न्यायपालिका की आजादी को बाधित करने की कोशिश
न्यायपालिका की आजादी को बाधित करने की कोशिश
जाहिद खान
पूर्व सॉलिसिटर जनरल और वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम की उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के तौर पर नियुक्ति मामले में राजग सरकार ने जिस तरह से गैरजिम्मेवाराना बर्ताव किया था, उसे देश के प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने गलत ठहराया है। उन्होंने गोपाल सुब्रह्मण्यम का नाम कॉलेजियम द्वारा जज बनाने के लिए सुझाए गए चार जजों के पैनल से हटाने के लिए केंद्र की राजग सरकार की आलोचना करते हुए हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि उच्च संवैधानिक पद पर नियुक्ति के मामले में सरकार ने लापरवाह तरीके से काम किया।
मुख्य न्यायाधीश का एतराज इस बात को लेकर ज्यादा था कि सुब्रह्मण्यम के प्रस्ताव को तीन अन्य प्रस्तावों से कार्यपालिका द्वारा उनकी जानकारी और सहमति के बिना एकतरफा तरीके से अलग किया गया। सरकार ने गोपाल सुब्रह्मण्यम का नाम हटाने से पहले उनकी सहमति क्यों नहीं ली ? यह एतराज वाजिब भी है। कायदे से यदि सरकार गोपाल सुब्रह्मण्यम के नाम से सहमत नहीं थी, तो उसे जजों की समिति के सुझाव पर अपनी असहमति संबंधी वजह मुख्य न्यायाधीश को बतानी चाहिए थी। इस तरह पूरी फेहरिस्त पर नए सिरे से विचार किया जाता। यदि कॉलेजियम और मुख्य न्यायाधीश को लगता कि सरकार जो कह रही है, वह सही है तो उस पर मोहर लग जाती। लेकिन पूरी प्रक्रिया से गुजरे बिना, चार में से सिर्फ एक नाम को बिना वजह बताए खारिज कर देना, सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगाता है।
प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढ़ा ने ना सिर्फ गोपाल सुब्रह्मण्यम मामले में सरकार के एकतरफा और पक्षपातपूर्ण रवैये की घोर निंदा की, बल्कि उन्होंने अपनी ओर से सरकार को अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेश देने की भी कोशिश की, न्यायपालिका की स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं किया जाएगा। उनका यह नजरिया सही भी है। यदि उनका यह रुख सामने नहीं आता, तो देशवासियों में यह पैगाम जाता कि कार्यपालिका, न्यायपालिका से बड़ी है। और वह जब चाहे न्यायपालिका की आजादी से खिलवाड़ कर सकती है।
न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की तीखी प्रतिक्रिया ने राजग सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। इस पूरे मामले से यह भी मालूम चलता है कि न्यायपालिका, उसकी स्वतंत्रता और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के प्रति मोदी सरकार का कितना सम्मान है ?
गौरतलब है कि पिछले दिनों प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली जजों की एक समिति यानी कॉलेजियम ने सरकार से उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए अन्य तीन नामों के साथ वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम के नाम की सिफारिश की थी। सरकार ने इस पर कार्यवाही करते हुए तीन नामों को तो अपनी मंजूरी दे दी, लेकिन सिर्फ सुब्रह्मण्यम का नाम रोक लिया। गोपाल सुब्रह्मण्यम को जब यह बाते मालूम चली, तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बनने के लिए दी गई अपनी रजामंदी वापस ले ली। सुब्रह्मण्यम ने इस संबंध में प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली जजों की चयन समिति को एक लंबा पत्र लिख कर उनसे अनुरोध किया था कि उन्हें शीर्ष अदालत का न्यायाधीश बनाने संबंधी सिफारिश वापस ले ली जाए। चीफ जस्टिस को लिखे अपने इस पत्र में गोपाल सुब्रह्मण्यम ने न्यायाधीश नियुक्ति प्रक्रिया और न्यायिक स्वतंत्रता के संदर्भ में भी कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए थे। जब ये सब बातें मीडिया में आईं, तो सरकार ने यह सफाई दी कि गोपाल सुब्रह्मण्यम की नियुक्ति पद के अनुकूल नहीं है। उनके खिलाफ 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में सीबीआई और आईबी की प्रतिकूल रिपोर्ट हैं। लिहाजा उनके नाम की सिफारिश को ना मानते हुए, कॉलेजियम के पास पुनर्विचार के लिए वापस लौटा दिया था। जबकि सच बात, जो अब सबके सामने आ गई है, वह यह है कि सरकार ने कॉलेजियम के पास पुनर्विचार के लिए कोई फाइल भेजी ही नहीं थी। गोपाल सुब्रह्मण्यम का नाम, इस पद से अलग करने तथा अन्य नियुक्तियों की कार्यवाही मुख्य न्यायाधीश की जानकारी और कॉलेजियम की सहमति के बगैर ही कर दी गई थी। यानी इस पूरे मामले में सरकार ने ना सिर्फ मुख्य न्यायाधीश और कॉलेजियम को अंधेरे में रखा, बल्कि देशवासियों के सामने भी गलतबयानी की।
सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली एक समिति (कॉलिजियम) नामों पर विचार करती है और एक तरह से उसके सुझावों को अंतिम मान लिया जाता है। इसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। चयनित नाम औपचारिक स्वीकृति के लिए भेजे जरूर जाते हैं। अगर कभी किसी नाम पर सरकार को एतराज हो तो उस पर मुख्य न्यायाधीश के साथ विचार-विमर्श किया जाता है। कॉलेजियम को यदि लगता है कि सरकार का एतराज सही है, तो उसकी बात मान ली जाती है। पूर्व में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब कॉलेजियम की ओर से भेजे गए नामों में कुछ नाम पुनर्विचार के लिए सरकार ने वापस भेज दिए और बाकी पर सहमति दे दी। लेकिन जहां तक गोपाल सुब्रह्मण्यम मामले का सवाल है, तो इस मामले में सरकार की जो भी कार्यवाही रही, वह पूरी तरह से एकतरफा और दुर्भावनापूर्ण है। सरकार ने इस मामले में तयशुदा प्रक्रिया का बिल्कुल भी पालन नहीं किया। जबकि यह बेहद गंभीर मामला है।
गोपाल सुब्रह्मण्यम देश में इस वक्त मौजूद बेहतर कानूनी जानकारों में एक हैं। वे 34 सालों से लगातार वकालत कर रहे हैं और उनका काम सबके सामने है। अपनी काबलियत की ही वजह से वे यूपीए सरकार में महान्यायवादी भी रहे। उनका पूरा आचरण बेदाग रहा है। वे गोपाल सुब्रह्मण्यम ही थे, जिन्होंने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को सलाह दी थी कि संचार मंत्री ए राजा के आचरण की सीबीआई से जांच की अनुमति दी जाए, जिसे बाद में मान लिया गया था। जहां तक नीरा राडिया से उनका नाम जोड़े जाने का सवाल है, उन्हें राडिया मामले में जानबूझकर घसीटा गया। सच बात तो यह है कि अदालत में सुनवाई के दौरान राडिया टेप उन्होंने ही सुप्रीम कोर्ट को दिए थे। गोपाल सुब्रह्मण्यम अपने सिद्धांतों पर हमेशा अटल रहे और अपने इन सिद्धांतों की वजह से उन्होंने उस वक्त सॉलिसिटर जनरल के पद से इस्तीफा दिया था। मोदी सरकार जिस इंटेलिजेंस ब्यूरो और सीबीआई की रिपोर्टों का बहाना बनाकर अपने फैसले को सही साबित करने की कोशिश कर रही है। सच बात तो यह है कि कॉलेजियम में उनके नाम का फैसला तभी हुआ था, जब इंटेलिजेंस ब्यूरो और सीबीआई ने उन्हें क्लीन चिट दे दी थी। मुद्दा यह भी है कि जिन शिकायतों के आधार पर सरकार ने सुब्रह्मण्यम का नाम ठुकराया, क्या वे कॉलेजियम के सामने मौजूद नहीं थीं ?
गोपाल सुब्रह्मण्यम मामले को लेकर राजग सरकार ने अभी तलक जो भी दलीलें दी हैं, उन दलीलों में जरा सी भी हकीकत नहीं। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सूची से उनका नाम हटाने के पीछे दरअसल और दूसरी वजह जिम्मेदार हैं। सब जानते हैं कि गुजरात के सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में गोपाल सुब्रह्मण्यम ने शीर्ष अदालत में न्यायमित्र की भूमिका निभाई थी। इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नजदीकी सहयोगी अमित शाह मुख्य अभियुक्त हैं। गोपाल सुब्रह्मण्यम की ही वजह से उस वक्त पूरे देश में गुजरात सरकार की बुरी तरह से फजीहत हुई थी। जाहिर है जब गोपाल सुब्रह्मण्यम का नाम सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सामने आया, तो मोदी सरकार का असहज होना स्वाभाविक ही था। एक वकील के तौर पर उनके स्वतंत्र व्यवहार को देखते हुए सरकार आशंकित थी कि शायद वे उनके इशारे पर न चलें। इसी के चलते उनकी नियुक्ति की कॉलेजियम की सिफारिश सरकार ने ठुकरा दी। यानी सरकार की मंशा साफ है कि जो उनके खिलाफ चलेगा, उसे रास्ते से हटा दिया जाएगा।
सरकार का यह फैसला, लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थानों के दुरुपयोग की तरफ खतरनाक इशारा है। फिर यह पूरा मामला, न्यायपालिका की आजादी से भी जुड़ा हुआ है। उच्च संवैधानिक पद पर नियुक्ति के मामले में सरकार की इस तरह की दखलअंदाजी को, न्यायपालिका के काम को प्रभावित करने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद के लिए नामित करने की प्रक्रिया में शुचिता बेहद जरूरी है। सरकार यदि मनमाने तरीके से न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगी, न्यायपालिका को चलाने की कोशिश करेगी या अपने हितों को ध्यान में रखते हुए उसके कामकाज में दखल देगी, तो निश्चित तौर पर इससे लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता खतरे में पड़ जाएगी। यह चिंता इसलिए भी लाजमी हैं कि न्यायपालिका ही नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की सही रक्षक है। जब आम जनता सब तरफ से निराश हो जाती है, तो वह न्यायपालिका के पास ही इंसाफ के लिए जाती है। न्यायपालिका जनता का यकीन है और यदि इसी यकीन पर ठेस पहुंची, तो उसका विश्वास लोकतंत्र से भी उठ जाएगा।


