नियामक आयोग मत बनें, हमने बड़े-बड़े क्षत्रपों को हाशिये पर जाते देखा है
नियामक आयोग मत बनें, हमने बड़े-बड़े क्षत्रपों को हाशिये पर जाते देखा है
नियामक आयोग मत बनें, हमने बड़े-बड़े क्षत्रपों को हाशिये पर जाते देखा है
अंबरीश कुमार
शेखर गुप्ता को लेकर सबसे ज्यादा एतराज इस बात पर हो रहा है कि उन्होंने एमसीडी के बारे में नहीं लिखा दिल्ली सरकार के बारे में ट्वीट किया।
उन्होंने जो लिखा, वह सोशल मीडिया पर लिखा, जिस पर न जाने कितने लोग हर समय अल्ल-बल्ल लिखते रहते हैं।
कोई क्या लिखेगा इसका नियामक आयोग खुद को न बनायें।
अभिव्यक्ति की आजादी इस मुल्क में है तो उसे बने रहने दें। वे भाजपाई हो गए हैं, इससे अगर एतराज है तो इससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण तर्क और कोई नहीं हो सकता।
किसी पत्रकार के लिए क्या यह कोई नियम है कि वह सिर्फ कांग्रेसी बने, सिर्फ वामपंथी बने या संघी बने।
आप यानी आम आदमी पार्टी वाली धारा तो सबसे नई है, जिसकी अभी तक कोई विचार धारा ही साफ़ नहीं है। इसके बावजूद बहुत से रिपोर्टर से लेकर संपादक तक बह गए और अब ठीकठाक जगह पहुंच भी गए हैं, तो क्या इस तर्क के आधार पर सब दलाल हो जायेंगे।
जो भाजपा का गुणगान करते करते सरकार से सम्मानित हुए और लाभ के पद पर पहुंच गए, क्या वे सब दलाल हो जाएंगे।
जो कांग्रेस के दौर में साल में छह महीने विदेश रहते थे, कई तरह का लाभ लेते थे, क्या वे सब दलाल हो गए।
इंडियन एक्सप्रेस समूह में मैंने अरुण शौरी को मंडल आयोग के खिलाफ जहर भरा अभियान चलाते देखा, जिसके चलते उन्हें एक्सप्रेस से जाना भी पड़ा तो प्रभाष जोशी को आपरेशन ब्लू स्टार का समर्थन करते। हम लोग इसके खिलाफ थे। पर कोई क्या लिख रहा है, उसके आधार पर उसे किसी का दलाल कह दें, यह कौन सा कुतर्क है।
पत्रकार अपनी धारा तय करता है और उस पर चलता है।
रिपोर्टर से यह अपेक्षा होती है कि वह खबर और विचार का घालमेल न करे। पर वह अपना निजी विचार न जाहिर करे, यह कौन सा तर्कहै।
लोकतंत्र है और विचार इस लोकतंत्र की आक्सीजन है। तानाशाही नहीं है। सवाल उठाइए असहमति जताइए पर खुद को खुदा बनाकर किसी को भी 'दलाल' घोषित करने का फ़तवा न दे। ये तो पूर्ण राज्य वाले भी नहीं है। हमने बड़े-बड़े क्षत्रपों को हाशिये पर जाते देखा है।


