#NarcissismWikipedia : न संविधान है। न लोकतंत्र है। न कानून का राज है। न संसदीय प्रणाली है। सिर्फ घृणा और हिंसा का राजकाज।

अब यह देश को माफिया गिरोह की तरह टुकड़ा-टुकड़ा बांट करके तबाह करने की राजनीति है। यह देश मृत्यु उपत्यका ही नहीं गैस चैंबर है। दम तोड़ रहे हैं लोग। लाशों से घिरे हुए हैं, लोग लेकिन इस तिलिस्म का अंध राष्ट्रवाद कुछ और है।

पलाश विश्वास

इस देश को माफिया गिरोह की तरह टुकड़ा- टुकड़ा बांट करके तबाह करने की राजनीति है। यह माफियाराज है। ग्रीक मिथकों के राजा नरसिस का राज है यह।

हम ग्रीक त्रासदी में आत्ममुग्ध अहंकारी निरंकुश तानाशाह के बलिप्रदत्त प्रजाजन हैं तो हम ग्रीक अर्थव्यवस्था की त्रासदी को भी मौज मस्ती में जी रहे हैं।

मुझे शुरू से ही यह कहने में कोई हिचक नहीं हुई कि मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था का अश्वमेधी नस्ली नरसंहारी अभियान है।

यह मैंने लगातार 1991 से ही सार्वजनिक सभाओं, सम्मेलनों, यूट्यूब पर कहा है और लिखा है। इसी वजह से कारपोरेट मीडिया की काली सूची में मैं हमेशा के लिए दर्ज हो गया और इसका मुझे कोई अफसोस नहीं है।

मैं जब अमेरिका से सावधान लिख रहा था पहले खाड़ी युद्ध से ही, तब भी प्रबुद्धजनों को लगा कि यह बकवास है।

हमने तो सृजन से छुट्टी ले ली है, सृजनशील रचनाकारों ने समाज को अपनी प्रतिष्ठा और पुरस्कारों के बदले दिया क्या है।

नोटबंदी की शुरूआत से ही हम लिखते रहे हैं कि कालाधन बहाना है, कारपोरेट एकाधिकार के लिए कृषि के बाद व्यवसाय से भी आम जनता और खासतौर पर बहुजनों को बेदखल करके सत्तावर्ग का नस्ली वर्चस्व का यह हिंदुत्व का एजेंडा है, जिसके लिए असली मकसद कैशलैस इंडिया के जरिये देश में फिर कंपनी राज बहाल करना है।

डिजिटल इंडिया का सीधा मतलब है अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली का विध्वंस और सत्तावर्ग से बाहर मेहनतकशों, बहुजनों और आम जनता का नस्ली नरसंहार।

नोटबंदी के बाद लगातार भारतीय बैंकों के अफसरों और कर्मचारियों से मेरी लगभग रोजाना बातचीत होती रही है।

बैंकों को जानबूझकर दिवालिया बनाने और नानबैंकिंग कारपोरेट कंपनियों के हवाले करेंसी सौंपने के बारे में मैं वर्षों से लिख रहा हूं।

नोटबंदी ने बैंकों में लोगों की आस्था खत्म कर दी है।

डॉ. अमर्त्य सेन, कौशिक बसु, अभिरूप सरकार जैसे तमाम अर्थशास्त्री चेता चुके हैं। दीपक पारेख, अरुंधती भट्टाचार्य और एब विमल जालान भी नोटबंदी पर बोलने लगे हैं और बैंकों की समस्याओं का खुलासा करने लगे हैं।

हम कोई अर्थशास्त्री नहीं हैं और न हम फिल्मस्टार हैं कि आप हमारी बात गौर से सुनेंगे।

हम बैंकों के तमाम मित्रों को आगाह करते रहे हैं कि बैंकों को दिवालिया बनाकर उन तमाम बैंक अफसरों और कर्मचारियों का कत्लेआम है यह नोटबंदी।

अब बैंकों के घाटे का हजारों करोड़ के आंकड़े आने लगे हैं।

लोग अब अपनी नौकरियां बचा लें, बैंक तो बचेंगे नहीं।

हमने जीवन बीमा निगम और भारतीय स्टेट बैंक के सत्यानाश का ब्यौरा पिछले बीस साल में बांग्ला, हिंदी और अंग्रेजी में सैकड़ों बार दिया है।
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हम क्या करें, हमारी समझ से बाहर है।

लिखने के दौरान पोस्ट करने से पहले एक एक लाइन पोस्ट करता हूं कि आपकी कोई प्रतिक्रिया मिल जाये तो ज्यादा जानकारी दे सकता हूं। जो कभी नहीं होता।

पोस्टआफिस और भारतीय स्टेट बैंक का बैंड बाजा बज गया तो भारतीय अर्थव्यवस्था के नाम पर बचेगा सिर्फ भालुओं और सांढ़ों का सर्कस शेयर बाजार।

बहरहाल नोटबंदी के पहले दिन से, हम शुरू से कह लिख रहे हैं कि भारत की जनता की चुनी हुई सरकार पगला गयी है और यह किसी आत्ममुग्ध पागल तानाशाह का राजकाज है।

न संविधान है। न लोकतंत्र है। न कानून का राज है। न संसदीय प्रणाली है। न स्वतंत्रता है। न संप्रभुता है। न अवसर है। ऩ आजीविका है न रोजगार। न समता है न न्याय है। न सहिष्णुता है और न उदारता है। बहुप्रतचारित विविधता और बहुलता भी सिरे से गायब हैं नरसंहार संस्कृति में। सिर्फ घृणा और हिंसा का राजकाज।

अब यह देश को माफिया गिरोह की तरह टुकड़ा-टुकड़ा बांट करके तबाह करने की राजनीति है।

यह देश मृत्यु उपत्यका ही नहीं गैस चैंबर है। दम तोड़ रहे हैं लोग। लाशों से घिरे हुए हैं लोग लेकिन इस तिलिस्म का अंध राष्ट्रवाद कुछ और है।
राज्यों का राजस्व खत्म हुआ जा रहा है।

  • नोटबंदी के बाद राज्यों का राजस्व आधा हो गया है।
  • जीएसटी पर सर्वदलीय सहमति है।
  • डीटीसी पर सर्वदलीय सहमति है।
  • कर सुधार पर सर्वदलीय सहमति है।
  • निजीकरण विनिवेश अबाध पूंजी पर सर्वदलीय सहमति है।
  • कंपनी राज पर सर्वदलीय सहमति है।
  • बिल्डर माफिया प्रोमोटर राज पर सर्वदलीय सिंडिकेट सहमति है।
  • सैन्यदमन और सलवा जुड़ुम पर सर्वदलीय सहमति है।
  • शोरशराबे की नौटंकी संसदीय प्रणाली है।
  • सुधारों पर सर्वदलीय सहमति है।

राज्य सरकारों और वहां सत्ता पर काबिज ओवरड्राप्ट पैकेज सत्ता के क्षत्रपों को कोई फिक्र नहीं है। उन्हें या कुनबा पालना है या उन्हें कैडर समृद्धि की परवाह है। मूर्तियां गढ़नी हैं। आम जनता किस खेत की मूली है। मूली का जबाव फिर गाजर है।

रोजगार नहीं है तो रोजगार के अवसर नहीं हैं और न रोजगार सृजन है। सिर्फ अंतहीन बेदखली है। अंतहीन विस्थापन है। अंतहीन पलायन है। वोट हैं, लेकिन नागरिक मानवाधिकार नहीं है। नागरिकता भी नहीं है। वोट हैं लेकिन मनुष्य नहीं है।

जीएसटी लागू होने के बाद राज्य भारतीय बैंकों की तरह दिवालिया होने वाले हैं।

अब कश्मीर और तमिलनाडु हमारे सामने हैं, जहां राजकाज केंद्र के पैसे से चलता रहा है। तमिलनाडु का मुख्यमंत्री चाहे कोई हो, केंद्र की सत्ता से नत्थी होना उसकी अनिवार्यता है। नये राज्यों का हाल यही होना है। उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ समृद्ध हैं तो वहां सबसे ज्यादा लूटखसोट है। उनकी अकूत प्राकृतिक संपदा की खुली लूट है और जनता दाने-दाने को मोहताज बेरोजगार या बेदखल हैं। अंतहीन पलायन है।
इसी तरह कश्मीर में आजादी के बाद से तमाम सरकारें केंद्र की सत्ता से नत्थी रही है। इन दो बड़े राज्यों के अलावा असम को छोड़कर पूर्वोत्तर के सभी राज्यों का यही हाल है। पांडिचेरी और गोवा का भी यही हाल है।

दिल्ली में सरकार किसी की हो, वहां राजकाज केंद्र का होता है।

यूपी बंगाल और बिहार जैसे राज्यों में केंद्र के पैकेज के लिए मारामारी है। केंद्र से ओवरड्राफ्ट लेकर राज्यों की सरकारें चल रही हैं। वेतन भत्ता का टोटा है। कैडर कोटा है।

देश के संघीय ढांचे को तहस-नहस कर दिया गया है।

राज्यों के क्षत्रप इसके खिलाफ कभी प्रतिरोध नहीं कर सकते।

राजनीतिक समीकरण साधने के लिए वे चाहे राजनीति जो करें, राज्यों का राजकाज केंद्र की मदद के बिना नहीं चल सकता।

सही मायने में भारत में राज्य सरकारें केंद्र की बंधुआ सरकारों में तब्दील हैं और इसी वजह से मुक्तबाजारी अश्वमेधी अभियान इतना निरंकुश हैं।

केंद्र की निरंकुश सरकार गिरायी नहीं जा सकती क्योंकि क्षत्रप पिछवाड़ा उठाये हुए हैं। राजनीतिक अस्थिरता है लेकिन कायदा कानून क्षत्रपों के समर्थन से लगातार बेरोकटोक बदल रहे हैं। जनविरोधी कानून इसी तरह बन रहे हैं। लागू भी हो रहे हैं।

यही हमारा संघीय ढांचा है। लूटखसोट डकैती का स्थाई बंदोबस्त।

जो क्षत्रप केंद्र की मदद के बिना सरकार नहीं चला सकते, वे जनता के हक हकूक के लिए केंद्र से पंगा कैसे लेंगे, समझने वाली बात है।
फिर ये तमाम क्षत्रप दूध के धुले भी कतई नहीं हैं, जिस वजह से सींग चाहे कितनी तेज हों, इन सबकी नकेल केंद्र के हाथ में है।

भ्रष्टाचार के मामलों में केद्रीय जांच एंजसियों खासकर सीबीआई का इस्तेमाल संघ राज्य संबंध और देश के संघीय ढांचे के चरित्र का पैमाना है। सौदेबाजी के तहत सत्ता समीकरण बनाये ऱखना ही संघीय ढांचा है अब।

इतने सारे मामले चल रहे हैं, इतने आरोप प्रत्यारोप हैं, लेकिन क्षत्रपों और उनके अनुयायियों पर कभी कोई छापा जैसे अबतक नहीं पड़ा है, नोटबंदी में कालाधन की तलाश करने वाले रैडर के दायरे के बाहर हैं सारे क्षत्रप और उनके तमाम कमांडर, यह हैरतअंगेज है।

इंडिया टुडे का स्टिंग आपरेशन में दिखाया गया है कि कैसे अकेले गाजियाबाद और नोएडा में क्षत्रपों के यहां कालाधन सफेद करने का खुल्ला खेल फर्ऱूखाबादी चल रहा है।

चालीस फीसद कमीशन पर खास दिल्ली की गोद में जब जिला स्तर के क्षत्रप सिपाहसालार दस-दस करोड़ का कालाधन सफेद कर रहे हैं तो देश भर में रोजाना करोंड़ों की नकदी और सोना वगैरह बरामद करने वाली सेना की नजर में या गिरफ्त में कोई क्षत्रप या उनका कोई अनुयायी उसी तरह नहीं है जैसे नोटबंदी से पहले तमाम पूंजी पति, उद्योगपति और सत्ता दल से संतरी से लेकर सिपाहसालार को कालाधन सफेद करने का आजादी मिली हुई है।

यानी सीधे तौर पर कालेधन के खिलाफ इस मुहिम का राजनेता वर्ग पर कोई असर जैसे नहीं है, वैसे ही पूंजीपति वर्ग पर भी कोई असर नहीं है। सभी भाई बिरादर हैं। मंच पर एकदम फिटमफिट अभिनय कर रहे हैं और किसी का कुछ बिगड़ नहीं रहा है।

जनता दिलफरेब नारों से मदहोश है और नशाखुरानी बेरोकटोक है।

आयकर में छूट देने का गाजर बजट से पहले फिर लटकाया गया है ताकि वेतन और पेंशन न मिलने से नाराज सफेदकालर दो करोड़ पढ़े लिखे लोग बाग-बाग हो जायें कि जैसे आडवाणी को जुबान खोलते न खोलते संघ परिवार राष्ट्रपति पद की पेशकश करने लगा है, वैसे ही उन्हें भी घर में टैक्स में छूट की वजह से ज्यादा रकम वापस लाने की आजादी मिलने वाली है। भले ही बैंकों एटीएम की कतार में जान चली जाये।
जिन्हें टैक्स माफी देनी है, उन्हें अरबों का फायदा हो ही चुका है।

जिन्हें साठ फीसद आयकर देना था, वे नोटबंदी से पहले 30 सितंबर तक कालाधन बताकर पैंतालीस फीसद टैक्स कुल देकर सफेद धन वाले हो गये। यानी पंद्रह प्रतिशत आयकर में छूट। सरचार्ज और पेनाल्टी माफ।

नोटबंदी के बाद बाकी लोगों को कालाधन के एवज में पैंतालीस फीसद से कम कुल टैक्स आयकर, सरचार्ज, पेनाल्टी मिलाकर पचास फीसद टैक्स देना है साठ फीसद सिर्फ आयकर के बदले दस फीसद टैक्स छूट के साथ।

आम जनता भले ही सफेद धन के लिए साठ फीसद तक टैक्स भरती रहे, कालाधन के लिए आम माफी आम है।

नोटबंदी का यह खेल दरअसल कालाधन आम माफी योजना का सेल है, पचास फीसद तक छूट।

अब आप हिसाब जोड़ते रहें कि बजट में दस बीस पचास हजार तक की सीमा बढ़ने से आपको कितने करोड़ या अरब रुपयों का फायदा होना है, जो बड़े खिलाड़ियों को अब तक हो चुका है।

उनका लाखों करोड़ का कर्ज माफ। बैंकों को चूना। किसानों की थोक आत्मह्त्या।

उनका लाखों करोड़ का टैक्स हर साल माफ। टैक्स फारगन। बजट घाटे में।

उनको विदेशों में आपके इकलौते दो हजार के नोट के मुकाबले अरबों डालर,अरबों पौंड के निवेश की छूट बदले में देश में निवेश शून्य।

अनुदान सब्सिडी प्रावधान में कटौती और उनको हर सेक्टर में लाखों करोड़ की मुनाफावसूली का चाकचौबंद इंतजाम।

खुले बाजार की कैशलेस फेसलेस डिजिटलइकोनामी में आम लोगों के सफाया के बाद उनकी कंपनियों की मोनोपाली।

शेयर बाजार के उछलकूद में करोड़ों आम निवेशकों की जेबें खाली और सारी अरबों अरबों की मुनाफावसूली उन्हीं की। उन्हीं की बारह मास दिवाली होली।

अब आप हिसाब जोड़ते रहे कि ऐसे सुनहले दिनों की सरकार के राजकाज में आयकर छूट से आप कितने करोड़, कितने अरब उनकरे एकराधिकार बाजार में खरीददारी के लिए बचा लेंगे।

बहुत हुई जुमलेबाजी बहुत सही धोखेबाजी...अब भारत देश बचा लो | hastakshep | हस्तक्षेप