अमलेन्दु उपाध्याय
शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति वाले दीनानाथ बतरा जी आजकल चर्चा में हैं। उनके द्वारा फैलाया जा रहा शैक्षिक कचरा गुजरात में सजाया जा रहा है और इस गुजरात मॉडल को देश भर में लागू करने की तैयारी है। लेकिन बतरा जी ऐसे अकेले प्राणी नहीं हैं। अब साफ हो गया है कि जज साहब भी तानाशाह बनने के सपने पाल रहे हैं और देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का आवाहन कर चुके हैं। राष्ट्रवादी बतरा जी का कचरा शैक्षिक जगत और राजनीति से निकलकर न्यायपालिका तक जा पहुंचा है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सर्वोच्च न्यायालय के एक जज जस्टिस ए आर दवे ने कहा है कि अगर वो भारत के तानाशाह होते तो पहली कक्षा से महाभारत और भगवद् गीता की पढ़ाई शुरू करवाते। दवे ने कहा कि महाभारत और भगवद् गीता से हम जीवन जीने का तरीका सीखते हैं। भारत को अपनी प्राचीन परंपरा और ग्रंथों की ओर लौटना चाहिए। दवे गुजरात लॉ सोसाइटी की ओर 'समकालीन मुद्दों एवं वैश्वीकरण के युग में मानवाधिकारों की चुनौतियां' विषय पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय विचार गोष्ठी को संबोधित कर रहे थे।

दवे के वक्तव्य को यूँ ही उनकी निजी अभिव्यक्ति कहकर छोड़ा नहीं जा सकता, बल्कि यह साफ इशारा है कि न्यायपालिका में भी ऐसे तानाशाहीपूर्ण प्रवृत्ति वाले लोगों का प्रवेश हो चुका है, इसलिए इस न्यायपालिका से, (जिसमें जस्टिस दवे जैसे लोग विराजमान हैं) कम से कम ऐसे लोगों को तो कोई उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए जिन्हें इस देश के संविधान और लोकतंत्र पर यकीन है। ऐसा वेवजह नहीं है बल्कि ऐसा सोचने के लिए जमीन खुद दवे ने ही मुहैया कराई है। दवे ने साफ-साफ कहा, "तथाकथित सेक्युलर लोग सहमत नहीं होंगे ... अगर मैं भारत का तानाशाह होता तो मैंने पहली क्लास से गीता और महाभारत शुरू करवा दिया होता।" उन्होंने कहा, "मैं माफ़ी चाहता हूं अगर कोई कहता है कि मैं सेक्युलर हूँ या मैं सेक्युलर नहीं हूँ। लेकिन अगर कहीं कुछ अच्छा है तो इसे कहीं से भी लेना चाहिए।"

यानी दवे स्वीकार कर रहे हैं कि वे जो कुछ कह रहे हैं, वह इस देश के संविधान और धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है। सवाल है कि क्या इसके बाद भी दवे के विरुद्ध कोई कानूनी कार्रवाई बनती है या नहीं? ध्यान रहे दवे कोई राजनेता नहीं हैं, वे प्रवीण तोगड़िया और अशोक सिंघल या संगीत सोम भी नहीं हैं कि जो मन में आए, सो बोल दें। वह इस देश की सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश हैं और जाहिर है कि अदालत भी संविधान के अधीन है और दवे को संविधान की मूल भावना को आहत करके कुछ भी बोलने का विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। एक जज कैसे इस तरह की बात कह सकते हैं। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की बात छोड़ भी दें तो दवे का बयान भारत के संविधान के एकदम खिलाफ है। प्रश्न उठता है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश इस संबंध में कोई स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई करेंगे ?

हालांकि दवे के इस वक्तव्य की देश भर में तीव्र भर्त्सना हो रही है लेकिन भारतीय जनता पार्टी अपने संघ परिवारी एजेंडे के तहत दवे के बचाव में अति सक्रिय है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने दवे के वक्तव्य से पूर्ण असहमति जताई है। जस्टिस काटजू ने कहा कि मैं जस्टिस दवे की माँग से पूर्णतः असहमत हूँ। उन्होंने कहा कि इतनी विविधता वाले देश में इस तरह का कुछ भी थोपा नहीं जाना चाहिए, यह हमारे संविधान और देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के एकदम खिलाफ है।

प्रेस परिषद् अध्यक्ष ने सवाल किया कि मुस्लिम और ईसाई अपने बच्चों को ये पुस्तकें नहीं पढ़ाना चाहते हैं तो क्या उन्हें यह पढ़ने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए? उन्होंने कहा कि कुछ लोग कहते हैं कि सिर्फ गीता नैतिक शिक्षा देती है। लेकिन यही बात मुसलमान कह सकते हैं कि केवल कुरान ही नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाती है, ईसाई कह सकते हैं कि केवल बाईबिल ही नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाती है, सिख कह सकते हैं कि केवल गुरू ग्रंथ साहिब ही ही नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाता है, पारसी कह सकते हैं कि केवल ज़ेन अवेस्टा ही ही नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाती है। उन्होंने कहा कि इस तरह की मजबूरी या अधिरोपण हमारे देश की एकता के लिए बहुत घातक है।

जस्टिस दवे के वक्तव्य की टाइमिंग पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। यह वक्तव्य ठीक ऐसे समय आया है जब प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी भूतपूर्व हिंदू राष्ट्र नेपाल की यात्रा पर जा रहे हैं। मोदी की नेपाल यात्रा को नेपाल की राजतंत्र समर्थक ताकतें वहां हिंदू राष्ट्र की बहाली के लिए एक संजीवनी के तौर पर देख रही हैं। इसलिए दवे देश और पड़ोस में जिन ताकतों को हवा और संदेश दे रहे हैं, उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। ध्यान यह भी देना है कि दवे यह वक्तव्य अहमदाबाद से दे रहे हैं यानी गुजरात मॉडल का मुकम्मल संदेश!

वैसे दवे को धन्यवाद दिया जाना भी बनता है कि उन्होंने बता दिया है कि धर्मराष्ट्र तानाशाह होता है और हर धर्म तानाशाहों के बल पर ही फलता-फूलता है। दवे के वक्तव्य का एक सार यह भी है।

अब भारतीय जनता पार्टी दवे के बचाव में जिस तरह की बयानबाजी कर रही है, उससे दवे के वक्तव्य की बदबू और अधिक फैल रही है। भाजपा नेता नलिन कोहली का बयान मीडिया में आया है कि "महाभारत, गीता और रामायण के साथ कुछ भी ग़लत नहीं है। इसे धर्म के नज़रिए से नहीं देखना चाहिए। उनके बयान को सेक्युलरिज़्म के ख़िलाफ़ नहीं समझा जाना चाहिए।"

कमाल की बात है कि स्वयं जस्टिस दवे कह रहे हैं, “मैं माफ़ी चाहता हूं अगर कोई कहता है कि मैं सेक्युलर हूँ या मैं सेक्युलर नहीं हूँ” और नलिन कोहली कह रहे हैं कि उनके बयान को सेक्युलरिज़्म के ख़िलाफ़ नहीं समझा जाना चाहिए ! इसमें समझने वाली बात कोई है ही नहीं, दवे साहब पूरे होश-ओ-हवास में न सिर्फ सेक्युलरिज़्म के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तानाशाही का औचित्य भी सिद्ध कर रहे हैं। वह साफ-साफ कह रहे हैं- "तथाकथित सेक्युलर लोग सहमत नहीं होंगे। " इसके बाद भी नलिन कोहली का तर्क क्या विश्वास करने योग्य है?

कोहली कह रहे हैं कि महाभारत, गीता और रामायण के साथ कुछ भी ग़लत नहीं है। इसे धर्म के नज़रिए से नहीं देखना चाहिए। यदि ऐसा ही है तो एक महाकाव्य की हैसियत से कोई महाभारत, गीता और रामायण पढ़े तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी ? आपत्ति महाभारत, गीता और रामायण पढ़ने पर नहीं, तानाशाह बनकर जबरन पढ़ाए जाने पर है। और दवे बाकायदा इसे धर्म के नजरिए से ही कह रहे हैं और जोर देकर कह रहे हैं, स्पष्ट कह रहे हैं।

दवे का वक्तव्य आने वाले दिनों में न्यायपालिका के जरिए देश के संविधान पर चोट करने की रणनीति का आगाज है। बतरा जी का कचरा सर्वत्र विराजमान है।

अमलेन्दु उपाध्याय, लेखक राजनीतिक विश्लेषक व हस्तक्षेप.कॉम के संपादक हैं।