नव शिवभक्त राहुल के मुकाबिल मोदी नहीं आदिनाथ शिवभक्त योगी होंगे
नव शिवभक्त राहुल के मुकाबिल मोदी नहीं आदिनाथ शिवभक्त योगी होंगे
अब यह भी तय है कि आने वाले चुनावों में योगी आदित्यनाथ की महत्वपूर्ण भूमिका रहने वाली है।
गुजरात चुनाव के नतीजे आ गए। राज्य सरकार भाजपा के हाथ रही लेकिन विपक्षी राजनीति का एक नया व्याकरण भी रचा गया। अभी बहुत ही शुरुआती मामला है लेकिन राहुल गांधी ने कांग्रेस के नेता के रूप में राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश की और कुछ हद तक सफल रहे। राजनीतिक प्रक्रिया कोई एक दिन का काम नहीं है, उसको पकने में वक्त लगता है लेकिन संकेत नज़र आने लगे हैं। भाजपा ने राजनीतिक मोबिलाइजेशन के लिए हिन्दू धर्म का प्रयोग करने की जो योजना बनाई उसकी बहुत ही दिलचस्प कहानी है।
1977 में जनता पार्टी में शामिल पुरानी जनसंघ के लोग अपने मूल संगठन, आरएसएस के प्रति हमेशा वफादार रहे हैं। 1978 में जब मधु लिमये ने ऐलान किया कि जनता पार्टी में शामिल लोग आरएसएस से नाता तोड़ लें तो बहुत विवाद हुआ। आरएसएस वालों ने कहा कि उनका संगठन राजनीतिक पार्टी नहीं है, लेकिन मधु लिमये ने बात को बहुत आगे बढ़ा दिया और बात इतनी बढ़ गई कि आरएसएस ने अपने लोगों को जनता पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया। शुरू में इस नई पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की। दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानवतावाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक दर्शन को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की बात की गई। लेकिन जब 1984 के लोकसभा चुनाव में 542 सीटों वाली लोकसभा में भाजपा को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन के रूप में राजनीति करने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया।
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जनवरी 1985 में बनी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति की रूपरेखा
जनवरी 1985 में कलकत्ता में आरएसएस के शीर्ष नेताओं की बैठक हुई जिसमें तत्कालीन भाजपा के कर्ता-धर्ता, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा। वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या के बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद को केंद्र में रख कर राजनीतिक मोबिलाइजेशन किया जाएगा। आरएसएस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया। अयोध्या के पड़ोसी जिले गोरखपुर में स्थित गोरखनाथ पीठ के महंत अवैद्यनाथ ने अपने कारणों से इसमें शामिल होने का फैसला किया। उनका कारण भावनात्मक ज्यादा था क्योंकि उनके गुरु महंत दिग्विजय नाथ ने ही 1949 में अयोध्या में राम मंदिर के आन्दोलन की अगुवाई की थी और बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्तियां रखवाई थी। विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना 1966 में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था।
भाजपा की राजनीति में आया शुद्ध हिन्दू राष्ट्रवाद
1985 के बाद उसे सक्रिय किया गया। भाजपा की राजनीति में शुद्ध हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति का युग आ गया। 1985 से अब तक भाजपा हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है। जब भाजपा ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो हिन्दू धर्म को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ते गए। अयोध्या के भगवान राम के इर्द-गिर्द ही भाजपा ने जनता को एकजुट करने का फैसला किया। राजनीतिक विचारक माजिनी के विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित वीडी सावरकर की किताब हिंदुत्व की विचारधारा पर काम करने वाले आरएसएस ने हिंदुत्व और श्रीराम को अपनी राजनीति के केंद्र में रखने का जो फैसला लिया वह आज तक चला आ रहा है।
इस रणनीति का भाजपा को फायदा भी खूब हुआ। 1984 में दो सीट लाने वाली पार्टी ने अयोध्या के आन्दोलन के बाद अपनी राजनीतिक ताकत बहुत बढ़ा ली है। कांग्रेस में दरबारी संस्कृति के चलते किसी भी विचारधारा को चुनौती देने की स्थिति रह ही नहीं गई है। जब वीएचपी ने भगवान राम को केंद्र में रख कर राजनीतिक लामबंदी की राजनीति शुरू की तो राजीव गांधी उनके चक्रव्यूह में फंस गए। उसी तरह से पीवी नरसिम्हा राव ने भी राम की राजनीति का कोई विकल्प तलाशने की कोशिश नहीं की। वे बार-बार कहते तो थे कि वे भाजपा से तो लड़ सकते थे लेकिन रामजी से लड़ना उनके बस की बात नहीं थी। लेकिन उन्होंने भी किसी राजनीतिक योजना पर काम नहीं किया।
लगता है राहुल गांधी को बहुत ही सुलझा हुआ सलाहकार मिल गया है
भगवान राम वास्तव में विष्णु के अवतार हैं। इसलिए वैष्णव परम्परा के धार्मिक अनुष्ठानों में उनका बहुत ही अधिक महत्व है। लेकिन आरएसएस की कोशिश यह है कि उनको हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों का आराध्य देव सिद्ध कर दिया जाए। पिछले तीस वर्षों से इसी पर भाजपा का राजनीतिक फोकस बना रहा। भाजपा एजेंडा तय करती रही और कांग्रेस उस पर प्रतिक्रिया देती रही। भाजपा के अभियान का ही नतीजा है कि कांग्रेस को राम-विरोधी और हिन्दू विरोधी पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने में भाजपा को सफलता मिली। जहां पूरे देश में भगवान राम की मान्यता है वहीं कांग्रेस के कुछ लोग राम की ऐतिहासिकता पर बहस करते रहे। यह भाजपा के लिए बहुत ही सुविधाजनक स्थिति रही। कभी दिग्विजय सिंह को तो कभी सुशील कुमार शिंदे को हिन्दू-विरोधी साबित करने का काम चलता रहा। कांग्रेस के मुख्यालय में बैठे नेता लोग आपस में ही एक-दूसरे की जड़ों में मतभेद डालते रहे। भगवान राम को केंद्र में रखकर एकेश्वरवादी हिन्दू समाज स्थापित करके उसका इंचार्ज बनने की आरएसएस की योजना को तीस वर्षों में एक बार भी ललकारा नहीं गया। लेकिन अब हालात बदले हैं। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी को बहुत ही सुलझा हुआ सलाहकार मिल गया है।
इसी राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि इस बार के गुजरात के चुनाव में राहुल गांधी मंदिर मंदिर घूमते रहे। उनके मंदिर जाने की राजनीति को भाजपा और उसके मातहत लोगों ने बहुत ही ज्यादा चर्चा में लाने की कोशिश की। पूरी दुनिया को बता दिया गया कि राहुल गांधी ने कांग्रेस को सेकुलर राजनीति से अलग कर दिया है। मुसलमानों की मस्जिदों या दरगाहों में नहीं जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी की मंदिर यात्राओं में एक नया पैटर्न था। इंदिरा गांधी के बाद वे पहले कांग्रेसी बने जिन्होंने अपना एजेंडा फिक्स करने की कोशिश की। वे राम को एक मोनोलिथिक देवता के रूप में स्थापित करने की कोशिशों पर सवालिया निशान लगाने की कोशिश कर रहे थे और उसमें पूरी तरह सफल हुए। कुछ वैष्णव ठिकानों को छोड़ दिया जाए तो तो ज़्यादातर ऐसे मंदिरों में गए जो शैव मतावलम्बियों के हैं, या शक्ति के उपासकों के हैं। शक्ति के उपासक शैव परम्परा के बहुत ही करीबी होते हैं।
सोमनाथ मंदिर के अलावा वे करीब बीस मंदिरों में गए जो गैरवैष्णव हैं। राहुल गांधी ने बाकायदा प्रेस के सामने घोषित किया कि वे शिव भक्त हिन्दू हैं। ऐसा लगता है कि वे यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि भगवान राम के नाम पर पूरे देश के धार्मिक लोगों को एक ही जगह पर इकठ्ठा करने की कोशिश को सफल नहीं होने देंगें। दुनिया में बहुत से राजनीतिक धर्म हैं, जहां एक ही आराध्य होता है और उसी के नाम पर समाज की एकता की कोशिश की जाती है। मसलन ईसाई मजहब में बहुत सारे वर्ग जरूर हैं लेकिन सब का केंद्र बाइबिल में वर्णित ईश्वर ही है। पोप का असर सभी ईसाईयों पर है।
इस्लाम में भी 72 सम्प्रदाय हैं लेकिन सबके आराध्य हज़रत मुहम्मद ही हैं और कुरआन में ही अंतिम सत्य अंकित है। आरएसएस की कोशिश भी यही रही होगी कि भगवान राम को सब हिन्दुओं का आराध्य बना दिया जाए और उसी के जरिये हिन्दू मात्र की एकता का प्रयास किया जाए।
प्राचीन भारत में शैवों, वैष्णवों, शाक्तों आदि के बीच बहुत सारे संघर्षों की बातों का भी इतिहास में उल्लेख है। ऐसी स्थिति में सारे हिन्दुओं को एक ही रंग में रंग देने का प्रोजेक्ट मुश्किल तो बहुत है लेकिन उस दिशा में भगवान राम के सहारे सफलता मिलना शुरू हो गई थी। राहुल गांधी का शंकर जी के विभिन्न स्वरूपों के मंदिरों में फेरी लगाना एक राजनीतिक उदेश्य था। और भाजपा की राम केन्द्रित राजनीति को आइना दिखाना भी उनका मकसद लगता है। सावरकरवादी हिंदुत्व सब कुछ भगवान राम या वैष्णव मत में घेर देने की कोशिश करता है।
जबकि हिन्दू धर्म की विविधता ही यही है कि वह बहुत से देवताओं को आराध्य मानता है। मेरे गांव में नीम के पेड़ में विराजने वाली काली माई पूरे गांव की श्रद्धा की देवी हैं जहां दलित भी जाते हैं और ब्राह्मण भी। इसी तरह से देश भर में गांव का आदमी राम के अलावा भी तमाम भगवानों को पूजता है। उसके लिए उसका मुकामी देवता ज्यादा पूजनीय है।
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राहुल गांधी के इस अभियान का मर्म भाजपा को अच्छी तरह से मालूम था। इसीलिए राहुल गांधी की शिवभक्ति को उनसे बड़ी लाइन खींच कर छोटा करने की कोशिश की गई। इसी सिलसिले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को गुजरात चुनाव में मुख्य स्टार प्रचारक के रूप में प्रस्तुत किया गया।
योगी आदित्यनाथ शैव परम्परा के सबसे प्रमुख मठों में से एक, गोरखनाथ मंदिर एवं मठ के महंत हैं। गुजरात में भी शैव मतावलम्बियों में गोरखनाथ मंदिर का बहुत सम्मान है। शायद यही कारण है कि सौराष्ट्र, जहां भाजपा की हालत बहुत ही खराब थी, वहां भी बड़ी संख्या में सीटें उसके हाथ आई हैं सौराष्ट्र के सभी जिलों की कमजोर सीटों पर योगी आदित्यनाथ ने प्रचार किया था।
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योगी आदित्यनाथ चुनाव प्रचार के लिए गुजरात के 33 में से 29 जिलों में गए, 35 चुनाव सभाएं कीं। जहां भी गए सरकारी तामझाम से दूर आश्रमों में ही ठहरे। शायद इसीलिये जहां-जहां गए उन सभी सीटों पर एकाध को छोड़कर भाजपा की जीत हुई। जहां राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी का स्ट्राइक रेट 50 प्रतिशत बताया जा रहा है, वहीं योगी आदित्यनाथ का स्ट्राइक रेट 95 प्रतिशत रहा।
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देश की राजनीतिक को धार्मिक बनाकर एक ही देवता को केंद्र में रखने की आरएसएस की योजना पर गुजरात चुनाव में राहुल गांधी और योगी आदित्यनाथ का यह एहसान रहेगा कि उन्होंने हिन्दू धार्मिकता को उसकी विविधता का पुराना मौलिक आयाम फिर से दिया। इसके बाद यह भी तय हो गया कि कांग्रेस भी हिन्दू-विरोधी टैग से बाहर आ चुकी है और यह भी कि एक ही देवता के नाम पर पूर्ण राजनीतिक मोबिलाइजेशन संभव नहीं है। इसके अलावा अब यह भी तय है कि आने वाले चुनावों में योगी आदित्यनाथ की महत्वपूर्ण भूमिका रहने वाली है।


