबाजारी उन्मुक्तता में विकसित स्मार्ट महानगरों कोलकाता , नई दिल्ली, चेन्नई, बंगलूर, मुंबई, चंडीगढ़ से लेकर प्राचीन भारतीय नगर सभ्यता के अवशेष और भारतीय संस्कृति और इतिहास के महत्वपूर्ण केंद्रों लखनऊ, अमृतसर, हैदराबाद, नागपुर , कानपुर, कोयंबटुर, मदुरै, कोच्चि, वाराणसी, उज्जैन, इंदौर, भुवनेश्वर, अमदाबाद, इलाहाबाद, रांची और पटना में कहीं दीखते नहीं है।
जनपदों का यह कत्लेआम, लोकायत और लोक की सासंस्कृतिक विरासतों की जड़ों से कटकर जो सीमेंट का महारण्य हम वनों और प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के तहत मुक्तबाजारी अमेरिकी उपनिवेश बनने के लिए धर्मोन्मादी युद्धक राष्ट्रवाद के तहत रच रहे हैं, वहां हम बुलेट गति से अरब और मध्यपूर्व की दिशा में ही दौड़ रहे हैं।
आज इस आलेख का उद्देश्य उन्हीं लोक विरासत, विविधता और बहुलता की अनंत धारा को स्पर्श करने के लिए है और हो सकता है है कि इससे हमारी प्रेतमुक्ति की दिशा खुले।
हमारी मध्ययुगीन सामंती जंजीरों की कैद का तनिक अहसास हो और हममें आजादी का कोई ख्वाब जनमे।
कारण जो भी हो, हमारे पास सिंधु सभ्यता का इतिहास या साहित्य उपलब्ध नहीं है। इतिहास हमारे पास वैदिकी सभ्यता का भी नहीं है।
वैदिकी इतिहास का जो हम महिमामंडन करते अघाते नहीं हैं, वह मिथकों का जंजाल है, जिसमें आम जनता के जीवन यापन, जीवन यंत्रणा, सामाजिक यथार्थ सिरे से लापता हैं।
फिर भी विविधता और बहुलता के लोकतंत्र की यह धारा बुद्धमय बंगाल की विरासत है, जिसकी जड़ें अब भी मौजूद हैं।
सिंधु सभ्यता के अवसान के बाद संक्रमणकाल और वैदिकी समय में आर्य अनार्य संघर्षों के बीच समन्वय और समायोजन के तहत एकीकरण की प्रक्रिया, फिर एकाधिकारवादी रंगभेदी ब्राह्मण धर्म और तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति का यह पूरा इतिहास बुद्धमय बंगाल से लेकर बंगाल के इतिहास, साहित्य और लोकायत, वैष्णव और बाउल आंदोलन, चर्यापद, पदावली साहित्य, मंगल काव्य, किसान आदिवासी विद्रोहों और आंदोलनों की निरंतरता, उत्पादन प्रणाली के विकास और उत्पादन संबंधों में बदलाव, भारत विभाजन और मतुआ आंदोलन के साथ साथ जंगल महल के पुरात्तव अवशेषों से हम सामाजिक यथार्थ की वैज्ञानिक दृष्टि से जांच परख सकते हैं।
फासिज्म के राजकाज में धर्मोन्मादी अंध मुक्तबाजारी युद्धक राष्ट्रवाद की वानर सेनाओं की तरफ से जिस विविधता और बहुलता पर सबसे ज्यादा हमले तेज हैं, वह सिंधु सभ्यता और वैदिकी सभ्यता की अखंड विरासत है।
हड़प्पा और सिंधु घाटी के लोग अपढ़ नहीं थे और वे वैश्वीकरण और विश्वबंधुत्व की नींव करीब सात हजार साल पहले डाल चुके थे और उनका तैयार रेशम पथ के जरिये ही वैदिकी सभ्यता का विकास हुआ। वह रेशम पथ भी खोया नहीं है।
सिंधु सभ्यता के अवसान से पहले मध्य एशिया और भूमध्यसागर के तटवर्ती इलाकों से लगातार विदेशी खानाबदोस लोग सिंधु सभ्यता के समय से भारत आते रहे हैं और भारतीय संस्कृति की बहुलता औक विविधता की एकात्मता में शामिल होते रहे हैं।
इसी क्रम में वैदिकी समय में ही विविधता और बहुलता की भारतीय संस्कृति का विकास बहुत तेज हुआ जिसके तहत शक और खस जातियों का मध्यपूर्व से भारत आगमन आर्य अनार्य संघर्ष के परिदृश्य से संदर्भ और प्रसंग में सर्वथा भिन्न है क्योंकि ये जातियां लगातार भारतीय संस्कृति में एकाकार होती रही हैं।
तो दूसरी तरफ वेदों में भी लोकायत की गूंज है तो वैदिकी देवमंडल में यूनान और मध्य एशिया के देव मंडल जैसे समाहित हैं, वैदिकी समय से सती पीठों के रचना समय के आधुनिक काल तक पुराणों और महाकाव्यों के मिथकों और प्रक्षेपण की अनंत धारा के मध्य वेद वेदांत चार्वाक उपनिषद संहिता ब्राह्मण शतपथ समय से अनार्य द्रविड़ लोक देव देवियों के साथ साथ बौद्ध और जैन देवदेवियों, अवतारों का आर्य देवमंडल में समायोजन हुआ है, जिसमें शिव और चंडी के विविध बहुल रूप है।
इसे समझे बिना हम भारतीय लोकतंत्र को कायदे से समझ नहीं सकते।
हमारा यह लोकतंत्र सिर्फ प्राचीन जनपदों के गणराज्यों या पश्चिमी आधुनिक गणतंत्र की विरासत नहीं है, बल्कि यह एकमुश्त सिंधु सभ्यता और वैदिकी सभ्यता की निरंतरता है, जिसमें बौद्ध, सिख, जैन जैसे भारतीय धर्मों और संस्कृतियों के साथ साथ इस्लामी और ईसाई संस्कृतियों, तुर्क और मंगोल जनधाराओं का समायोजन हुआ है।
अठारहवीं शताबादी के नवजागरण और चौदहवीं सदी से लगातार जारी संत फकीर पीर बाउल समाज लिंगायत बहुजन समाज सुधार आंदोलनों, मतुआ चंडाल आंदोलनों, फूले अंबेडकर भगतसिंह की विचारधाराओं का साझा आधार इसी विविधता बहुलता की ठोस लोकायत जनपदीय जमीन है। चार्वाक दर्शन परंपरा की निरंतरता है।
बंगाल में चौदहवीं सदी में सेन वंश के राजकाज के दौरान ब्राह्मण धर्म, अस्पृश्यता, पुरोहित तंत्र और जाति व्यवस्था जिस तरह बौद्ध और जैन संस्कृतियों के धारक वाहक आम जनता पर थोंपा गया, उसके खिलाफ वैष्णव आंदोलन और बाउल आंदोलन का महाविद्रोह है, जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ फिर किसान आदिवासी विद्रोहों के लगातार महाविस्फोट और बंगाल की अंत्यज जनता के 1776 में कंपनी राज और ब्राह्मण धर्म के रंगभेद के खिलाफ हुई पहली बहुजन हड़ताल से लेकर मतुआ आंदोलन और बीसवीं सदी के पहले दशक में चंडाल आंदोलन में निरंतर जारी रहा है।
इसीलिए सिर्फ बंगाल ही नहीं, बल्कि समूचा पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत बाकी भारत और आर्यावर्त के धर्मोन्माद के विपरीत आज भी कहीं ज्यादा धर्मनरिपेक्ष, उदार और प्रगतिशील है।
इसीलिए फासिज्म के राजधर्म का प्रतिरोध इन्हीं इलाकों में सबसे ज्यदा है और इसीलिए शेष भारत के मुकाबले फासीवादी नरसंहारी अश्वमेध के घोड़े यही सबसे तेज दौड़ाये जा रहे हैं और असम को गुजरात बनाया जा रहा है।
इसके विपरीत यथार्थ यह है कि पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में, सिर्फ बंगाल में नहीं, बंगाल में सारे धर्मों के सारे पर्व त्योहार आज भी आम जनता के साझा पर्व और त्योहार है, जो वैदिकी सभ्यता के दौरान विकसित बहुलता और विविधता की बहती हुई लगातार संकुचित हो रही, लगातार बंध रही, लगातार बेदखल हो रही, लगातार प्रदूषित हो रही गंगा जल की पवित्र धारा है।
इसीलिए ब्राह्मण धर्म के पुनरूत्थान के विरुद्ध महिष मर्दिनी के मिथ्या मिथक के प्रतिरोध में महिषासुर उत्सव प्रासंगिक है।
इस इतिहास को समझने के लिए कवि जयदेव और उनके गीत गोविंदम् की भूमिका को सिलसिलेवार समझने की जरूरत है।
महाकवि जयदेव संस्कृति काव्य धारा के अंतिम महाकवि हैं जिन्होंने दैवी और राजकीय नायक नायिका के बदले राधा कृष्ण प्रणय लीला के मार्फत देशज लोकायत के तहत साहित्य और संस्कृति में संस्कृत जानने वाले पुरोहितों और कुलीनों के वर्चस्व को तोड़ा है।
भागवत पुराण की कथा को महाकवि जयदेव ने एकमुश्त लोकायत और बंगाल की बौद्ध जैन विरासत से जोड़कर वैष्णव और बाउल आंदोलन के तहत बहुजन आंदोलन की नींव डाली है।
भागवत पुराण की तरह गीतगोविंदम कोई दैवी शक्ति का महिमामंडन या मोक्ष अन्वेषण या स्व्रग नर्क का मिथक नहीं है बल्कि प्रकृति और प्रकृति से जुड़ी मनुष्यता की रौजमर्रे की जिदगी की कथा व्यथा, प्रेम विरह राग रास अनुराग श्रृंगार मिलन की हाड़ मांस का देहत्तव का वैज्ञानिक दर्शन है और वैष्णव आंदोलन में जैविकी जीवन को मनुष्यता में तब्दील करने के लिए इंद्रियों को साधने की साधना है तो मोक्ष का निषेध है जो बौद्ध जैन विरासत की जमीन पर फिर चार्वाक और लोकायत के जनवादी लोकतंत्र की निरंतरता है। जिसमें मेहनतकशों के उत्पादन संबंधों की देह सुगंध जंगल की खुशबू की तरह प्राकृतिक और मानविक हैं।
गौरतलब है कि राजा बल्लाल सेन ने बंगाल में बौद्धों का सफाया करके जो ब्राह्मण धर्म को प्रचलित किया, उसीसे बंगाल में बुद्धमय भारत के अंतिम द्वीप का जो पतन हुआ , सो हुआ, लेकिन इससे बंगाल में क्षत्रिय अनुपस्थिति से बहुजनों के हिंदूकरण और उन्हीं के जनेऊधारण से वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था पहलीबार लागू हुई बेहद निर्ममता के साथ, जिसके तहत जबरन धर्मांतरित बौद्धों को शूद्र और चंडाल बना दिया गया और अस्पृश्यता लागू हो गयी।
बंगाल में अभिजात कुलीनतंत्र और पुरोहित तंत्र का जन्म हुआ जो आद भी फल फूल रहा है और जो आज भी बंगाल के बहुजनों के दमन और उत्पीड़न की राजनीति के महिषासुर वध उत्सव में सक्रिय है।
बंगाल के इसी सत्तावर्ग ने पूरे भारतवर्ष में बहुजनों के सफाये में हमेशा निर्णायक पहल की है।
इसी ने भारत विभाजन में निर्णायक भूमिका अदा की और अपने ब्राह्मण धर्म के हितों के मद्देनजर भारत में ब्राह्मण धर्म और मनुस्मृति के पुनरूत्थान में निर्णायक भूमिका अदा करते हुए भारतीय साम्यवादी आंदोलन को सिरे से गैरप्रासंगिक बना दिया।
अंबेडकर को इन्हीं ब्राह्मण धर्म के कुलीन तबके के सत्तावर्ग ने कम्युनिस्ट आंदोलन से अलग-थलग किया तो नेताजी का देश निकाला इन्हीं के कारण हुआ और आजादी में सबसे ज्याद खून देने वाले पंजाब और बंगाल से बहुजन आंदोलन और बहुजनों के सफाये के लिए दिल्ली में सत्ता के केंद्रीयकरण में भी इसी जमींदारी तबके की कारस्तानी है। तो इसके प्रतिरोध में बंगाल के बहुजनों ने ही उसी बौद्ध मतुआ वैष्णव विरासत की जमीन पर खड़े होकर बाबासाहेब को संविधान सभा पहुंचाया, जिन्होंने भारतीय संविधान के तहत फिर धम्म प्रवर्तन की तर्ज पर समता और न्याय को भारतीयता का मुख्य विमर्श बना दिया।
उसी बल्लाल सेन के पुत्र लक्ष्मण सेन के सभाकवि जयदेव ने जब वैदिकी काल के लोकायत को गीत गोविंदम के तहत नये सिरे से स्थापित किया तब भी चर्यापद लिखे जा रहे थे, जो सभी भारतीय भाषाओं का मौलिक साहित्य है।
कवि जयदेव के बाद, बौद्ध चर्यापद के तुरंत बाद बंगाल में पदावली और मंगल काव्य के मार्फत आम जनता का लोकजीवन और लोकायत के जनपद साहित्य के माध्यम से ही संतों के भक्ति आंदोलन की धारा में लगभग कबीर के समसामयिक चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव आंदोलन के मार्फत बंगाल का सांस्कृतिक विकास हुआ।
यह धारा चुआड़, नील, मुंडा, भील, संथाल विद्रोहों के मध्य जारी जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई से निबटने के लिए ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कंपनी राज में सामंती और साम्राज्यवादी हितों के मुताबिक संसाधनों से बहुजनों को बेदखल करने की कार्रवाई के तहत स्थाई बंदोबस्त लागू करके जमींदारी पत्तन तक जारी रहा और जल जगंल जमीन की मिल्कियत पर एकाधिकार के बाद इसी जमींदार वर्ग ने जनपदों और लोकायत की विरासत की हत्या करके सारे माध्यमों और विधाओं पर एकाधिकार कायम करके मुख्यधारा से बहुजनों को निकाल बाहर किया।
बाकी भारत में भी धर्म कर्म, राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था, साहित्य, संस्कृति, माध्यमों और विधाओं में यही मनुस्मृति जमींदारी बहाल है।
बंगाल की विविध बहुल संस्कति में महाकवि जयदेव, चैतन्य महाप्रभू, हरिचांद गरुचांद ठाकुर के अलावा कवि चंडीदास और मैथिल कवि विद्यापति की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है, मौका मिला तो इस पर हम बाद में सिलसिलेवार चर्चा करेंगे।
जिन्हें यह विमर्श प्रासंगिक लगता है , उनसे विनम्र निवेदन है कि इसे अपने अपने माध्यम से प्रचारित प्रसारित करें ताकि हम आगे भी यह संवाद जारी रख सकें।
इस धम्म प्रवर्तन की प्रक्रिया में कुछ बौद्ध संगठनों के स्वयंभू कार्यकर्ता व्यवधान पैदा कर रहे हैं जो इस विमर्श को न सिर्फ अपने नाम से छाप रहे हैं बल्कि उसे संदर्भ और प्रसंग से काटकर अपना मिथ्या अहंकार साध रहे हैं। हम उन तक पहले यह सारा विमर्श पहुंचाते रहे हैं और मेरे प्रकाशित सामग्री को अपने नाम से छाप कर वे 43 सालों से बनी मेरी साख खराब करने में लगे हैं। उनके साथ आगे काम करना असंभव है। उन्हे अलग से सामग्री उनके नाम से प्रकाशित करने के लिए भेजते रहने के बावजूद वे मरी विश्वसीनयता को दांव पर लगा रहे हैं। इसलिए मैं उन्हें अब मेरी कोई सामग्री आगे प्रकाशित करने की इजाजत नहीं दे रहा हूं। विडंबना यही है कि वे इस वक्त बाकी बचे खुचे बौद्धों के संगठनों के नेता, संपादक वगैरह-वगैरह हैं। मैंने पहले इस बारे में अंग्रेजी में लिखकर उन्हें चेताया है लेकिन खुद अपनी बात कहने की कवायद से बचते हुए वे सुधरने की कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं। मेरे ऐतराज पर उन्होंने खेद भी नहीं जताया है।
मेरे लिखे को पढ़ने के बाद उनके अखबारों और उनकी पत्रिकाओं में उनके नाम से लिखी सामग्री को पढ़कर आप जांच लें कि वे कैसे बौद्ध हैं।
बहरहाल, स्वर्ग नर्क जन्म जन्मांतर कहीं वैदिकी साहित्य में नहीं है।
सिंधु सभ्यता के अवसान के बाद आर्य अनार्य संस्कृतियों के संघर्ष और समन्वय के मध्य कृषि बतौर अर्थव्यवस्था कायम होने लगी तो पराजित जातियों के गुलामों और सभी समुदायों की स्त्रियों के सार हक हकूक छीनने की जो रीति चली आयी, उसके तहत उत्पादन प्रणाली पर पितृसत्ता का वर्चस्व बनता चला गया और वैदिकी कर्मकांड से पुरोहित तंत्र मजबूत होता गया।
भूसंपदा पर काबिज आभिजात वर्गो के संपन्न जीवन यापन के मुकाबले गुलामों और स्त्रियों की, आम प्रजाजनों की उत्पीड़ित जीवनयंत्रणा को नियतिबद्ध बताकर वर्गीय ध्रुवीकरण की संभावना रोकने के लिए ये सारे किस्से बाद में गढ़े गये ताकि संसाधनों और अवसरों पर एकाधिकार का सिलसिला कायम रह सकें। यही मौलिक जन्मजात आरक्षण है और हजारों साल से इसी जन्मजात आरक्षण से सत्ता का स्वर्गसुख भोगते हुए आम जनता को नर्क जीने के लिए मजबूर करने वाले लोग हजारों साल से वंचित उत्पीड़ियों को अवसर देने की गरज से सवैधानिक आरक्षण के खिलाफ योजनाबद्ध प्रतिक्रांति के तहत युद्धोन्मादी हिंदुत्व की वानरसेना बना रहे हैं बहुजनों को।
चार्वाक दर्शन में इसी एकाधिकार