तूफानों की जिद देखने का वक्त़

(‘नवउदारवाद के दौर में हिंदुत्व’ विषय पर अहमदाबाद में प्रस्तुत व्याख्यान का संशोधित एवं विस्तारित रूप)

‘आम लोग धर्म को सच मानते हैं, समझदार लोग झूठ मानते हैं और शासक लोग उपयोगी समझते हैं।’

– सेनेका / ईसापूर्व 4 वर्ष से ईसवी 65 तक/

..अपनों के बीच होने की एक सुविधा यह होती है कि आप इस बात से निश्चिंत रहते हैं, कि किसी प्रतिकूल वातावरण का सामना नहीं करना पड़ेगा, जो सवाल भी पूछे जाएंगे या जो बातें भी कहीं जाएंगी वह भी अपने ही दायरे की होंगी। मगर फिलवक्त़ मैं अपने आप को एक अलग तरह की मुश्किल से घिरा पा रहा हूं।

मुश्किल यह है कि जिस मसले पर – ‘नवउदारवाद के दौर में हिंदुत्व’ -बात करनी है उस मसले को सदन में बैठे हर व्यक्ति ने ‘सुना है, धुना है और गुना है’। और खासकर जो नौजवान बैठे हैं, – जिनकी पैदाइश सम्भवतः बाबरी मस्जिद विध्वंस और उसके पहले लागू किए जा रहे ‘नए आर्थिक सुधारों’ के दौर में हुई थी – उनको फोकस करें तो कह सकते हैं कि उनकी सियासी जिन्दगी की शुरूआत से ही यह दोनों लफ्ज और उससे जुड़ी तमाम बातें महाभारत के अभिमन्यु की तरह उनके साथ रही हैं।

निश्चित ही ऐसे वक्त़ उलझन सी हो जाती है कि कहां से शुरू किया जाए।

अब इस उलझन को दूर करने के लिए या यूं कहें कि बातचीत की सम्भावित एकरसता को तोड़ने के लिए मैंने यह तय किया है मैं थोड़ी रवायत तोड़ दूं, परम्परा से हट जाऊं और शुरू से शुरू करने के बजाय अन्त से शुरू करूं। निष्कर्ष से ही शुरू करूं और फिर ऐसा निष्कर्ष क्यों निकाला इसका विवरण दे दूं।

2.

मैं समझता हूं कि इतिहास में ऐसे मौके कभी कभी आते हैं, जब आप को अपनी गहरी शीतनिद्रा से उबर कर बेहद बुनियादी किस्म की बातों के बारे में सोचना पड़ता है और हवाओं की उलटी दिशा में खड़े होने का निर्णय लेना पड़ता है। ऊपरी तौर पर सबकु छ सामान्य सा चलता रहता है, मगर सतह के नीचे बहुत कुछ घटित हो रहा होता है, जो एक तरह से समूचे समाज की दिशा को प्रभावित करने वाला होता है। मेरा यह मानना है कि आज ऐसे ही एक मुक़ाम पर हम सभी खड़े हैं।

मुझे बरबस नागरिक अधिकार आन्दोलन के महान अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग के उस बहुचर्चित पत्र, जिसे बर्मिंगहैम की जेल से भेजे पत्र के तौर पर जाना गया था, का वह हिस्सा याद आ रहा है जिसमें वह पूछते हैं कि अगर आप हिटलर के जर्मनी में आज रह रहे होते तो क्या करते ? वे साफ कहते हैं कि ऐसे वक्त़ आते हैं जब ‘गैरकानूनी’ होना ही न्याय की आवाज़ सुनना होता है। उनके मुताबिक

‘–हमें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि एडोल्फ हिटलर ने जर्मनी में जो कुछ किया वह ‘कानूनी’ था और हंगरी में स्वतंत्रता सेनानी जो कुछ कर रहे थे, वह ‘गैरकानूनी’ था। हिटलर के जर्मनी में एक यहूदी की मदद करना, उसे सहायता प्रदान करना ‘गैरकानूनी’ था। इसके बावजूद, मैं इस बात पर पुरयकीं हूं कि अगर उस वक्त़ मैं जर्मनी में रह रहा होता, तो मैंने अपने यहूदी भाइयों की मदद की होती। /Rev. Dr. Martin Luther King, Jr. “Letter from a Birmingham Jail.” Letter. (1963)

आप में से कुछ लोग मार्टिन लूथर किंग के प्रस्तुत पत्र के निहितार्थ की मौजूदा वक्त़ में प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर सकते हैं, मेरी बात से पूरी तरह असहमत हो सकते हैं या मुझ पर जनतंत्र की बुनियादी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का आरोप लगा सकते हैं जब कुछ लोगों के हिसाब से ‘1200 सालों की गुलामी के बाद पहली दफा कोई हिन्दू कर्णधार’ ने सत्ता की बागडोर संभाली है।

कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि आप हमें परोक्ष-अपरोक्ष 2002 की याद बार-बार क्यों दिलाते रहते हैं ? यह 2015 है जनाब और जनता ने बहुमत से 2002 को भूलते हुए निर्णय सुनाया है और आप की सुई वहीं अटकी है।

आप की बात सही है कि हमें ‘आगे बढ़ना चाहिए’ ‘वी शुड मूव अहेड।’

आखिर अपने ही इतिहास के ऐसे हिस्से को लेकर जिसे याद करना भी कितनी बेवकूफी है जिससे पुराने घाव हरे हो जाएं और नासूर बनते ऐसे घावों का आप के पास कोई फौरी इलाज तक न हो। दिलो दिमाग़ पर लगे उन घावों को याद करने से क्या फायदा जो आप को न केवल अपनी बल्कि उस समूची इन्साफपसन्द, तरक्कीपसन्द तहरीक/आन्दोलन की बेबसी की भी याद दिलाते रहें, जब धर्मनिरपेक्षता के मूल्य सूबा गुजरात की धरती पर तार तार हो रहे थे और सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश के लब्जों को उधार लेकर कहें जब वहां ‘नीरो बंसी बजा रहे थे।’

और ईमानदारी की बात है कि मैंने अपने इतिहास के ऐसे तमाम स्याह प्रसंगों को लेकर फिलवक्त़ मौन ओढ़ लिया है, महज 2002 ही नहीं मैंने 1992-93 के एक प्रार्थनास्थल के विध्वंस और उसके बाद पैदा की गयी सुनियोजित हिंसा को लेकर, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश की राजधानी से लेकर तमाम क्षेत्रों में फैलायी गयी सुसंगठित हिंसा के बारे में, 1983 में नेल्ली में कुछ घंटों के अन्दर ढाई हजार निरपराध अल्पसंख्यकों की हत्या के बारे में या 1969 के किझेवनमी नामक जनसंहार के बारे में – जब अपनी मजदूरी बढ़ाने के लिए लोग संघर्ष कर रहे थे और भूस्वामियों ने हथियारबन्द होकर उन पर हमला किया और 42 बच्चों एवं महिलाओं को मार डाला और अदालत में सभी हमलावर बेदाग बरी हो गए – भी फौरी तौर पर चुप्पी ओढ़ ली है। और अपनी बियाबान हो चली आंखों में यह सच्चाई भी अंकित कर ली है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलानेवाले मुल्क में भी किस तरह हिंसाचारों को अंजाम देने वाले लोग या उसकी सुचिंतित अनदेखी करने वाले लोग किस-किस तरह से लाभान्वित होते रहते हैं। और कभी-कभी तो सत्ता के गलियारों में भी पहुंचते रहते हैं।

पाल आर ब्रास नामक विद्वान हैं जिन्होंने आज़ादी के बाद कई दंगों का अध्ययन किया है और वह तो इस नतीजे तक पहुंचे हैं कि यहां संस्थाबद्ध दंगा प्रणालियां अर्थात इनिस्टटयूशनलाइज्ड रायट सिस्टम्स /institutinalied riot systems/ विकसित हुई हैं। उनका मानना है कि ‘दंगे की स्वतःस्फूर्तता’ आदि की बातें तथ्य से परे हैं और स्थितियां ऐसी हैं कि अगर निहित स्वार्थी तत्व चाहें तो दंगों का ‘आयोजन’ किया जा सकता है।

मेरे बेहद अज़ीज कवि गोरख पांडेय ने कितनी सही बात कही थी

इस साल दंगा बहुत हुआ

बहुत हुई है खून की बारिश

और अगले साल

अच्छी फसल होगी

मतदान की।

इसके पहले कि मैं अपनी बात आगे बढ़ाऊं, एक छोटी सी बात अवश्य नोट करवाना चाहता हूं कि इन्साफ का यह तकाज़ा है, इन्सानियत की चली आ रही तवारीख़/ इतिहास इस बात का गवाह है, ऐसे सभी मामलों में न्याय के सवाल को कभी भी दबाया नहीं जा सकता। वह सवाल बार-बार लौट कर आता रहता है।

मैंने फिलवक्त़ मौन ओढ लिया है, इसका मतलब कोई इस गफलत में न रहे कि हम इन्साफ के सवाल को हमेशा-हमेशा के लिए भूल गए हैं और आप अमन कायम होने की बात करके, आर्थिक मुआवजा देने का राग अलापते हुए न्याय के मसले से तौबा नहीं कर सकते हैं। उसी 2002 को पलट कर देखें कि आज दंगाइयों के कई सरगना एवं तमाम प्यादे दंडित हो चुके हैं।

वजीरे आज़म मोदी – जो उन दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री थे, के मंत्रिमंडल की काबीना मिनिस्टर माया कोडनानी जैसों को उमर कैद की सज़ा हो चुकी है, एवं कभी विश्व हिन्दू परिषद के अग्रणी नेता रह चुके बाबू बजरंगी जैसे आततायियों को भी उमर कैद हो चुकी है।

यकीं मानिये इन्साफ के सवाल को अन्तहीन लटका कर नहीं रखा जा सकता।

आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों न्याय के सवाल को हमें संबोधित करना ही पड़ता है। और उन तमाम हाथों एवं दिमागों एवं तंजीमों की, संगठनों की शिनाख्त करनी ही पड़ती है, जिन्होंने वक्त़-वक्त़ पर मानवता को शर्मसार करने वाले काम किए।

हमारा पड़ोसी मुल्क बांगलादेश इसका गवाह है, जहां लगभग 45 साल पहले अंजाम दिए गए इन्सानियत के खिलाफ अपराधों को लेकर अब फैसले सुनाये जा रहे हैं। या लैटिन अमेरिका में स्थित छोटे से मुल्क ग्वाटेमाला को देखें, जहां 70 के दशक में मूलनिवासी समुदायों के खिलाफ अमेरिकी सेनाओं के समर्थन में वहां के तानाशाहों ने अंजाम दिए कत्लेआम, जिसमें ढाई लाख लोग मारे गए थे, को लेकर पिछले दिनों रिटायर हो चुके 18 मिलिटरी कमांडरों को गिरफ्तार किया गया, जिनके खिलाफ जनसंहार को अंजाम देने या लोगों को गायब करने जैसे ‘इन्सानियत के खिलाफ अपराध’ के तमाम आरोप लगे हैं। या आज से ठीक सौ साल पहले टर्की में अंजाम दिए गए आर्मेनियाईयों के व्यापक जनसंहार का मसला आज भी सूर्खियों में आता है, जबकि उसके पीड़ित तथा अंजामकर्ता भी कब के गुजर चुके हैं। पीड़ितों की सन्तानें और वहां जम्हूरियत-पसन्द अर्थात जनतंत्र प्रेमी लोग लोग यही चाहते हैं कि सरकार कबूल करे कि लाखों की तादाद में उनका संहार हुआ था। और टर्की की सरकार अभी भी इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। आलम यह है कि अगर आप ने आर्मनियाई लोगों के जनसंहार की बात कही तो इसी पर आप पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा सकता है।

फिलवक्त़ इस बात का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है कि ‘हम’ और ‘वे’ की यह सियासत कितने कहर और बरपा करेगी !

कितने मासूमों को लील लेगी ?

3.

दक्षिण एशिया के इस हिस्से के ‘बनने’ की कहानी अपने आप में दिलचस्प है।

बचपन से हम सभी यही सुनते आए हैं कि धरती के इस हिस्से में किस तरह लोग आते रहे और यहीं के बाशिन्दे बनते गए। फिराक़ गोरखपुरी का मशहूर शेर है

सरजमीने हिन्द पर अक़वामे आलम के ‘फिराक़’

का़फिले बसते गये, हिन्दोस्तां बनता गया।

मगर अब जबकि आज़ाद हुए सत्तर साल होने को है हिन्दोस्तां बनने की इस पूरी प्रक्रिया को उलटी दिशा में घुमाने की, कौन यहां का है और कौन बाहरी है, इसे तय करने की और उस पर फैसला सुनाने की प्रक्रिया तेज हो चली है। हम क्या खा सकते हैं, क्या पी सकते हैं, किससे प्रेम कर सकते हैं और किसे अपना दोस्त मान सकते हैं इसके बारे में तमाम निर्णय बिग ब्रदर लगनेवाली सरकार की ओर से या उसके साथ जुड़े झुंडों की तरफ से तय किए जा रहे हैं।

नयी तरह की धमकियां इन दिनों सुर्खियां बन रही हैं।

‘आप को वजीरे आज़म की गद्दी पर जनाब मोदी मंज़ूर नहीं है, पाकिस्तान चले जाइये।’

‘आप ‘पवित्र दिनों पर मीट का सेवन करते हैं, पाकिस्तान चले जाइये।’

‘आप लव जिहाद के नाम पर फैलाये जा रहे विद्वेष का विरोध करते हैं, पाकिस्तान चले जाइये।’

देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत की अज़ीम शख्सियतों को इसी के तहत अपमानित किया गया है। कन्नड़ भाषा के मशहूर साहित्यकार अनंतमूर्ति हों या नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन हों उन्हें भी ऐसी ही ‘सलाहें’ दी गयी हैं।

अपने से असहमति रखने वाले हर दूसरे शख्स को ‘पाकिस्तान’ भेजने की इस ‘जिद’ को देखते हुए किसी ने व्यंग्य में यही कहा कि ऐसे सभी लोग पाकिस्तान टूरिजम को बढ़ावा देने में लगे हैं। विडम्बना यही है कि ऐसे प्रचार को लेकर सत्ता के ऊपरी इदारों से कोई रोक लगना दूर उल्टे शह दिखती है।

वैसे आज कल जनाब मोदी एवं पाकिस्तान के पी एम नवाज शरीफ आपस में जितनी दोस्ती का इजहार कर रहे हैं – यहां तक कि शरीफ की सालगिरह पर उन्हें हैप्पी बर्थडे बोलने के लिए पी एम मोदी भी ‘अचानक’ पाकिस्तान पहुंचे थे – इस स्थिति को देखते हुए भक्तों को अब उनके हिसाब से ‘विधर्मियों’, ‘देशद्रोहियों’ आदि को किसी अन्य मुल्क भेजने के बारे में सोचना चाहिए।

अगर बारीकी से देखें तो ऐसी बातों में और रिपब्लिकन पार्टी के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी डोनाल्ड टंम्प द्वारा ‘अमेरिका में मुसलमानों के प्रवेश को रोक देने’ के प्रस्ताव में कोई गुणात्मक अंतर नहीं है। मालूम हो कि उनके इस विषाक्त प्रचार को लेकर डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी सुश्री क्लिन्टन की यह टिप्पणी रेखांकित करने वाली है, जिसमें उन्होंने कहा है कि किस तरह टंम्प ‘इस्लामिक स्टेट’ के सबसे बड़े रिक्रूटर अर्थात भर्ती कर्ता बन गए हैं।

एक तरह से कहें तो आज ऐसे हालात बनाए गए हैं कि व्यक्ति की स्वायत्तता या व्यक्ति के अधिकार का मसला भी मुल्तवी किया जा रहा है।

व्यक्ति की स्वायत्तता से जुड़े ऐसे तमाम निर्णय एक झुंड द्वारा, एक समूह द्वारा आप के लिए तय किए जा रहे हैं और आप से यह कहा जा रहा है कि आप ‘अनुशासित होकर इनका पालन करें’ /आयदर फॉल इन लाइन/ या नतीजों के लिए तैयार रहे /फेस द कानसिक्वेन्सेस/ निश्चित ही झुंड की बात मानने के अपने ‘फायदे’ भी हैं। आप तरह तरह से लाभान्वित हो सकते हैं, नौकरी में तरक्की पा सकते हैं, कम से कम किसी अप्रत्याशित मानसिक/शारीरिक हमले से बच सकते हैं।

इक्कीसवीं सदी को भारत की सदी बनाने का ऐलान आए दिन होता रहता है। क्या ऐसी परिस्थिति – जहां आप को वही बोलने के लिए कहा जाये जो बिग ब्रदर को मंजूर हो, वही गाने के लिए कहा जाए जैसा कि उन्हें मंजूर हो, वही सोचने के लिए कहा जाए जो उनके इशारों पर हो – ऐसे मुल्क का निर्माण कर सकती है, जो दुनिया में अव्वल बने।

तयशुदा बात है कि नहीं !

4

महान दार्शनिक एवं गणितज्ञ प्रोफेसर बर्टान्ड रसेल ने आज से लगभग नब्बे साल पहले एक व्याख्यान दिया था, जिसका शीर्षक था कि ‘व्हाई आई एम नॉट ए ख्रिश्चन’ अर्थात ‘मैं ईसाई क्यों नहीं हूं’ ? ‘नेशनल सेक्युलर सोसायटी’ के तत्वावधान में /6 मार्च 1927/ दिए गए इस व्याख्यान का अंत उन्होंने इन शब्दों से किया था :

‘हम अपने पैरों पर खड़े होना चाहते हैं और दुनिया जैसी है, उसे देखना चाहते हैं – दुनिया को उसी तरह देखना चाहते हैं और उससे डरना नहीं चाहते हैं। हम उससे निष्पन्न आतंक से दब कर नहीं बल्कि अपनी बुद्धिमत्ता से दुनिया को जीतना चाहते हैं।..एक बेहतर दुनिया के लिए ज्ञान, दयालुभाव और साहस की जरूरत है; अपने अतीत की ओर पश्चात्ताप भरे अन्दाज़ में लालायित होने या अज्ञानी लोगों द्वारा सदियों पहले उच्चारे गए शब्दों के जरिए मुक्त बुद्धिमत्ता को जंजीरों में जकड़ने की जरूरत नहीं है। उसके लिए एक निर्भीक नज़रिया और मुक्त चिन्तन की आवश्यकता है। उसके लिए भविष्य के प्रति उम्मीद की जरूरत है, न ऐसे अतीत की ओर झांकते रहना है जो समाप्त हो चुका है ,…

मगर एक तरह से ऐसी तमाम तंज़ीमें या संगठन – जो खास धर्म विशेष को प्रस्थान बिन्दु मान कर चल रही हैं – उनके साथ एक आज़ाद व्यक्ति का रिश्ता कैसा होना चाहिए, क्या उसे ऐसी विचारधाराओं को चुपचाप मान लेना चाहिए या यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह उनसे सहमत नहीं है, इसके सन्दर्भ में भी उपरोक्त व्याख्यान में बहुत कुछ है।

इसलिए मुझे लगता है कि भारत से ताल्लुक रखने वाले हर व्यक्ति के सामने या हम कह सकते हैं कि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में रहनेवाले लोगों के सामने जहां धर्माधारित सियासत न केवल नयी वैधता बल्कि समर्थन भी हासिल कर रही है, जहां बहुसंख्यकवाद का उभार दिख रहा है, वहां आज़ादमना लोगों को इस सवाल का जवाब देना है कि हिन्दू धर्म से निष्पन्न राजनीतिक हिन्दुइजम अर्थात हिंदुत्व के साथ, इस्लामिज्म के साथ, बौद्ध धर्म से ताल्लुक रखने का दावा करने वाले बौद्ध उग्रवाद के साथ या सिख धर्म की दुहाई देनेवाले खालिस्तान के फलसफे के साथ उसका क्या रिश्ता है।

रसेल के प्रश्न के तर्ज पर उसे इस सवाल का जवाब देना है ‘व्हाय आई एम नाट ए हिन्दुत्वाइट ऑर ए संघी’ ? ‘व्हाय आई एम नॉट ए इस्लामिस्ट’ आदि।

गौरतलब है कि अपने व्याख्यान को बर्टान्ड रसेल कई हिस्सों में बांटते हैं: वह शुरू करते हैं ‘ईसाई कौन है’ इसकी परिभाषा से, फिर ईश्वर के अस्तित्व को लेकर प्रस्तुत तर्कों की बात करते हैं, चर्च ने किस तरह प्रगति को बाधित किया है, धर्म का आधार किस तरह डर है आदि विभिन्न पहलुओं पर वह बात करते हैं। अन्त में वह लिखते हैं कि ‘हमें क्या करना चाहिए’ – जिसका एक हिस्सा उपरोल्लेखित है।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा था कि मैं निष्कर्ष से शुरू कर रहा हूं, लिहाजा मैं अपनी समझदारी से उन प्रमुख बातों को रखने की कोशिश करूंगा कि इस बात के बावजूद कि मौजूदा हुकूमत जनतांत्रिक प्रक्रियाओं के जरिए सत्ता में आयी है, इसके बावजूद कि 21 वीं सदी की इस दूसरी दहाई में अब किसी नए 2002 के होने या करने की स्थितियां नहीं है, इसके बावजूद कि संसदीय विपक्ष बिखराव की स्थिति में है और वाम की ताकतें भी समूची परिस्थिति पर कोई निर्णायक प्रभाव छोड़ने की स्थिति में नहीं है, मैं इस पूरे निज़ाम से अपने असहमत होने का ऐलान करता हूं। और बकौल मुक्तिबोध ‘अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने’ के लिए तैयार हूं क्योंकि ‘मठ और गढ़ तोड़ने’ के लिए वह अब जरूरी हो गया है।

5.

मौजूदा निज़ाम से मेरी सबसे पहली परेशानी स्वतंत्र विचार पर लगातार पड़ रही बंदिशों को लेकर है

बन्द दिमाग़ और कुन्द चिन्तन – पहरे में स्वतंत्र विचार

आप इसे तीन लेखकों/ कार्यकर्ताओं की हत्या के तौर पर देखें या ‘पेरूमल मुरूगन जैसे लेखकों की ‘मौत की घोषणा’ के तौर पर देखें या वेंडी डोनिगर की किताब या रामानुजम जैसों के रामायण पर केन्द्रित निबंध के पाठयक्रम से बाहर किए जाने के तौर पर देखें या किन्हीं प्रोफेसर अशोक वोहरा – जिन्होंने अपने हिसाब से पश्चिमी लेखकों द्वारा की जा रही हिन्दू धर्म की आलोचना की समीक्षा करने का प्रयास किया था – उन पर लादे गए मुकदमे के तौर पर देखें, एक स्पष्ट पैटर्न यही उभरता दिखता है कि ऐसा कोई भी विचार, चिन्तन जो अपने समाज, राजनीति, इतिहास या अपने अतीत को खुले दिमाग से देखने की कोशिश करेगा वह अब ‘प्रतिबंधित क्षेत्र’ है। और अगर आप ने इन सीमाओं को लांघने की कोशिश की तो परिणाम जगजाहिर है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब मराठी साहित्य सम्मेलन के इस साल चुने गए अध्यक्ष जनाब सबनिस इन तत्वों के हमले का निशाना बने। दरअसल सम्मेलन के अध्यक्ष के तौर पर पुणे के पास एक जगह बोलते हुए, उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के बारे में अपनी बेबाक राय रखी, जो कइयों को नागवार गुजरी; उसी के बाद कथित तौर पर उन्हें हिन्दूवादी संगठनों की तरफ से जान से मारने की धमकियां मिलीं।

ऐसे समाज के वर्तमान एवं भविष्य की कल्पना की जा सकती है जहां /घोषित/अघोषित/ तरीकों से चिन्तन पर पाबन्दी लगी है, जहां हर बार आप को सोचना पड़े कि क्या बोले और क्या न बोलें !

हम देख सकते हैं जो स्थिति यहां विकसित हो रही है उसकी हमारे पड़ोसी मुल्कों के साथ – चाहे बांगलादेश हो या पाकिस्तान हो – काफी समानता है और हम देख सकते हैं कि किस तरह का भविष्य हमारी राह देख रहा है, जहां लोग महज अपने ब्लागपोस्ट के लिए हत्यारे दस्तों को निशाना बनते दिख रहे हैं।

स्वतंत्र विचारों को प्रतिबंधित करने का एक नतीजा यह दिखता है कि इससे भारतीय समाज की पहले से चली आ रही आत्ममुग्धता पर प्रश्नचिन्ह उठना दूर, उसे नयी मजबूती मिलती रहती है। दरअसल हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पहले से ही हमारा समाज बेहद आत्ममुग्ध समाज रहा है, जिसे यह वहम रहा है कि वह ‘विश्वगुरू’ है, और स्वतंत्र विचार पर लगने वाली बंदिशें ‘पहले से करेला और उपर नीम चढ़ा’ जैसी स्थिति में पहुंचाती है।

नेहरू की चर्चित किताब ‘भारत एक खोज’ का वह प्रसंग बहुचर्चित है, जिसमें चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (जिसे जुआनज़ांग के नाम से भी जाना जाता है) के यात्रा वर्णन का प्रसंग है। ह्वेन त्सांग (Hiuen Tsang (also known as Xuanzang)) लिखते हैं कि भागलपुर में उनकी मुलाकात एक विद्वान कर्ण सुकर्ण से हुई, जिसने एक विचित्र पहनावा ओढ़ रखा था। उसने अपने पेट पर लकड़ी की पट्टियां बांधी थीं और सर पर रखे एक बक्से में जलती मशाल रखी थी।

ह्वेन त्सांग के यह पूछे जाने पर कि उसके इस पहनावे का राज क्या है तो उसने बताया कि उसके पास इतना ज्ञान है कि उसका पेट फटा जा रहा है, जिसकी वजह से उसे बांध कर रखना पड़ता है और मशाल का औचित्य इसलिए क्योंकि वह अंधेरे में भटके लोगों को राह दिखाना चाहता है।

हमारी यह आत्ममुग्धता विभिन्न सर्वेक्षणों में आज भी प्रगट होती रहती है, जो इस बात को भी रेखांकित करता है कि हम सभी के अन्दर कहीं न कहीं वही ‘कर्णसुकर्ण’ मौजूद है, जिसे यह वहम है कि वह दुनिया को ज्ञान दे सकता है। विडम्बना है कि जो हक़ीकत है वह उससे काफी दूर है। हम अपने यहां के अग्रणी शिक्षा संस्थानों के बारे में भले ही अपनी पीठ थपथपाते रहें, उनमें अपनी सन्तानों को प्रवेश दिलाने के लिए अरबों-खरबों रूपए के कोचिंग माफिया को खड़ा होने पर गुरेज न करें, मगर दुनिया के अग्रणी शिक्षा संस्थानो की सूची में वह कहीं नहीं ठहरते। न कोई आईआईटी और न ही कोई इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ साइंस। अगर विश्व के अग्रणी दो सौ शिक्षा संस्थानों की सूची में कोई आईआईटी या आईआईएस टपक जाए तो सुर्खियां बनती हैं।

यह आत्ममुग्धता सत्ता के इदारों में सर्वोच्च पद पर बैठे लोगों के चिन्तन एव विचारों में बखूबी प्रतिबिम्बित होती है।।

एक अस्पताल का उद्घाटन करते वक्त पिछले साल जनाब मोदी ने (25 अक्तूबर 2014) यह दावा किया कि प्राचीन भारत में हजारों साल पहले प्लास्टिक सर्जरी एवं जेनेटिक विज्ञान का अस्तित्व था। उनके लिए यही वह तरीका था जिसके चलते गणेश को हाथी का सर लगाया गया और किस तरह एक योद्धा भगवान मां की कोख के बाहर पैदा हुआ :

“..हम लोग अपने मुल्क पर गर्व कर सकते हैं कि किसी दौर में हमारे मुल्क ने चिकित्सा विज्ञान में कितना हासिल किया था। हम सभी महाभारत के कर्ण के बारे में पढ़ते हैं। अगर हम गहराई में जाकर सोचें तो हमें पता चलता है कि महाभारत के मुताबिक कर्ण अपनी मां के कोख के बाहर जनमा था। इसका मतलब था कि जेनेटिक विज्ञान उस वक्त़ अस्तित्व में था। यही वजह थी कि कर्ण अपने मां के कोख के बाहर जनमा … हम भगवान गणेश की पूजा करते हैं। निश्चित ही उस वक्त़ कोई प्लास्टिक सर्जन रहा होगा जिसने मानवीय शरीर पर हाथी का सर लगा दिया और इस तरह प्लास्टिक सर्जरी की शुरूआत की।’’

कहां तो चाहिये यह था कि इस भाषण की व्यापक भर्त्सना होती क्योंकि यह समूचा प्रलाप संविधान की धारा 51 (ए) का उल्लंघन कर रहा था जो ‘वैज्ञानिक चिन्तन पर जोर देती है’ और इस बात को रेखांकित करती है कि ‘हर नागरिक का बुनियादी कर्तव्य है कि उसे बढ़ावा दे’, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। यहां तक कि मीडिया में भी इसे लेकर चर्चा नहीं चली और इस बात को देखते हुए भी कि किस तरह हिन्दू राष्ट्रवादी विचारों को केन्द्र में लाया जा रहा है, उसे लेकर कोई हंगामा नहीं हुआ।

ज्ञानपीठ सम्मान के स्वर्ण जयंती समारोह में बोलते हुए जनाब मोदी ने अपने इसी किस्म के ज्ञान मोती श्रोताओं के सामने परोसे

‘वेदों ने न केवल पर्यावरण की समस्याओं पर बात की मगर उसके समाधान भी सुझाये। यह एक ऐसे युग में हुआ जबकि किसी ने पर्यावरणीय दोहन के बारे में सोचा तक नहीं था।’(The Times of India; April 26, 2015).

विज्ञान एवं मिथकों का आपसी कॉकटेल बनाने का ही नतीजा यह है कि पिछले साल भारत विज्ञान कांग्रेस के सालाना अधिवेशन में आमंत्रित व्याख्यान के अन्तर्गत कैबिनेट मंत्री की अध्यक्षता में किन्हीं बोडस नामक व्यक्ति ने व्याख्यान दिया कि किस तरह हजारों साल पहले भारत में विमान उड़ते थे या इस साल मैसूर में आयोजित कांग्रेस में कानपुर से पहुंचे किसी प्रोफेसर ने शंख फूंक कर यह दावा किया की कि किस तरह शंख बजाना गुणकारी हो सकता है, यहां तक कि उससे सफेद हो चुके बाल भी काले हो सकते हैं। गनीमत इसी बात की रही कि इसी ‘विज्ञान कांग्रेस’ के पर्यावरण पर केन्द्रित सत्र में ‘भगवान शिव को किस तरह पहला पर्यावरणवादी’ कहा जा सकता है, इस पर केन्द्रित पर्चा पढ़ा नहीं गया; हालांकि आयोजन समिति ने उसे स्वीकार कर लिया था।

यह अकारण नहीं कि जनाब रामचंद्र गुहा ने पिछले दिनों अपने साक्षात्कार में बताया कि फिलवक्त सत्ता की बागडोर सम्भाली हुकूमत स्वाधीन भारत के अब तक के इतिहास की सबसे अधिक ‘बुद्धिजीवी विरोधी’ हुकूमत है।

प्रोफेसर संजय सुब्रमहमण्यम – जो न वाम और न दक्षिण खेमे से जुड़े माने जाते हैं – उनका कहना था कि ‘This government suffers from intellectual deficit’ अर्थात ‘यह सरकार अकल से पैदल है।’ अपने साक्षात्कार के अन्त में ; (Sagarika Ghose, TNN | Dec 20, 2015, 12.00 AM IST) प्रोफेसर संजय सुब्रहमण्यम से पूछा गया अंतिम प्रश्न एवं उसका उत्तर गौरतलब है:

Does the Indian public discourse today worry you?

You know Indians are known to be the most abusive users of the internet. Indian trolling is known widely to be highly vitriolic. Yet today if there is an authoritative work, say on Shivaji, Golwalkar or Annadurai written by a real historian, that work might well be censored. So there’s a very interesting paradox. Those who are real people, with real emails and real names are totally censored, those who are anonymous are empowered to say whatever they want. Anonymous people are free to scream out their rage but real people with a name are told to say nothing. This to me is another post-modern paradox of authorship. Real people have the right to say nothing, anonymous people have a right to say everything. So we are becoming a society of cowards. It’s a terrifying idea (http://communalism.blogspot.in/2015/12/india-real-people-are-censored.html)

इसका लुब्बेलुआब यही है कि आज असली लोग आज कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं हैं और आलम यह है कि छद्म नामों से जितना भी जहर उगला जा सके, इस पर कोई रोक नहीं है। यह स्थिति समाज के बौद्धिक दिवालियापन की स्थिति का द्योतक है, जिसे निश्चित ही देश की हाक़िम तंजीमों के उभार के साथ जोड़ा जा सकता है।

कोई भी देख सकता है कि स्वतंत्र चिन्तन, प्रगट बहस मुबाहिसा, तर्कशीलता पर आक्रमण एक तरह से प्रबोधन की समूची विरासत को खतरे में डालता है। मालूम हो कि प्रबोधन ने धर्म की आलोचना का रास्ता सुगम किया था, अब जैसा कि आलम है यह कहा जा रहा है कि तर्कशीलता को धर्म/आस्था का अनुगामी होना चाहिए। यह चिन्तन प्रबोधन की अन्तर्वस्तु तक पहुंचता है।

प्रबोधन की परियोजना से एकीकृत पुरोहितशाही विरोधी रूख (anti clerical stand) को हम महान दार्शनिक वाल्टेयर के चर्चित उदाहरण से समझ सकते हैं, जिन्होंने कोविले’ नामक व्यक्ति के – जिसे ‘चरित्रहीन’ घोषित किया गया था – चर्च द्वारा अनुशासित किए जाने को लेकर आवाज़ बुलन्द की थी। / जिसका उल्लेख सुश्री मीरा नन्दा अपने लम्बे आलेख ‘ब्रेकिंग द स्पेल ऑफ धर्मा’ में करती हैं/ वोल्टेयर द्वारा आवाज़ बुलन्द किए जाने के बाद उनकी हिमायत में उनके समय के इतने विचारक, दार्शनिक खड़े हो गए कि चर्च को ही झुकना पड़ा।

वोल्टेयर को गुजरे दो सौ साल से अधिक वक्त़ हो गया और आज 125 करोड़ की आबादी के इस मुल्क को – जिसके कर्णधारों का दावा है कि 21 वीं सदी इसी मुल्क की होगी उसे – वोल्टेयर के पहले के मध्ययुगीन अंधकार के दौर में रफ्ता-रफ्ता ढकेला जा रहा है।

मेरी परेशानी सियासत एवं मजहब के घोल के रूप में नज़र आ रहे इस हुकूमत के रूख पर भी है।

हिंदुत्व, इस्लामिज्म या जियनिज्म आदि : धर्म और राजनीति का खतरनाक घोल

इसमें कोई दोराय नहीं कि ऐसे तमाम विचार जो मनुष्य को मनुष्य समझने से इन्कार करते हैं, 21 वी सदी में उसे धर्म एवं राजनीति के खतरनाक संश्रय से संचालित करना चाहते हैं, उसे ‘हम’ या ‘वे’ की सियासत में उलझा देते हैं, एक तरह से समूची मानवता के अस्तित्व/ वजूद को ही मानने से इन्कार करते हैं और इसलिए ऐसे विचार कुल मिला कर मानवता के दूरगामी भविष्य के लिए नुकसानदेह हैं। आदिम समय में या मध्ययुग ने – किसी अन्य विकल्प के अभाव में भले ही इस संश्रय ने – समाज को संचालित किया होगा, ईशकेन्द्रित /theocentric /समाज से मानवकेन्द्रित /anthropocentric/ समाज में संक्रमण के दौरान रोल अदा किया होगा, मगर आज की तारीख में उनका स्थान इतिहास की किताबों में या म्युजियम में होना चाहिए। 21 वीं सदी में समाज के संचालन का बुनियादी नियम यह सुनिश्चित होना चाहिए कि वहां राज्य एवं धर्म में अलगाव सुनिश्चित हो।

याद कर सकते हैं कि डॉ अम्बेडकर को, जिन्होंने संविधान निर्माण के मसविदा समिति के अध्यक्ष के तौर पर भारत को एक धर्मनिरपेक्षता एवं जनतंत्र के बुनियादी मूल्यों पर आधारित संविधान दिलाने में अहम भूमिका अदा की, वह इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट थे।

संविधान समिति का सदस्य बनने के चार साल पहले लिखी अपनी किताब ‘व्हाट गांधी एंड कांग्रेस हैव डन टू अनटचेबल्स?’ में वह लिखते हैं

‘‘..अस्पृश्यों ने ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी पाने का विरोध नहीं किया। सिर्फ ब्रिटिशों से आज़ादी पर हम सन्तुष्ट नहीं हो सकते। उनका जोर महज स्वतंत्र भारत तक सीमित नहीं है। आज़ाद भारत लोकतंत्र के लिए बाधारहित बने इस मकसद को मददेनज़र रखते हुए वह कहते हैं कि भारत की विशिष्ट सामाजिक संरचना के चलते अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के खिलाफ खड़ा पाया जाता है। अगर संविधान के अन्तर्गत इस बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के जहरीले दांत तोड़ने का इन्तज़ाम नहीं किया गया तो भारत में लोकतंत्र कभी भी बाधारहित नहीं हो सकता। इसलिए अस्पृश्यों ऐसा एक संविधान चाहिए जो भारत की विशिष्ट परिस्थिति पर गौर करें और उसके हिसाब से सुरक्षात्मक उपाय करे। तभी हिन्दू बहुसंख्यक समुदाय को अस्पृश्यों का दमन कर सकने वाली राजनीतिक ताकत हासिल नहीं होगी। अस्पृश्यों को भी अल्प रूप में ही सही दमन का प्रतिकार करने की राजनीतिक ताकत मिलेगी। बहुसंख्यकों के खिलाफ अस्तित्व की लड़ाई लड़ने में वह सक्षम होंगे। संक्षेप में कहें तो, हिन्दु बहुसंख्यकों का दमनतंत्र अस्तित्व में आने से पहले ही अस्पृश्यों के लिए संविधान में उपाय करना जरूरी है (डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर, रायटिंग्ज एण्ड स्पीचेज, वाल्यूम 9, पेज 169, उद्धृत ‘परिवर्तनाचा वाटसरू, जनवरी 1-15, 2016)”

स्पष्ट है कि संविधान के प्राक्कथन में भले ही धर्मनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया हो, बकौल डॉ अम्बेडकर ‘हिन्दू कम्युनल मेजॉरिटी’ के हाथों में सत्ता आने पर अल्पसंख्यकों पर किस तरह का कहर बरपा हो सकता है, इसके बारे में वह सचेत थे, इसलिए उन्होंने संविधान की अन्तर्वस्तु ही ऐसी बनायी कि अल्पसंख्यकों पर किसी किस्म का सामुदायिक अत्याचार एवं दमन न हो सके।

रेखांकित करने की बात है कि अपने आप को इन दिनों अम्बेडकर का सच्चा अनुयायी बताने में फिक्रमंद सत्ताधारी जमातें – उनके इन सरोकारों को हाशिये पर रखते हुए – पहले कभी छद्म धर्मनिरपेक्ष कह कर अपने विरोधियों का माखौल उड़ाते रहे हैं तो इन दिनों कई कोणों से इस अवधारणा पर हमले करते दिख रहे हैं। अगर गृहमंत्री राजनाथ सिंह सदन के पटल पर एक तरफ यह कहते दिखते हैं कि ‘दरअसल संविधान में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा बाद में प्रविष्ट की गयी’ तो जनाब मोदी ‘सेक्युलेरिजम इज इंडिया फर्स्ट’ जैसी व्याख्या करते दिखते हैं, यूं तो संघी जन एवं संघ के आनुषंगिक संगठन भाजपा इस बात को भी याद दिलाना नहीं भूलते कि ‘दरअसल हिन्दू धर्म ही बुनियादी तौर पर सहिष्णु है, इसलिए यह मुल्क सेक्युलर है’।

संसद के पटल पर धर्मनिरपेक्षता को ‘इंडिया फर्स्ट’ के नारे के साथ परिभाषित करने वाले जनाब मोदी