अमलेन्दु उपाध्याय

इस बार आजादी की सालगिरह कुछ अलग किस्म की होने की उम्मीद है। कारण है कि महात्मा गांधी के इक्कीसवीं सदी के अवतार अन्ना हजारे ऐलान कर चुके हैं कि अगर 15 अगस्त तक ‘जनलोकपाल’ विधेयक पास न किया गया तो वे 16 अगस्त से फिर आमरण अनशन करेंगे। और अभी तक के जो सूरत-ए-हाल हैं वह साफ संकेत दे रहे हैं कि अन्ना जी को भूखे रहने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि अलबत्ता अभी तक न तो सरकार और तथाकथित सिविल सोसाइटी के सदस्यों के बीच इस बिल को लेकर सहमति बनी है और न किसी राजनीतिक दल ने इस पर अपने पत्ते खोले हैं कि संसद् में उसका रुख क्या होगा। दूसरा अगर जुलाई माह में यह सहमति वाला प्रहसन पूरा हो भी गया तो संसद् का मानसून सत्र एक अगस्त से शुरू होगा और पन्द्रह अगस्त से पहले तो यह किसी भी हालत में पारित होन से रहा। इसलिए अन्ना जी का अनशन तो पक्का है।
यहां सवाल यह है कि क्या लोकपाल बहुत जरूरी है और वह भी उसी शक्ल में जैसा कि अन्ना मंडली चाहती है? जाहिर सी बात है कि इस प्रश्न पर देश भर में गंभीर मतभेद हैं। पहला सवाल तो यही है कि अन्ना मंडली को देश के किस वर्ग का समर्थन हासिल है? क्या अन्ना मंडली देश के संविधान और सवा अरब आबादी से ऊपर की कोई दैवीय शक्ति है? अभी तक जो इस मंडली की हरकतें सामने आई हैं उससे तो यही लगता है कि यह मंडली देश के संविधान से ऊपर की कोई चीज है। देश को लोकपाल मिले या न मिले, भ्रष्टाचार मिटे या न मिटे लेकिन अगर यह मंडली अपने मकसद में कामयाब हो गई तो देश का लोकतंत्र हार जाएगा। क्योंकि संविधान में संसद् सर्वोपरि है और कोई भी कानून बनाने या निरस्त करने का अधिकार उसी के पास है। यह पहली बार हो रहा है कि बाहरी असामाजिक तत्व (क्योंकि वे स्वयं को इस देश का आम नागरिक नहीं मान रहे) जो खुद को सिविल सोसाइटी कह रहे हैं, सरकार के साथ मिलकर कोई कानून बनाने जा रहे हैं। अगर यह परिपाटी पड़ गई तो लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा और दस हजार सफेदपोश संसद् के बाहर मजमा लगाकर जब चाहेंगे जो कानून बना लेंगे। इसलिए यह सभी राजनीतिक दलों का कत्र्तव्य बनता है कि उनके आपस के चाहे जो राजनीतिक विवाद हों उनसे ऊपर उठकर इस अलोकतांत्रिक प्रक्रिया को रोकें।
इस लोकपाल के विरोध के कुछ प्रमुख कारणों पर विचार करना उचित होगा। पहला कि अन्ना मंडली का लोकपाल किसके प्रति उत्तरदायी होगा? क्या यह संसद्, संविधान, विधायिका या जनता के प्रति उततरदायी होगा? अभी तक जो स्वरूप इस मंडली ने लोकपाल का पेश किया है उसके मुताबिक यह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा। फिर क्या यह एक निरंकुश व्यवस्था होगी?
इसी तरह इसके चयन की प्रक्रिया में आम जनता की कोई भागेदारी नहीं होगी। कुछ तथाकथित सम्मानित और संभ्रान्त लोग इस प्रक्रिया में शामिल होंगे। इस मंडली के एक प्रपत्र के अनुसार-”जनलोकपाल के दस सदस्यों और अध्यक्ष के चयन के लिए एक चयन समिति बनाई जाएगी। इस समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, दो सबसे कम उम्र के हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी), मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) होंगे। चयन समिति योग्य लोगों का चयन उस सूची से करेगी, जो उसे ‘सर्च कमेटी’ द्वारा मुहैया कराई जाएगी।“ अब इस प्रक्रिया पर गौर कर लिया जाए। इस प्रक्रिया में जनता की भागीदारी कहां है? अगर प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता को जनता की भागेदारी माना जा रहा है तब तो दो सवाल हैं। पहला कि इस समिति में जनता की भागीदारी अल्पमत की है और नौकरशाहों का वर्चस्व है। चयन समिति के आठ सदस्यों में से मात्र दो जनता द्वारा निर्वाचित हैं। क्या इसका तात्पर्य यह निकाला जाए कि भारत की जनता बेवकूफ है? ऐसा माना भी जा सकता है क्योंकि अन्ना जी के मुताबिक ही वोटर सौ रुपये की शराब की बोतल पर बिक जाता है! दूसरा अगर प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं तो अन्ना मंडली को जनता के द्वारा चुने जाने वाली किसी प्रक्रिया पर ऐतराज क्यों है?
इससे भी ज्यादा आपत्ति वाली बात यह ड्राफ्ट आगे कहता है- ”सर्च कमेटी में दस सदस्य होंगे, जिसका गठन इस तरह होगा:- ”सबसे पहले पूर्व सीईसी और पूर्व सीएजी में से पांच सदस्य चुने जाएंगे। इनमें वो पूर्व सीईसी और पूर्व सीएजी शामिल नहीं होंगे जो दागी हों या किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े हों या अब भी किसी सरकारी सेवा में कार्यरत हों। ये पांच सदस्य अब बाकी पांच सदस्यों का चयन देश के सम्मानित लोगों में से करेंगे, और इस तरह दस लोगों की सर्च कमेटी बनेगी।“
यहीं इस मंडली का लोकतंत्र विरोधी चेहरा बेनकाब हो जाता है और इसकी जनविरोधी अभिजात्य सोच को समझा जा सकता है। इस ड्राफ्ट के मुताबिक केवल पूर्व सीईसी और पूर्व सीएजी ही इस देश की सवा अरब आबादी में इस लायक समझे गए हैं जो ईमानदारी का पुतला हैं। सर्च कमेटी के बाकी पांच सदस्यों में भी देश के आम नागरिकों की कोई भूमिका नहीं होगी केवल ”सम्मानित लोगों“ की ही भूमिका होगी। यानी लोकतंत्र की मूल भावना ‘जनता का शासन जनता के द्वारा जनता के लिए’ बेमानी हो जाएगा। इतना ही नहीं अब जरा इन ‘सम्मनित लोगों’ की परिभाषा पर भी ध्यान दे लिया जाए-”सर्च कमेटी देश के विभिन्न सम्मानित लोगों जैसे संपादकों, कुलपतियों, या जिनको वो ठीक समझें- उनसे सुझाव मांगेगी।“ यानी इस मंडली की नजर में अस्सी रुपये रोज की दिहाड़ी का मजदूर इस देश का सम्मानित नागरिक नहीं है, सम्मानित संपादक जी हैं, कुलपति हैं या वे जिन्हें यह कमेटी कह दे कि वे सम्मानित हैं। फिर कमेटी किसी दाऊद या वीरप्पन को भी सम्मानित नागरिक होने का प्रमाणपत्र दे सकती है क्योंकि ”जिनको वो ठीक समझे“!!!
अब एक और तर्क इस मंडली के लोकपाल के खिलाफ, इसे आप कुतर्क की संज्ञा भी देने के लिए स्वतंत्र हैं। इस मंडली के प्रमुख सदस्यों में अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, संतोष हेगड़े, किरन बेदी, शांति भूषण और प्रशांत भूषण हैं। यदि भूषण द्वय को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी सरकारी मुलाजिम रहे हैं। अब जरा इनके कार्यकाल पर भी गौर कर लेना एक बार जरूरी है कि अपने सरकारी कार्यकाल में ये लोग आम आदमी के हितों और लोकतंत्र के प्रति कितने ईमानदार रहे हैं। सवाल तो यह भी उठ रहे हैं कि इस तथाकथित आन्दोलन को समर्थन दे रही संस्था इंडिया अगेंस्ट करप्शन को भारी मात्रा में धन कहां से मिल रहा है और इस संस्था के पीछे कौन सी पूंजी लगी हुई है? क्या आज तक इस संस्था ने किसी भूखे को एक समय की रोटी खिलाई है? क्या कभी इस संस्था ने किसी ऐसे बच्चे की फीस दी है जो पैसे के अभाव में अपनी पढ़ाई नहीं कर पा रहा? अभी दिल्ली में राजघाट पर इरोम शर्मिला के समर्थन में ‘सेव शर्मिला कैंपेन’ ने एक आंदोलन किया उस आंदोलन की कमेटी ने जो आय व्यय का ब्योरा दिया उसके मुताबिक मात्र 1700 रुपये आंदोलन पर खर्च हुए और जिस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में जंतर मंतर पर चार सौ लोग उपवास पर बैठे हों सुनते हैं उस उपवास पर पैंतीस लाख रुपये खर्च हुए। यही सच्चाई इस लोकपाल की है।
जिस देश में शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर बजट का छह प्रतिशत भी खर्च न किया जाता हो उस देश में अन्ना मंडली की मांग है कि लोकपाल के सालाना खर्चे के लिए बजट का आधा प्रतिशत खर्च किया जाए। यानी जहां इस देश के नौनिहालों की पढ़ाई के पूरे इंतजाम न हों, राइट टू एजुकेशन आ जाने के बाद भी सभी के लिए शिक्षा का इंतजाम न हो पा रहा हो उस देश के सालाना बजट का आधा प्रतिशत भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के नाम पर खर्च कर दिया जाए? यह कहां की समझदारी है? क्या आपको ऐसा लोकपाल चाहिए? कम से कम मैं इस पक्ष में नहीं हूं।