एक थबांगी नजरिया
पवन के पटेल
थबांग नेपाल का ऐसा पहला गाँव है जो १९५० के दशक में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के साथ ही समाजवादी नेपाल के सपने के साथ उठ खड़ा हुआ। थबांग, नेपाल के पश्चिमी क्षेत्र के जिलों रोल्पा और रुकुम जिले के सीमा पर स्थित दलित और मगर जनजाति बहुल एक ऐसा गाँव हैं जिसे नेपाल का “येनान” कहलाने का गौरव हासिल है।
येनान इसलिये क्योंकि एक दशक तक चले माओवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन का आधार इलाका होने का इसे वह गौरव हासिल था और सबसे पहले प्रयोग के बतौर जनता की सार्वभौमिक सत्ता जिसे जनसत्ता के रूप में जाना गया और मूर्त रूप में थबांग गाँव जन सरकार की स्थापना यहाँ हुयी और 2002-2003 में इसे बृहद् रूप देते हुये माओवादी पार्टी ने इसी गाँव को केन्द्र बनाकर “थबांग बिशेष जिला” की स्थापना करते हुये नेपाल के 75 जिलों की संरचना में 76वाँ जिला स्थापित किया। और यही नहीं जनमुक्ति सेना की स्थापना का क्षेत्र भी यही है, और 2003 में मगरात स्वायत्त प्रदेश की स्थापना भी यही हुयी और इसकी राजधानी भी थबांग थी। आम जनता के बीच झगड़ों के निपटारे के लिये जन अदालत का सफल प्रयोग यही से शुरू किया गया। दुर्गम पहाड़ों के बीच से 93 किलोमीटर लम्बी शहीद स्मृति सड़क का निर्माण कार्य भी यहीं से शुरू किया गया।
गरीब जनता और जनयुद्ध में शहीद हुये कार्यकर्ता परिवारों के बच्चों के लिये अजम्बरी कम्यून और शहीद स्मृति स्कूल भी यही पर सबसे पहले शुरू किया गया।
अभी हाल फिलहाल ही नहीं जब 19 नवम्बर, 2013 को थबांग ने फिर से बिद्रोह का झंडा उठाते हुये संविधान सभा के दुसरे पाली के लिये हुये चुनावों का पूर्ण बहिष्कार किया और 1950 से विद्रोह की अनवरत बिरासत को कायम रखा। 1953 से ही पहली बार जब पूरे गाँव ने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के पक्ष में सारे वोट दिये, तब से लेकर नेपाल मे सामंतवादी राजतन्त्र के खिलाफ हुये समय के बिभिन्न कालखंड में जनऐक्बध्यता दिखाते हुये जन संघर्ष की एक मिसाल बन गया। 1990 के पहले बहुदलीय लोकतन्त्र के पक्ष में खड़े होते हुये राजशाही द्वारा पोषित निरंकुश पंचायती सत्ता के ‘लोकतान्त्रिक चुनाव’ का बहिष्कार करने के लिये शाही नेपाली सेना का ब्यापक दमन भी झेला और फिर पंचायती सत्ता के ढलने के बाद अस्तित्व में आई बहुदलीय लोकतन्त्र के दौर में नेपाली कांग्रेस द्वारा ढाए गए जुल्म और उसके खिलाफ हुये जनप्रतिरोध का प्रतीक भी बना। इसी दौर में गिरिजा कोइराला सरकार द्वारा चलाये जा रहे बर्बर पुलिसिया ऑपरेशन के खिलाफ सी-ज अभियान जैसे जनपक्षीय राजनीतिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के प्रतिरोध को दमनपेरू में समाजवाद के लिये चल रहे क्रन्तिकारी आन्दोलन के साथ अपने संघर्ष को विश्वव्यापी संघर्ष के साथ जोड़ते हुये 90 के दशक में थबांग ने नेपाल में माओवाद को जन्म दिया।

थबांग ने जनयुद्ध को जन्म दिया। जनयुद्ध ने नेपाल में समाजवादी राज्यसत्ता के भ्रूण अंग के रूप में गाँव-गाँव में जनसत्ता को जन्म दिया और इस सत्ता की टिके रहने देने के लिये जनता की जनमुक्ति सेना को जन्म दिया। इस प्रक्रिया में ही जनयुद्ध ने प्रचंड को पैदा किया। पर जब थबांग ने मौन धारण किया, तब सब कुछ ख़त्म, जिसे अभी तक प्रचंड के करिश्मा के तौर पर कॉर्पोरेट जगत के संचार माध्यम और तमाम सरकारें, और अन्तराष्ट्रीय एजेंसिया प्रचारित कर रही थी, वह करिश्मा भी ख़त्म। तमाम सारी प्रचार और पैसे के ताम झाम भी प्रचंड और उनकी पार्टी की अभी हाल में हुये संविधान सभा चुनाव में हुये दुर्दशा से बचा नहीं सके। वह प्रचंड करिश्मा कहाँ चला गया जिसकी वजह से उनकी माओवादी पार्टी पहली दौर की संविधान सभा चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरे थे।
समाज विज्ञान चिन्तन में पूँजीवादी प्रस्थापना को मजबूती से स्थापित करने में मैक्स वेबर नाम के एक बड़े चिन्तक का बड़ा नाम हैं, जिन्होंने नेताओं के करिश्मा सिद्धान्त पर बहुत प्रकाश डाला है। 2006 में हुये शांति समझौते के बाद और हिंसा का रास्ता छोड़ कर जिस प्रकार प्रचंड के नेतृत्व में संसदीय राजनीति में माओवादी आये, फिर संविधान सभा वाया प्रचंड के नेतृत्व में सरकार बनी, इस पूरे दौर के घटनाक्रम में प्रचंड करिश्माई नेतृत्व को कॉर्पोरेट जगत की पूँजीवादी सत्ता ने जिस तरह से हाथों हाथ लिया और कसीदे गढ़े। इसकी बानगी में एक उदाहरण देना ही काफी है। भारतीय अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के काठमांडू स्थित सम्वाददाता अनिरबन रॉय लिखित प्रचंड की बायोग्राफी, “प्रचंड: द अननोन रिवोल्यूशनरी”, 2008, मंडला बुक पब्लिशर्स, काठमांडू; प्रचंड की इस आत्मकथा का हिंदी सहित दुनिया की कई अन्य भाषाओं में अनुवाद प्रायोजित कराया गया। जैसे कि यह प्रचंड जैसे नेता के करिश्मे का ही कमाल था, कि एक अंडर ग्राउंड पार्टी जो हिंसावादी रास्ते से नेपाल में समाजवाद की स्थापना करना चाहती थी, उसे वे अहिंसावादी रास्ते पर लेकर आये, और नेपाल में समाजवाद की स्थापना और चाहे जो करो, इस बात पर जनता को वह अपने कार्यकर्तायों और बहुसंख्यक शुभ चिंतकों समझा भुझा सके, पर यह करिश्मा अभी काम क्यूँ नहीं कर सका, इस बात की तो कोई व्याख्या इसके पास मौजूद नहीं है। क्यूंकि यह करिश्मा का वेबेरियन सिद्धान्त जनता को मूढ़ और बेवकूफ, और भीड़ के रूप में विवेचित करता है, यानि जनता अपनी आवश्यकता के अनुसार इतिहास के एक काल खंड में नेता को पैदा करती है, इस बात से उलट, एक नेता के करिश्मे पर ही उनका ध्यान रहता है, इसलिये शांति-शांति की रट लगाये रखने वाले लोग, प्रचंड के प्रचंड करिश्मे पर अभी कुछ साल पहले तक रश्क कर रहे थे, कि देखिये, शांति प्रक्रिया के रैशनल परिणिति के रूप में नेपाल में गणतन्त्र की स्थापना करने वाली सेना जनमुक्ति सेना को उनके प्रधानमंत्री बाबुराम जी ने गुरिल्ला स्टाइल में शाही नेपाल सेना लगाकर रातोंरात विघटन करा ही दिया और आंशिक रूप से कुछेक माओवादी सैनिकों की भर्ती करा कर ही सही, और इनमें से अधिकाश प्रचंड के कृपापात्र और चाकर थे, जो एक दौर में नेपाल को समाजवादी गणतन्त्र लाने के लिये निर्मित जनमुक्ति सेना, नेपाल में मध्यम और शीर्ष दर्जे के कमांडर पदों पर थे। बहरहाल यह अलग बात है कि संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमुक्ति सेना, नेपाल के 19,600 माओवादी लड़ाकू थे, पर मात्र 1352 भूतपूर्व लड़ाकू ही नेपाल की ‘राष्ट्रीय सेना’, नेपाल आर्मी में शामिल किये जा सके, और सभी शेष लड़ाकुओं को वालंटरी रिटायरमेंट स्कीम के तहत दो से सात लाख की दर पर नीलामी लगाकर निपटा दिया गया, पर राजतन्त्र के स्थान पर गणतन्त्र को संस्थागत करने वाला घोषणापत्र यानि गणतन्त्र नेपाल का नया संविधान अभी तक हवा में ही लिखा जा रहा था। संविधान सभा के जरिये शांतिपूर्ण तरीके से नेपाल में समाजवाद स्थापित करने की बात तो बहुत दूर की कौड़ी थी।
नेपाल में करीब एक दशक तक चले क्रान्तिकारी आन्दोलन ने ग्रामीण इलाकों में सदियों से जारी सामंतवादी राजतन्त्र की चूले ही नहीं हिलाई वरन सम्पूर्ण जनमानस में इस राजतन्त्र को अपनी “ट्विन पिलर थ्योरी” यानि राजतन्त्र और लोकतन्त्र दोनों को समान रूप से टिके रखने के लिये जिम्मेवार भारतीय पूँजीवादी प्रभुत्ववाद के खिलाफ भी आम जन मानस को चेतना संपन्न करते हुये पिछड़ी हुयी सामन्तवादी उत्पादन सम्बंधों के धवस्त कर नई सामाजिक ब्यवस्था लाने के लिये आधार देने की शुरुवात की। गाँव-गाँव में इस प्रक्रिया में इस नई व्यवस्था के भ्रूण के रूप में राजशाही के दौर के शासन तन्त्र यानि पुलिस सफलता पूर्वक खदेड़कर माओवादी आन्दोलन पहाड़ से लेकर तराई के इलाकों में कृषक जनता को अधिकार सम्पन्न करने के लिये गाँव जन सरकार की स्थापना की सुरुवात की थी। सदियों से जारी सामन्तवादी पुरानी उत्पादन प्रणाली से रेडिकल क्रमभंग करने के लिये जनमानस को माओवाद की विचारधारा से लैसश करते हुये सामजिक और सांस्कृतिक ब्यवस्था के स्वरूपों यथा जाति प्रथा, छुवाछूत, लैंगिक हिंसा इत्यादि को कमजोर ही नहीं किया वरन् जनता की पिछड़ी चेतना का निरंतर क्रांतिकरण किया। यही वह दौर था जब यह कहावत अस्तित्व में आई कि नेपाल में दिन ही नहीं मगर रात में यदि कहीं महिलाएं सबसे ज्यादा सुरक्षित हैं तो वह माओवादी के केंद्रीय आधार इलाके <यानि २००४ के बाद से थबांग को केंद्रीय आधार इलाके राजधानी बनाकर मगरात स्वायत्त प्रदेश के सम्पूर्ण भूगोल>।
थबांग सम्पूर्ण देश को अपनी तरह का ही बना देने की दिशा में अभी बढ़ ही रहा था या यूँ कह ले कि नेपाल, थबांग बनने की दिशा में जा ही रहा था, इस पूरी प्रक्रिया को, जो कि नेपाल ही नहीं बल्कि साउथ एशिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन की रवायत है जो कि उसे विरासत में मिली है यानि— मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के मुक्तिकामी दर्शन को उपयोगितावादी दर्शन में तब्दील कर देने की, या कामनसेंस के देशी भाषा में कहें तो, माओवाद का छोंका लगाकर उस पूरी प्रक्रिया को ही रोक दिया, जो 1996 में नेपाली माओवादिओं ने शुरू की थी, जो सामन्तवादी समाज का आमूलचूल बदलाव करना चाहती थी न कि राज्यतन्त्र के प्रतीक राजा को हटाकर मात्र रंग रोगन लगाकर जैसे कि मई 2006 के जनआन्दोलन के बाद श्री 5 की शाही नेपाल सरकार का नाम बदलकर नेपाल सरकार कर दिया गया और वैसे ही शाही नेपाली सेना का नामकरण नेपाली सेना कर दिया गया, यानि पुरानी बोतल में नई शराब, जबकि लब्बोलुवाब यह कि सालों से भंग पड़ी संसद को यह करने का कोई सम्वैधानिक अधिकार नहीं था और संविधान सभा के चुनाव का उस समय तक अता पता नहीं था। राज्य का पुनर्संरचनाकरण के फिकरे के तहत, जो कि प्रचंड के दाहिने हाथ माओवादी नेता बाबुराम भट्टराई की कवायद के रूप में सामने आई जिसके तहत सामन्तवाद और भारतीय प्रभुत्ववाद के खिलाफ जारी जंग को संविधान सभा के जरिये नेपाली समाज की पुनर्संरचना करने के नाम की संजीवनी बूटी प्राप्त होने के कारण रोक दी गयी। यह वैसे ही है, जैसे कि आमतौर पर होता है, देशी नेपाली दलाल गाँव की किशोरियों को ‘स्वीटज़रलैंड’ घुमाने के मीठे खवाब दिखाकर दिल्ली, बम्बई, खाड़ी देशों और मलेशिया के बाजारों में बेच देता है। नेपाल के प्रचंड करिश्मे ने भी यही बात नेपाली जनता के साथ दोहराई इसलिये जनता एक हिस्से ने (करीबन ३० लाख) तो चुनाव का सफलता पूर्वक बहिष्कार किया और जिसने वोट भी दिया तो मज़बूरी में, उन भ्रष्टाचारी, प्रतिक्रियावादी और संघीय गणतन्त्र नेपाल व संविधानसभा की चिर विरोधी संसदीय दलों को।
थबांग ने मौन धारण करते हुये करीबन तीस लाख लोगों के साथ खड़ा होकर यह स्वर बुलंद करते हुये संघर्ष करने की नई राह दिखाई है। थबांग का मौन धारण करना इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि थबांग ने ही नेपाल में माओवाद को पैदा किया था, और अब जब नेपाल में माओवाद के नाम से कई रंग-बिरंगी पार्टियाँ अस्तित्व में हैं, तब थबांग किसके साथ खड़ा होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा पर एक बात तो तय है कि संविधान सभा के रास्ते को थाबांगी जनता ने नकार दिया है क्योंकि यह उनके नेपाल आमूलचूल परिवर्तन के सपने के साथ कहीं खड़ा नहीं होती दिखती। तभी तो प्रगतिवादी धारा के युवा नेपाली कवि स्वप्निल स्मृति की यह कबिता थबांगी चेतना के साथ बिलकुल सटीक बैठती है,
इस एक मिनट मौन धारण से क्या होगा?
हर एक प्रत्येक मिनट मौन धारण में,
आधा मिनट मुझे हंसी आती है।
और शेष बचे समय में,
मेरा मन जार-जार रोता है।
पवन के पटेल, शोध छात्र, समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली। पवन का शोध कार्य नेपाल में 1996 से 2006 तक चले माओवादी जनयुद्ध के उद्गम स्थल थबांग गाँव में माओवादी द्वारा संचालित गाउँ जनसत्ता तथा जनयुद्ध के अंतरसम्बन्ध पर आधारित है। लेखक नेपाल में भारतीय हस्तक्षेप के खिलाफ गठित भारत-नेपाल जनएकता मंच के पूर्व महासचिव भी रह चुके हैं।