0 राजेंद्र शर्मा

आखिरकार, भाजपा ने भी नोटबंदी की पहली सालगिरह मनाने का फैसला कर लिया है। विपक्ष के नोटबंदी का एक साल पूरा होने पर, 8 नवंबर को काला दिवस/ विरोध दिवस मनाने के फैसले के जवाब में, सत्ताधारी पार्टी/ केंद्र सरकार ने ‘काला धन विरोधी दिवस’ मनाने का फैसला लिया है। अचरज नहीं कि विपक्षी पार्टियों के नोटबंदी के मुद्दे पर ‘एक साथ प्रहार करने’ के एलान के बाद, सत्ताधारी पार्टी ने अपनी जवाबी प्रचार मुहिम के एलान के लिए, वित्त मंत्री अरुण जेटली को ही उतारा।

दुर्भाग्य से यह अन्य चीजों के अलावा नरेंद्र मोदी के राज में सत्ताधारी पार्टी तथा उसके संचालक आरएसएस और सरकार के बीच की विभाजन रेखा के ज्यादा से ज्यादा मिटते जाने को भी दिखाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी सरकार में नंबर दो की हैसियत के दावेदार, अरुण जेटली भाजपा-संघ के वरिष्ठता क्रम में ऐसी किसी हैसियत के आस-पास भी नहीं बैठेंगे। फिर भी, सत्तापक्ष के इस जवाबी अभियान के एलान के लिए, जिसमें केंद्रीय मंत्री ही मुख्य स्टार रहने जा रहे हैं, जेटली के उतारे जाने का संबंध सिर्फ सत्ताधारी पार्टी पर, मोदी सरकार के ज्यादा से ज्यादा हावी होते जाने से ही नहीं है। इससे बढ़कर इसका संबंध विपक्ष की मुहिम के जवाब में, भाजपा के एक तरह से मजबूरी में ही, इस मुहिम में धकेला जाना मंजूर करने से ही लगता है। यह ऐसा ही था जैसे जेटली से कहा जा रहा हो कि तुम्हारा बंदर, तुम ही संभालो!

यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं होगा कि विपक्ष अगर नोटबंदी के मामले में, वह भी गुजरात तथा हिमाचल के विधानसभाई चुनाव की पृष्ठभूमि में, मोदी सरकार को घेरने की एकजुट कोशिश नहीं कर रहा होता, तो भाजपा-संघ ने नोटबंदी की सालगिरह को और वास्तव में नोटबंदी को ही, भुला देना ही पसंद किया होता।

इस तरह संघ-भाजपा के नोटबंदी को गले पड़ा ढोल मानने के कारण भी समझना कोई मुश्किल नहीं है। वास्तव में इसके कारणों का खुलासा प्रकारांतर से अरुण जेटली ने अपनी पत्रकार वार्ता में खुद ही कर दिया।

बेशक, जैसी कि मोदी सरकार के वित्त मंत्री से उम्मीद की जाती है, अरुण जेटली ने नोटबंदी की सफलता का एक बार फिर जोर-शोर से दावा किया। लेकिन, उन्होंने नोटबंदी की जिन सफलताओं का दावा किया, खुद ही उनके दावे की पोल खोल देती हैं। उन्होंने दावा किया कि नोटबंदी ने अपने तीनों लक्ष्य पूरे किए हैं-‘नकदी की अर्थव्यवस्था को सिकोड़ना, कारोबार में डिजिटल लेन-देन को बढ़ाना और कर आधार को बढ़ाना’। बेशक, इन लक्ष्यों की सफलता किस स्तर की है, इस पर भी बहस हो सकती है। लेकिन, यहां गौर करने वाली असली बात यह है कि 8 नवंबर की मध्यरात्रि से देश को यकायक नोटबंदी का अभूतपूर्व विध्वंसक झटका देने का एलान करते हुए, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस कदम के जो लक्ष्य बताए थे, उनका जेटली द्वारा अब जिन ‘सफलताओं’ का दावा किया जा रहा है उनसे, कुछ लेना-देना ही नहीं है। प्रधानमंत्री ने तो नोटबंदी से काले धन का एक प्रकार से अंत ही हो जाने और जाली नोटों पर तथा टेरर फंडिंग पर अंकुश लगने के दावे किए थे, जिनमें से काले धन पर प्रहार का खुद प्रधानमंत्री तथा सत्ताधारी पार्टी द्वारा सबसे जोर-शोर से प्रचार किया गया था। यहां तक कि सत्ताधारी पार्टी अब भी नोटबंदी के बचाव के अपने अभियान में उसके काले धन के विरुद्घ हमला होने के प्रचार का ही सहारा लेने जा रही है। इसके बावजूद, चूंकि उक्त सभी लक्ष्यों के मामले में नोटबंदी का हासिल बड़ा सा शून्य ही रहा है, चतुर वकील अरुण जेटली अब नोटबंदी के लक्ष्यों को ही बदल देने का पैंतरा आजमा रहे हैं।

संघ-भाजपा के दुर्भाग्य से नोटबंदी की मोदी सरकार की सबसे ज्यादा किरकिरी कराने वाली विफलता काले धन पर अंकुश लगाने के मामले में ही रही है। महीनों तक टाल-मटोल करने के बाद, रिजर्व बैंक को अंतत: यह स्वीकार करना पड़ा है कि पांच सौ और हजार रुपए के जिन नोटों के मामले में नोटबंदी की गयी थी, उनका 99 फीसद हिस्सा बैंकिंग प्रणाली में लौट आया है।

दूसरे शब्दों में नोटबंदी को लेकर सरकार की ओर से किए जा रहे इस आशय के तमाम दावे झूठे साबित हुए हैं कि इस कदम से बहुत बड़ी तादाद में और वास्तव में नोटबंदी की जद में आये नोटों का 20 से 30 फीसद तक हिस्सा, काला धन धारकों के पास पड़ा-पड़ा ही नष्ट हो जाने वाला है तथा लौटकर बैकिंग प्रणाली में ही नहीं आने वाला है। लेकिन, इसका अर्थ यह भी है कि वास्तव में जो दावा किया जा रहा था उसका उल्टा ही हुआ है और इस समूची प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर काला धन धारकों को अपना काला धन, बैंकिंग के जरिए सफेद करने का ही मौका मिल गया है। अचरज नहीं कि कुछ विपक्षी पार्टियों ने इस नोटबंदी को, अब तक की सबसे बड़ी मानी लांड्रिंग योजना का नाम दिया है। नोटबंदी से नगण्य मात्रा में जाली मुद्रा पकड़े जाने से ऐसा लगता है कि नोटबंदी का ऐसा ही उल्टा प्रभाव जाली मुद्रा के मामले में भी हुआ है और चलन में चल रहे जाली नोटों के बड़े हिस्से को वैध मुद्रा में तब्दील कर दिया गया है। इस तरह नोटबंदी उल्टा फायर करने वाली बंदूक साबित हुई है। धुंआधार प्रचार के जरिए जनता के बड़े हिस्से को दिखाए जा रहे सपने के विपरीत, नोटबंदी से अवैध कमाई करने वालों का कोई नुकसान होना तो दूर, वास्तव में उन्हें जबर्दस्त उपहार ही मिल गया है।

लेकिन, नोटबंदी से असली नुकसान इसके सिर्फ अपने घोषित लक्ष्यों से उल्टी दिशा में जाने के रूप में ही नहीं हुआ है। इससे भी कहीं गंभीर और भारी नुकसान, अर्थव्यवस्था का और उसमें भी खासतौर पर असंगठित या अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हुआ है।

बेशक, नोटबंदी का सबसे आंखों में गढऩे वाला असर तो बैंकों के आगे लगी रही अंतहीन कतारों और इन कतारों में तथा नोटबंदीशुदा नोटों को न बदलवा पाने की वजह से, नकदी न होने से हुई सौ से ज्यादा मौतों के रूप में ही सामने आया था। बहरहाल, अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर और उससे जुड़े देश के मेहनत-मजदूरी करने वालों के विशाल बहुमत पर, नोटबंदी की घोषणा के साथ जो मार पडऩी शुरू हुई थी, उसका सिलसिला अब तक थमने का नाम नहीं ले रहा है। तरह-तरह के दिहाड़ी मजदूरों तथा खेती-किसानी से जुड़े तबकों से लेकर, छोटे दूकानदारों व व्यापारियों तक, जनता के विशाल हिस्से की रोजी-रोटी को नोटबंदी ने तबाह कर के रख दिया। इसका असर आज जीडीपी की वृद्घि दर में गिरावट और रोजगार में कमी के आंकड़ों में देखा जा सकता है। वास्तव में इसी हमले को अब छोटे व्यापारियों तथा छोटे कारोबारों के मामले में जीएसटी ने और आगे बढ़ा दिया है।

अचरज की बात नहीं है कि आम जनता के बीच से इस सब पर व्यापक प्रतिक्रिया सामने आ रही है। जनता के लिए अनुभव-सिद्घ इस सचाई को संघ-भाजपा की अपनी और उसके द्वारा नियंत्रित, सारी प्रचार मशीन भी आसानी से झुठला नहीं सकती है। यही सचाई है जो खासतौर पर गुजरात में विधानसभाई चुनाव को लेकर, उनकी बौखलाहट के रूप में सामने आ रही है। संघ-भाजपा खासतौर पर गुजरात का चुनाव हर कीमत पर जीतना चाहेंगे, इसका सबूत उन्होंने चुनाव आयोग से गुजरात के चुनाव की तारीखों की घोषणा टलवाने के जरिए पहले हीर दे दिया है। इस अवधि का इस्तेमाल प्रधानमंत्री के ही दो-दो दौरों में अनेक उद्घाटन, घोषणाएं आदि कराने समेत, चुनाव से ठीक पहले जनता के विभिन्न हिस्सों को रिझाने की तरह-तरह की कोशिशों के लिए किया गया है। हालांकि, इसे चुनाव आयोग के विवेक का मामला बताने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इससे तो गुजरात सरकार को भी इंकार नहीं है कि उसने ही चुनाव आयोग से, अपने राज्य में चुनाव की तारीखें हिमाचल के साथ घोषित न किए जाने का आग्रह किया था।

आदर्श चुनाव संहिता के लागू होने से पहले, थोड़ा सा अतिरिक्त समय हासिल करने की यह उत्सुकता, ‘150 प्लस’ की सारी शेखी के बावजूद, गुजरात के चुनाव को लेकर संघ-भाजपा के हाथ-पांव फूलने को ही दिखाती है। दलित, पिछड़ा तथा पटेल समुदायों के युवाओं के असरदार प्रतिनिधियों के विपक्ष के साथ खुलकर खड़े होने से उनकी बदहवासी और बढ़ गयी है। इसी पृष्ठभूमि मेें नोटबंदी की सालगिरह, विपक्ष के लिए सत्तापक्ष को घेरने का प्रभावशाली मौका बन सकती है। भाजपा, अपने काले धन के विरुद्घ होने का शोर मचाकर, इसकी काट करने की कोशिश तो करेगी, लेकिन इसका नुकसान कम करने की कोशिश से ज्यादा कारगर साबित होना मुश्किल है। भाजपा अब और काले धन पर हमले के स्वांग के जरिए, नोटबंदी का बचाव नहीं कर पाएगी। 0